ऐतिहासिक >> छिन्नमस्ता छिन्नमस्ताइन्दिरा गोस्वामी
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असमिया साहित्यलोक में एक असाधारण सृष्टि। शक्तिपीठ कामाख्या की पृष्ठभूमि में 1921 से 1932 की अवधि की घटनाओं पर आधारित।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित असमिया की प्रतिष्ठित कथाकार इन्दिरा गोस्वामी के उपन्यास छिन्नमस्ता को असमिया पाठक-समाज में एक असाधारण सृष्टि कहा-माना गया है। यह उपन्यास शक्तिपीठ कामाख्या की पृष्ठभूमि में 1921 से 1932 की अवधि की घटनाओं पर आधारित है, लेकिन कहीं-कहीं इसकी कथावस्तु अपने अतीत को भी समेटती है। दरअसल कामरूप कामाख्या के इतिहास, वहाँ की परम्परा और लोक-गाथाओं का गम्भीर अध्ययन करके इन्दिरा जी ने इस उपन्यास में एक बड़े फलक पर छोटे-बड़े अनेक रंगारंग चित्रों को बड़ी कलात्मकता के साथ उकेरा है।
दो विरोधी विचारधाराओं- अहिंसा और हिंसा- के टकराओं के बीच गरीबी, निरक्षरत, अज्ञान और अन्धविशावसों से घिरे कामरूप के जन-जीवन की सच्ची कहानी।
दो विरोधी विचारधाराओं- अहिंसा और हिंसा- के टकराओं के बीच गरीबी, निरक्षरत, अज्ञान और अन्धविशावसों से घिरे कामरूप के जन-जीवन की सच्ची कहानी।
प्रस्तुति
मठों और मंदिरों से समृद्ध असम के देवीपीठ आदि स्थलों एवं सम्बद्ध
चरित्रों पर लिखी गयीं’ सर्जनात्मक रचनाएँ बहुत हैं, यद्यपि
रजनीकान्त बरदलै का ‘ताम्रेश्वरी का मन्दिर’ एक अनूठी
रचना है। मन्दिरों से जुड़ा हुआ प्राचीन इतिहास, वहाँ की धार्मिक और
सांस्कृतिक परम्पराएँ, प्राकृतिक परिवेश और सबसे सम्बन्धित लोगों के
रोज़मर्रा के जीवन पर सार्थक साहित्य की सृष्टि हो सकती है। ऐसी रचनाओं के
अध्ययन से हम प्राचीन इतिहास, शिल्पकला, चित्रकला, लोककला, लोकगाथा,
लोकविश्वास और सामाजिक परम्पराओं के, उनके विभिन्न तथ्यों के बारे में
ज्ञान-लाभ कर सकते हैं। ऐसे अध्ययन को साहित्य का रूप देने के लिए चाहिए
खोजी मन और अधिक श्रम-साधना। अतीत की गहराई में प्रवेश कर सूक्ष्म रूप से
उस समय के परिवेश और समाज को देखा जाय तो उससे उत्कृष्ट साहित्य की सृष्टि
हो सकती है। उदाहरण के तौर पर, शिवसागर के विभिन्न मठ और मन्दिर,
नेधेरिढ़िंग के शिव मन्दिर, ग्वालपाड़ा का सूर्य पहाड़, तेजपुर का महाभैरव
मन्दिर, और गुवाहाटी के कामारण्य, नवग्रह और उमानन्द जैसे मन्दिरों में
लेखकों को निःसन्देह सार्थक साहित्य के लिए भरपूर सामग्री है। सैकड़ों
वर्षों से ये धार्मिक स्थान, पहाड़ और मठसमूह कितने ही घटनाचक्रों के मौन
दर्शक बने हुए हैं। चाहें तो इन सबको आधार बनाकर लिखे गये साहित्य को
‘मन्दिर-साहित्य’ नाम दे सकते हैं।
यह सुखद बात है कि असमिया की प्रख्यात लेखिका इन्दिरा गोस्वामी (मामोनी रायसम गोस्वामी) ने अपने गम्भीर अध्ययन से देवीपीठ कामाख्या के इतिहास एवं लोकगाथाओं से सामग्री लेकर उपन्यास ‘छिन्नमस्तार भानूदरो’ (छिन्नमस्ता) की रचना की है। यह उपन्यास पहले धारावाहिक रूप में असमिया पत्रिका ‘गरीयसी’ में प्रकाशित हो चुका है। ‘स्टूडेण्ट्स स्टोर’, गुवाहाटी ने 2001 में इसे प्रकाशित किया है। इस पुस्तक को हम लोग सीधे तौर पर उपन्यास नहीं कहना चाहते यद्यपि आंचलिक (लोकल) उपन्यास के कई रूप इसमें समाहित हैं।
