गीता प्रेस, गोरखपुर >> तैत्तरीयोपनिषद् तैत्तरीयोपनिषद्गीताप्रेस
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इसमें भगवान् ने बतलाया है कि मोक्षरूप परम निःश्रेयसकी प्राप्ति का एकमात्र साधन हेतु ज्ञान ही है। इसके लिए कोई अन्य साधन नहीं है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीयारण्यकके प्रपाठक 7, 8 और 9 का नाम
तैत्तिरीयोपनिषद् है,। इनमें सप्तम प्रपाठक, जिसे तैत्तिरीयोपनिषदकी
शीक्षावल्ली कहते हैं, सांहिती उपनिषद कही जाती है और अष्टम तथा नवम
प्रपाठक, जो इस उपनिषद की ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली हैं, वारुणी
उपनिषद् कहलाती हैं। इनके आगे जो दशम प्रपाठक है उसे नारायणोपनिषद कहते
हैं, वह याज्ञिकी उपनिषद् है। इसमें महत्व की दृष्टि से वारुणी उपनिषद
प्रधान है; उससे विशुद्ध ब्रह्मविद्या का ही निरुपण किया गया है । किन्तु
उसकी उपलब्धि के लिये चित्त की एकाग्रता एवं गुरुकृपाकी आवश्यकता है। इसके
लिये शीक्षावल्ली में कई प्रकार की उपासना तथा शिष्य एवं आचार्य सम्बन्धी
शिष्टाचार का निरुपण किया गया है। अतः औपनिषद सिद्धान्तों को हृदयंगम करने
के लिये पहले शीक्षावल्ल्युक्त उपासनादिका ही आश्रय लेना चाहिये। इसके आगे
ब्रह्मनन्दवल्ली तथा भृगुवल्ली में जिस ब्रह्माविद्याका निरूपण
है
उसके सम्प्रदायप्रवर्तक वरुण हैं इसलिये वे दोनों वल्लियाँ वारुणी विद्या
अथवा वारुणी उपनिषद कहलाती हैं।
इस उपनिषद पर भगवान शंकराचार्य ने जो भाष्य लिखा है वह बहुत ही विचारपूर्ण और युक्तियुक्त है। उसके आरम्भ में ग्रन्थ का उपोद्घात करते हुए भगवान ने यह बतलाया है कि मोक्षरूप परम निःश्रेयस की प्राप्ति का एकमात्र हेतु ज्ञान ही है। इसके लिये कोई अन्य साधन नहीं है। मीमांसकों के मत में ‘‘स्वर्ग शब्दवाच्य निरतिशय प्रीति (प्रेय) ही मोक्ष है और उसकी प्राप्ति का साधना कर्म है। इस मत का आचार्य ने अनेकों युक्तियों से खण्डन किया है और स्वर्ग तथा कर्म दोनों ही की अनित्यता सिद्ध की है।
इस उपनिषद पर भगवान शंकराचार्य ने जो भाष्य लिखा है वह बहुत ही विचारपूर्ण और युक्तियुक्त है। उसके आरम्भ में ग्रन्थ का उपोद्घात करते हुए भगवान ने यह बतलाया है कि मोक्षरूप परम निःश्रेयस की प्राप्ति का एकमात्र हेतु ज्ञान ही है। इसके लिये कोई अन्य साधन नहीं है। मीमांसकों के मत में ‘‘स्वर्ग शब्दवाच्य निरतिशय प्रीति (प्रेय) ही मोक्ष है और उसकी प्राप्ति का साधना कर्म है। इस मत का आचार्य ने अनेकों युक्तियों से खण्डन किया है और स्वर्ग तथा कर्म दोनों ही की अनित्यता सिद्ध की है।
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