गीता प्रेस, गोरखपुर >> प्रश्नोपनिषद् प्रश्नोपनिषद्गीताप्रेस
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सानुवाद शांकरभाष्य सहित प्रश्नोपनिषद् की मार्मिक प्रस्तुति। प्रश्नोपनिषद अथर्ववेदीय ब्राह्मणभाग के अन्तर्गत है। इस उपनिषद् के छः खण्ड हैं, जो छः प्रश्न कहे जाते हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रश्नोपनिषद अथर्ववेदीय ब्राह्मणभाग के अन्तर्गत है। इसका भाष्य आरम्भ
करते हुए भगवान् भाष्यकार लिखते हैं- ‘अथर्ववेद के मन्त्रभाग में
कही हुई (मुण्डक) उपनिषद् के अर्थका ही विस्तार से अनुवाद करनेवाली यह
ब्राह्मणोपनिषद् आरम्भ की जाती है’ इससे विदित होता है कि
प्रश्नोंपनिषद, मुण्डकोपनिषद् में कहे हुए विषय की ही पूर्ति के लिये है।
मुण्डक के आरम्भ में विद्या के दो भेद परा और अपराका उल्लेख कर फिर समस्त
गन्थमें उन्हीं की व्याख्या की गयी है। उसमें दोनों विधाओं का सविस्तार
वर्णन है और प्रश्न में उनकी प्राप्ति के साधनस्वरूप प्राणोपासना आदिका
निरुपण है। इसलिये इसे उसकी पूर्ति करने वाली कहा जाए तो उचित ही है।
इस उपनिषद् के छः खण्ड हैं, जो छः प्रश्न कहे जाते हैं। ग्रन्थ के आरम्भ में सुकेशा आदि छः ऋषिकुमार मुनिवर पिप्पलादके आश्रमपर आकर कुछ पूछना चाहते हैं। मुनि उन्हें आज्ञा करते हैं कि अभी एक वर्ष यहाँ संयमपूर्वक रहो, उसके पीछे जिसे जो-जो प्रश्न करना हो पूछना। इससे दो बातें ज्ञात होती हैं; एक तो यह है कि शिष्य को कुछ दिन अच्छी तरह संयमपूर्वक गुरुसेवा में रहने पर ही विद्याग्रहणकी योग्यता प्राप्त होती है, अकस्मात् प्रश्नोत्तर करके ही कोई यथार्थ तत्व को नहीं ग्रहण कर सकता; तथा दूसरी बात यह है कि गुरु को भी शिष्य की बिना पूरी परीक्षा किये विद्या का उपदेश नहीं करना चाहिये, क्योंकि अनधिकारी को किया हुआ उपदेश निरर्थक ही नहीं कई बार हानिकर भी हो जाता है। इसलिये शिष्य के अधिकार का पूरी तरह विचारकर उसकी योग्यता के अनुसार ही उपदेश करना चाहिये।
इस उपनिषद् के छः खण्ड हैं, जो छः प्रश्न कहे जाते हैं। ग्रन्थ के आरम्भ में सुकेशा आदि छः ऋषिकुमार मुनिवर पिप्पलादके आश्रमपर आकर कुछ पूछना चाहते हैं। मुनि उन्हें आज्ञा करते हैं कि अभी एक वर्ष यहाँ संयमपूर्वक रहो, उसके पीछे जिसे जो-जो प्रश्न करना हो पूछना। इससे दो बातें ज्ञात होती हैं; एक तो यह है कि शिष्य को कुछ दिन अच्छी तरह संयमपूर्वक गुरुसेवा में रहने पर ही विद्याग्रहणकी योग्यता प्राप्त होती है, अकस्मात् प्रश्नोत्तर करके ही कोई यथार्थ तत्व को नहीं ग्रहण कर सकता; तथा दूसरी बात यह है कि गुरु को भी शिष्य की बिना पूरी परीक्षा किये विद्या का उपदेश नहीं करना चाहिये, क्योंकि अनधिकारी को किया हुआ उपदेश निरर्थक ही नहीं कई बार हानिकर भी हो जाता है। इसलिये शिष्य के अधिकार का पूरी तरह विचारकर उसकी योग्यता के अनुसार ही उपदेश करना चाहिये।
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