इस कृति को उपन्यास कहा जाए या नहीं, इस विषय पर बहस की काफ़ी गुंजाइश है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि यह कृति लेखिका की एक असाधारण सृष्टि है।
इस पुस्तक में कामाख्या मन्दिर का एक परिपूर्ण चित्र अंकित किया गया है। यहाँ की पूजा-अर्चना के विभिन्न रूप, आतार-नीति, लोक-विश्वास, लोकगाथा, देवीपीठ के साथ जुड़ी हुई किंवदन्तियाँ, देवीपीठ का इतिहास, यहां की धार्मिक परम्परा (मनसा-पूजा में यहाँ मुश्लिम सम्प्रदाय के लोग भी बलि चढ़ाते थे), साथ ही इसके नकारात्मक पहलू आदि को कथानक का रूप दिया गया है। पुस्तक में कुछ भी छोड़ा नहीं गया है।
दरअसल यह पुस्तक एक विशाल चित्रपट पर संयोजित छोटे-बड़े और अनेक रंगों के चित्रों का ‘कोलाज़’ है, एक एन्टिटी है। इस पुस्तक में जिस उद्देश्य को साधा गया है, जिसे कथानक के अन्त में विस्तृत रूप में दर्शाया भी गया है वह है समन्वय। अतः एक तरह से इस पुस्तक को ‘कामाख्या परम्परा का समन्वय’ ( Kamakhyalore) कहा जाना चाहिए।
असम के बाहरवाले इलाक़ों में एक लोक-विश्वास पहले प्रचलित था कि ‘कामरूप’ में जानेवाले लोग भेड़ बन जाते हैं। अनपढ़ लोगों के लिए यह विश्वास अलौकिक हो सकता है लेकिन विज्ञों के लिए यह प्राचीन कामरूप के सुन्दर हरे-भरे रूप को ही दर्शाता है। लोग इसी सुन्दरता में क़ैद हो जाते थे और हां के आकर्षण उन्हें मोह लेते थे। कामरूप और कामाख्या अलग-अलग नहीं हैं। दरअसल कामरूप-कामाख्या का उच्चारण एक साथ ही किया जाता है। किसी को भेड़ बनानेवाली या मन्त्रमुग्ध करनेवाली बात एक आसामान्य गुण को ही दर्शाती है। इस उपन्यास में लेखिका ने इस गुण को अच्छी तरह से समझाया है। इसी कारण से यह बहुत ही सरस और रोचक बन गया है, इसे एक बार खोलने के बाद लगातार आख़िर तक पढ़ने को मन करता है।
इस पुस्तक में परम्परागत अर्थ में कोई लम्बी कहानी नहीं है। कहानी के नाम पर बस एक लकीर है। वह भी बीच-बीच में मिट जाती है आख़िर में थोड़ी देर के लिए स्पष्ट होती है। नायक या प्रधान चरित्र भी सही अर्थ में यहां नहीं है। लेकिन चर्चा की सुविधा के लिए कृति के लिए के दो-चार व्यक्तियों को हम चरित्र ही कहेंगे। कहानी घटनाओं से भरपूर है लेकिन कोई भी घटना एक ही केन्द्र-बिन्दु से नहीं निकलती जैसे सारी घटनाएँ अपने-आप घट रही हैं। यह विरोध दिखाया गया है, उनकी शुरूआत भी बहुत देर से हुई है। यह विरोध और मतभेद देवी के लिए दी गयी पशुबलि के सम्बन्ध में दिखाई गयी है। पुस्तक के अधिकांश भाग में देवीपीठ की धार्मिक और इनके चित्रण में सांस्कृतिक परम्पराओं से जुड़े अनेक तथ्य भरे हुए हैं इनके चित्रण में लेखिका ने सूक्ष्म दृष्टि, जिज्ञासा और मन का परिचय दिया है इसमें उन्होंने इस क्षेत्र के अतीत को गहराई तक खोजा है। और वह भी इस तरह कि पाठक अपने आप इसमें लीन हो जाते हैं-सिर्फ़ दर्शक बनकर चुपचाप नहीं रहते-वे भी उपन्यास के अंश बन जाते हैं। इसी में लेखिका की असामान्य पारदर्शिता झलकती है। उन्होंने सचेत होकर इस पुस्तक को रंगीन नहीं बनाया यह बात पाठक बड़ी आसानी से समझ सकता है।
