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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय ५

चंचुला के प्रयत्न  से पार्वतीजी की आज्ञा पाकर तुम्बुरु का विन्ध्यपर्वत पर शिवपुराण की कथा सुनाकर बिन्दुग का पिशाचयोनि से उद्धार करना तथा उन दोनों दम्पति का शिवधाम में सुखी होना

सूतजी बोले- शौनक! एक दिन परमानन्द में निमग्न हुई चंचुला ने उमादेवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर वह उनकी स्तुति करने लगी। चंचुला बोली- गिरिराजनन्दिनी! स्कन्द- माता उमे! मनुष्यों ने सदा आपका सेवन किया है। समस्त सुखों को देनेवाली शम्भुप्रिये! आप ब्रह्मस्वरूपिणी हैं। विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा सेव्य हैं। आप ही सगुणा और निर्गुणा हैं तथा आप ही सूक्ष्मा सच्चिदानन्दस्वरूपिणी आद्या प्रकृति हैं। आप ही संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हैं। तीनों गुणों का आश्रय भी आप ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर- इन तीनों देवताओं का आवास- स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करने वाली पराशक्ति आप ही हैं।

सूतजी कहते हैं- शौनक! जिसे सद्‌गति प्राप्त हो चुकी थी, वह चंचुला इस प्रकार महेश्वरपत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी। उसके नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये थे। तब करुणा से भरी हुई शंकरप्रिया भक्तवत्सला पार्वतीदेवी ने चंचुला को सम्बोधित करके बड़े प्रेम से इस प्रकार कहा-

पार्वती बोलीं- सखी चंचुले! सुन्दरि! मैं तुम्हारी की हुई इस स्तुति से बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो, क्या वर माँगती हो? तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।

चंचुला बोली- निष्पाप गिरिराजकुमारी! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहाँ हैं, उनकी कैसी गति हुई है- यह मैं नहीं जानती! कल्याणमयी दीनवत्सले! मैं अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूँ, वैसा ही उपाय कीजिये। महेश्वरि! महादेवि! मेरे पति एक शूद्रजातीय वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप में ही डूबे रहते थे। उनकी मृत्यु मुझसे पहले ही हो गयी थी। न जाने वे किस गति को प्राप्त हुए।

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