कथानक की शुरूआत की गयी है छिन्नमस्ता के मन्दिर के जटाधारी संन्यासी और डरथी ब्राउन नाम की एक अंग्रेज़ महिला के प्रसंग से। कॉटन कॉलेज के अध्यापक राबर्ट ब्राउन की पत्नी डरथी के बच्चे नहीं है। उसी के इलाज के लिए वह इंलैण्ड गयी थी। वापस आने पर उसे पता चला कि उसके पति के साथ एक ‘खासी’ जनजाति की महिला का नाज़ायज सम्बन्ध है। डरथी का स्वाभिमानी मन दुःखी हो उठा। मन शान्ति के लिए वह छिन्नमस्ता के संन्यासी के आश्रय में चली गयी। इस आश्रय का स्वरूप क्या है यह उपन्यास में कहीं भी खुलकर नहीं लिखा गया है, लेकिन पाठक समझ सकते हैं कि यह एक प्रकार का आध्यात्मिक या आत्मिक सम्बन्ध है।
कहानी के अन्त में डरथी छिन्नमस्ता के संन्यासी से कहती है, ‘मैं रहूंगी। मैं हमेशा तुम्हारी छाया बनकर रहूँगी। हमारे सम्बन्ध का कोई नाम नहीं होगा। हमारा सम्बन्ध दुनिया में एक अनूठा सम्बन्ध है, विशेष सम्बन्ध है, एक श्रेष्ठ सम्बन्ध है।’ उल्लेखनीय यह है कि डरथी को असमिया भाषा अच्छी तरह से आती थी। वह कामाख्या पीठ में ही रहती थी। पति के अनुरोध और विनती के बावजूद वह अपने घर लौटती नहीं। संन्यासी के साथ एक सुन्दर विदेशी युवती का सम्बन्ध आसपास के लोगों में कौतूहल पैदा करता है। उनके सम्बन्ध को लेकर लोगों के बीच कई तरह की रोचक चर्चा भी हुई है। इसी प्रसंग को तरसा-किनारे से आया एक अन्य संन्यासी बढ़-चढ़कर प्रसारित करता है और वहाँ के जनजीवन को भड़काता है। पुस्तक में इस संन्यासी को खलनायक का रूप दिया गया है। डरथी पर बुरी नजर रखनेवाले इस संन्यासी ने बदमाशों द्वारा हमला करवाया। बदमाशों ने डरथी पर बलात्कार की कोशिश भी की। कथानक में कामाख्या में डरथी के प्रसव का जो विस्तृत विवरण दिया गया है वह पाठकों को बाँधे रखता है।
इस घटना के बाद कुछ दिनों के लिए छिन्नमस्ता का संन्यासी और डरथी ब्राउन कामाख्या से दूर चले जाते हैं। वे अपने गन्तव्य स्थल के बारे में किसी को कुछ नहीं बताते लेकिन लोगों को पता चल जाता है कि वे बलि रोकने के लिए जनमत जुटाने को गये हैं। जाने से पहले संन्यासी ने अपने प्रिय शिष्य बलिविरोधी रत्नधर को बताया था कि वे मालेगढ़ और चक्रशिला में कुछ दिन रहेंगे। उसके बाद वे लोग आगे बढ़ जाएँगे और देवध्वनि उत्सव के समय वापस आ जाएँगे।
कथानक में छिन्नमस्ता के जटाधारी का प्रसंग रहस्यमय है। उसी तरह डरथी के चरित्र में भी काव्यगत वैशिष्ट्य है। उसके व्यक्तित्व में शान्ति और दृढ़ता का समावेश दिखाया गया है। ये दोनों चरित्र भी पाठकों को बाँधकर रखते हैं। इनमें से एक है मनमोहन पण्डा का बेटा रत्नधर। वह एक निपुण चित्रकार है। डरथी उसे चित्र बनाने के लिए उत्साहित करती है। एक और किशोर चरित्र है-विधिबाला। यह लड़की भी बलि-विरोधी है। यह चरित्र भी पाठकों के मन में सहानुभूति भर देता है। इस चरित्र के चित्रण में लेखिका की सहज सर्जनात्मक (इज़ी क्रिएटिविटी) स्पष्ट दिखती है।इस चरित्र को और विस्तृत बनाने का अवकाश था। विधिबाला को पाठक अपने मन से मिटा नहीं पाते।
असमिया पत्रिका ‘गरीयसी’ में प्रकाशित होते समय ही यह पुस्तक काफ़ी चर्चित हुई थी। इसका कारण था कि लेखिका ने इस पुस्तक में पशुबलि का विरोध किया है। अपने वक्तव्य के समर्थन में उन्होंने कालिकापुराण आदि शास्त्रों के अंशों को भी उद्घृत किया है। ‘छिन्नमस्ता के संन्यासी’ बलिप्रथा का विरोध करते हैं। वे हर समय ज़ोर देकर बोलते रहते हैं-‘‘माँ छिन्नमस्ता, माँ, तुम रक्त वस्त्र उतार दो ! माँ, माँ !’’ एक उदाहरण देखिए, छिन्नमस्ता के संन्यासी के लिए प्रतीक्षारत भक्तों ने एक साथ कहा, ‘‘रक्त को त्याग दो ! फूलों से देवी की पूजा करो ! फूलों में ज़्यादा शक्ति है। रक्त को त्याग दो ! फूलों से जगज्जननी के पैर धुलाओ ! फूलों की पंखुड़ियों में मनुष्य-हृदय छुपा रहता है। मनुष्य की अदृश्य आत्मा को फूल ही सुगन्धित बनाये रखते हैं। रक्त को त्याग दो, फूलों से देवी माता की पूजा करो !’’ कहानी के मध्यभाग से ही इस प्रसंग को मूलरूप दिया गया है और वह धीरे-धीरे तेज़ गति से आगे बढ़ने लगता है। इसका विरोध भी होता है। दो अलग-अलग विचार वाले लोग आपस में टकराते हैं। एक दल तर्कसम्मत, जीवप्रेमी और उदार है। दूसरा दल पुराने संस्कारों से घिरा, हिंस्त्र और पराश्रित है। दरअसल यही कथानक का मूल विषय है, लेकिन इसे सर्जनात्मक स्वरूप प्रदान किया गया है। कथानक में मूल विषय के साथ कई प्रक्षिप्त घटनाएँ हैं। इनमें से किशोरी विधिबाला का प्रसंग भी एक है। एक बूढ़े, शादीशुदा और पहली पत्नी से हुए बच्चों वाले आदमी के साथ विधिबाला की शादी करना चाहते हैं उनके पिता, जो पुराने संस्कारों को मानते हैं। विधिबाला के साथ की गयी इस ज़बरदस्ती की यहाँ पशुबलि से तुलना की गयी है। अलग अलग चरित्र कथा के विस्तार में सहायक सिद्ध हुए हैं। इन चरित्रों में मुख्य हैं पुलु ढोलकिया, विधिबाला के पिता सिंहदत्त, नर्तकी वेश्याओं के दल और विभिन्न देवी-देवताओं के ‘घोड़ा’ (वे लोग जिनकी आत्मा देवी-देवता से प्रेरित हो जाती है)।
कामाख्या के जनजीवन की सच्ची कहानी-ग़रीबी, निरक्षरता, अज्ञान, कुसंस्कार और अन्धविश्वासों से घिरे लोगों की सच्ची कहानी, लेखिका ने इस पुस्तक में दी है। सिर्फ़ कामाख्या ही नहीं, कामाख्या के आसपास वाले इलाक़ों, ब्रह्मपुत्र के उत्तर और दक्षिण किनारों का जनजीवन भी इस उपन्यास में स्पष्ट है। इस तरह से देखा जाय तो इस उपन्यास को एक ‘सामाजिक दस्तावेज़’ (ह्यूमन डॉकुमेण्ट) कहा जा सकता है। समाज के पिछड़े और शोषितवर्ग के प्रति इन्दिरा गोस्वामी की समवेदना इस कृति के हर प्रसंग में स्पष्ट झलकती है। उपन्यास में ब्रह्मपुत्र के उत्तर और दक्षिण किनारे की विभिन्न जगहों को ध्यान में रखकर ही लेखिका ने अनेक प्रसंगों में आंचलिक ‘कामरूपी भाषा’ का प्रयोग किया है। इसके फलस्वरूप कथानक का अधिकांश यथार्थ से जुड़ गया है।
बहुत दिनों से कामाख्या से दूर चले छिन्नमस्ता के संन्यासी और डरथी ब्राउन वापस आ जाते हैं। किसी हत्यारे ने गोली मारकर डरथी की हत्या कर दी है। बाद में पता चलता है कि गोली मारनेवाला व्यक्ति डरथी का पति था।
यहाँ तक कहानी की सिर्फ़ ‘आउट लाइन’ दी गयी है। अलग-अलग उपादान इसे पूर्णता प्रदान करते हैं। उनमें हैं अनेक खण्डचित्र, लोककथाएँ, लोकविश्वास, प्रकृति-वर्णन, इतिहास, किंवदन्तियाँ, लोकाचार और वहाँ की राजनैतिक परिस्थितियाँ। कहानी कितनी सशक्त है यह इस उपन्यास में मुख्य बात नहीं है, मुख्य बात है इसकी परिपूर्णता, लेखिका की असाधारण प्रतिभा। हर प्रसंग में पाठक कहानी के साथ जुड़ जाता है, वह सिर्फ़ दर्शक नहीं बना रहता। पुस्तक की एक उल्लेखनीय विशेषता है-परम्परा से चली आ रही पशुबलि जैसी निर्मम प्रथा का विरोध। लेखक का उद्देश्य भी यही है। डरथी, विधिबाला और रत्नधर, मन से पशुबलि का विरोध करते हैं। साथ ही विद्यापीठ के वे छात्र भी हैं जो बलि-प्रथा बन्द करवाने के लिए लोगों से दस्तख़त कराते हैं।
असमिया साहित्य में समाज को जागरूक करनेवाली अनेक रचनाएँ हैं। ‘छिन्नमस्ता’ उसकी आख़िरी कड़ी है। लेकिन पशुबलि के विरोध में आवाज़ उठानेवाले असमिया साहित्यकारों में इन्दिरा गोस्वामी पहला नाम है। उनकी साहसपूर्ण कोशिश को यहाँ की जनता का समर्थन मिला है। पशुबलि विरोध जैसे एक नाजुक, धार्मिक विषय को लेते समय लेखिका ने तर्क, चिन्तन और शास्त्रों के प्रमाणों का सहारा लिया है। फिर भी उनके विचारों में कहीं उग्ररूप नहीं दिखाई देता और किसी की भी भावनाओं को उन्होंने आघात नहीं पहुँचाया है, बल्कि रचनाधर्म और भावनाओं का आश्रय लिया है। लेखिका को विश्वास है कि भावनाएँ अधिक फलप्रद होती हैं। कुछ-एक उदाहरण इस प्रकार हैं-
‘‘रत्नधर हाथ के नाखून से ज़मीन कुरेदने लगा उसके मुँह से झाग निकलने लगा। वह गला फाड़कर चिल्लाने लगा, ‘‘पकड़ो, पकड़ो ! बलि देने के लिए लाया गया है ! ओफ्, ओफ् !! वह वधस्थल में जाना नहीं चाहता है, डर के मारे उसकी विष्ठा निकल गयी है। ओह्, ओह् ! उसकी आँखें देखो ! उस पर रहम खाओ ! रहम खाओ उस पर ! वह मरना नहीं चाहता है ! उसे मुक्ति नहीं चाहिए। उसे घसीटकर इस तरह मुक्ति देने की ज़रूरत नहीं है। पकड़ो, पकड़ो ! वह ज़िन्दा रहना चाहता है। देवी माँ की बनाई हुई इस हरी-भरी धरती पर वह ज़िन्दा रहना चाहता है। पकड़ो, पकड़ो !’’रत्नधर के सीने में जैसे भैंसा के खुर की खट् खट् आवाज गूँजने लगी। उसकी देह के रक्तप्रवाह के साथ यह शब्द मिलकर एक हो गया है !
* * *
नाव से एक हट्टा-कट्टा आदमी उतरा। उसकी गोद में तीन साल का एक बच्चा था बायें हाथ से उसने बलि के लिए लाया गया एक बकरा पकड़ रखा था। बच्चा बकरे के साथ खेल रहा था। चितकबरा और मोटा-ताज़ा बकरा भी उस हट्टे-कट्टे आदमी की गोद में चढ़कर कान हिलाते हुए बच्चे के साथ खेल रहा था। बेचारे को क्या पता कि कुछ ही क्षणों में उसके ख़ून से बच्चे का माथा रँगा जाएगा ?’
बकरे ने बच्चे के सीने पर सिर छुपाकर अपना बदन झाड़ा। बकरे के मालिक ने एक बार उसे बायें हाथ से कसकर पकड़ लिया। फिर से एक बार संन्यासी ने चिल्लाकर उससे कहा, ‘‘ले जाओ, यह ताम्रपत्र ले जाओ ! मुझे ख़ून चाहिए !’’
* * *
बीच सड़क पर काली का ‘घोड़ा’ बने आदमी से अपना भविष्य पूछने के लिए एक सुन्दर महिला आकर खड़ी हो गयी। उसके दायें हाथ में एक गोल-मटोल बच्ची थी। बीच-बीच में माँ का ब्लाउज हटाकर दूध पीने की कोशिश कर रही थी। वह बायें हाथ से बकरे का छोटा-सा बच्चा पकड़े थी। भीड़ में दबने से उस बच्चे ने बीच सड़क पर ही उलटी कर दी। उसकी सफ़ेद रंग की उल्टी देखकर आसपास से धक्का-मुक्की करते हुए भक्तों के दल कह उठे, ‘‘ओह, बिलकुल माँ का दूध पीता हुआ बच्चा है ! उल्टी के साथ दूध ही निकला है न !’’
महिला ने बड़ी-बड़ी आँखों से बलि को लाये गये बकरी के बच्चे को देखा। आसपास खड़े भक्त बोले ‘‘ओह् ओह् ! ये दोनों ही माँ का दूध-पीते बच्चे हैं। देउधा का खू़न पिलाने के लिए क्यों ले आयी ?’’
छोटी-सी बच्ची ने एकबार माँ को और फिर बकरी के बच्चे को देखकर पूछा, ‘‘इसकी माँ कहाँ है ? इसकी माँ कहाँ है ?
इस तरह का एक अन्तर्भेदी विषादबोध पूरी कहानी में देखा जा सकता है। यह विषादबोध उपन्यास की गम्भीरता और उसकी सम्पूर्णता व्यक्त करता है। जटाधारी ने डरथी से कहा था, ‘‘देखो कोई सुखी नहीं है। इस जगत् में कोई सम्पूर्णरूप से सुखी नहीं है शरीर के टूटे-बिखरे माँस में एक सुघड़ आकार की कल्पना करके लोग सिर्फ़ भागदौड़ करते रहते हैं।’’
‘छिन्नमस्ता’ लिखते समय इसकी कथा के विभिन्न पक्षों को सोचा गया है। इसमें से दो-एक उदाहरण ही हमने दिये हैं। विचारशील पाठक ज़रूर इस कृति में भी विशेषताएँ पाएँगे। किसी कृति के मूल्यांकन के समय उसका वस्तुनिष्ठ होना आवश्यक होता है। लेकिन ऐसी कई रचनाएँ हैं जिनके बारे में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के साथ रोचकता का अतिरेक भी रहता है। ‘छिन्नमस्ता’ ऐसी ही एक सृष्टि है। विषय की गहराई, अतीत और वर्तमान के अनुभवों की समग्रता से भरपूर यह मनमोहक रचना है। रचना-शीलता, समाज-चेतना और उद्देश्य एक बनकर सुन्दर रूप धारण करनेवाला यह उपन्यास पाठकों को बहुत पसन्द आएगा और बहुत जल्दी यह उनके मन में जगह बना सकेगा, यह हम निःसन्देह रूप से कह सकते हैं।
यह सुखद बात है कि असमिया की प्रख्यात लेखिका इन्दिरा गोस्वामी (मामोनी रायसम गोस्वामी) ने अपने गम्भीर अध्ययन से देवीपीठ कामाख्या के इतिहास एवं लोकगाथाओं से सामग्री लेकर उपन्यास ‘छिन्नमस्तार भानूदरो’ (छिन्नमस्ता) की रचना की है। यह उपन्यास पहले धारावाहिक रूप में असमिया पत्रिका ‘गरीयसी’ में प्रकाशित हो चुका है। ‘स्टूडेण्ट्स स्टोर’, गुवाहाटी ने 2001 में इसे प्रकाशित किया है। इस पुस्तक को हम लोग सीधे तौर पर उपन्यास नहीं कहना चाहते यद्यपि आंचलिक (लोकल) उपन्यास के कई रूप इसमें समाहित हैं।
इस कृति को उपन्यास कहा जाए या नहीं, इस विषय पर बहस की काफ़ी गुंजाइश है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि यह कृति लेखिका की एक असाधारण सृष्टि है।
इस पुस्तक में कामाख्या मन्दिर का एक परिपूर्ण चित्र अंकित किया गया है। यहाँ की पूजा-अर्चना के विभिन्न रूप, आतार-नीति, लोक-विश्वास, लोकगाथा, देवीपीठ के साथ जुड़ी हुई किंवदन्तियाँ, देवीपीठ का इतिहास, यहां की धार्मिक परम्परा (मनसा-पूजा में यहाँ मुश्लिम सम्प्रदाय के लोग भी बलि चढ़ाते थे), साथ ही इसके नकारात्मक पहलू आदि को कथानक का रूप दिया गया है। पुस्तक में कुछ भी छोड़ा नहीं गया है।
दरअसल यह पुस्तक एक विशाल चित्रपट पर संयोजित छोटे-बड़े और अनेक रंगों के चित्रों का ‘कोलाज़’ है, एक एन्टिटी है। इस पुस्तक में जिस उद्देश्य को साधा गया है, जिसे कथानक के अन्त में विस्तृत रूप में दर्शाया भी गया है वह है समन्वय। अतः एक तरह से इस पुस्तक को ‘कामाख्या परम्परा का समन्वय’ ( Kamakhyalore) कहा जाना चाहिए।
असम के बाहरवाले इलाक़ों में एक लोक-विश्वास पहले प्रचलित था कि ‘कामरूप’ में जानेवाले लोग भेड़ बन जाते हैं। अनपढ़ लोगों के लिए यह विश्वास अलौकिक हो सकता है लेकिन विज्ञों के लिए यह प्राचीन कामरूप के सुन्दर हरे-भरे रूप को ही दर्शाता है। लोग इसी सुन्दरता में क़ैद हो जाते थे और हां के आकर्षण उन्हें मोह लेते थे। कामरूप और कामाख्या अलग-अलग नहीं हैं। दरअसल कामरूप-कामाख्या का उच्चारण एक साथ ही किया जाता है। किसी को भेड़ बनानेवाली या मन्त्रमुग्ध करनेवाली बात एक आसामान्य गुण को ही दर्शाती है। इस उपन्यास में लेखिका ने इस गुण को अच्छी तरह से समझाया है। इसी कारण से यह बहुत ही सरस और रोचक बन गया है, इसे एक बार खोलने के बाद लगातार आख़िर तक पढ़ने को मन करता है।
इस पुस्तक में परम्परागत अर्थ में कोई लम्बी कहानी नहीं है। कहानी के नाम पर बस एक लकीर है। वह भी बीच-बीच में मिट जाती है आख़िर में थोड़ी देर के लिए स्पष्ट होती है। नायक या प्रधान चरित्र भी सही अर्थ में यहां नहीं है। लेकिन चर्चा की सुविधा के लिए कृति के लिए के दो-चार व्यक्तियों को हम चरित्र ही कहेंगे। कहानी घटनाओं से भरपूर है लेकिन कोई भी घटना एक ही केन्द्र-बिन्दु से नहीं निकलती जैसे सारी घटनाएँ अपने-आप घट रही हैं। यह विरोध दिखाया गया है, उनकी शुरूआत भी बहुत देर से हुई है। यह विरोध और मतभेद देवी के लिए दी गयी पशुबलि के सम्बन्ध में दिखाई गयी है। पुस्तक के अधिकांश भाग में देवीपीठ की धार्मिक और इनके चित्रण में सांस्कृतिक परम्पराओं से जुड़े अनेक तथ्य भरे हुए हैं इनके चित्रण में लेखिका ने सूक्ष्म दृष्टि, जिज्ञासा और मन का परिचय दिया है इसमें उन्होंने इस क्षेत्र के अतीत को गहराई तक खोजा है। और वह भी इस तरह कि पाठक अपने आप इसमें लीन हो जाते हैं-सिर्फ़ दर्शक बनकर चुपचाप नहीं रहते-वे भी उपन्यास के अंश बन जाते हैं। इसी में लेखिका की असामान्य पारदर्शिता झलकती है। उन्होंने सचेत होकर इस पुस्तक को रंगीन नहीं बनाया यह बात पाठक बड़ी आसानी से समझ सकता है।
कथानक की शुरूआत की गयी है छिन्नमस्ता के मन्दिर के जटाधारी संन्यासी और डरथी ब्राउन नाम की एक अंग्रेज़ महिला के प्रसंग से। कॉटन कॉलेज के अध्यापक राबर्ट ब्राउन की पत्नी डरथी के बच्चे नहीं है। उसी के इलाज के लिए वह इंलैण्ड गयी थी। वापस आने पर उसे पता चला कि उसके पति के साथ एक ‘खासी’ जनजाति की महिला का नाज़ायज सम्बन्ध है। डरथी का स्वाभिमानी मन दुःखी हो उठा। मन शान्ति के लिए वह छिन्नमस्ता के संन्यासी के आश्रय में चली गयी। इस आश्रय का स्वरूप क्या है यह उपन्यास में कहीं भी खुलकर नहीं लिखा गया है, लेकिन पाठक समझ सकते हैं कि यह एक प्रकार का आध्यात्मिक या आत्मिक सम्बन्ध है।
कहानी के अन्त में डरथी छिन्नमस्ता के संन्यासी से कहती है, ‘मैं रहूंगी। मैं हमेशा तुम्हारी छाया बनकर रहूँगी। हमारे सम्बन्ध का कोई नाम नहीं होगा। हमारा सम्बन्ध दुनिया में एक अनूठा सम्बन्ध है, विशेष सम्बन्ध है, एक श्रेष्ठ सम्बन्ध है।’ उल्लेखनीय यह है कि डरथी को असमिया भाषा अच्छी तरह से आती थी। वह कामाख्या पीठ में ही रहती थी। पति के अनुरोध और विनती के बावजूद वह अपने घर लौटती नहीं। संन्यासी के साथ एक सुन्दर विदेशी युवती का सम्बन्ध आसपास के लोगों में कौतूहल पैदा करता है। उनके सम्बन्ध को लेकर लोगों के बीच कई तरह की रोचक चर्चा भी हुई है। इसी प्रसंग को तरसा-किनारे से आया एक अन्य संन्यासी बढ़-चढ़कर प्रसारित करता है और वहाँ के जनजीवन को भड़काता है। पुस्तक में इस संन्यासी को खलनायक का रूप दिया गया है। डरथी पर बुरी नजर रखनेवाले इस संन्यासी ने बदमाशों द्वारा हमला करवाया। बदमाशों ने डरथी पर बलात्कार की कोशिश भी की। कथानक में कामाख्या में डरथी के प्रसव का जो विस्तृत विवरण दिया गया है वह पाठकों को बाँधे रखता है।
इस घटना के बाद कुछ दिनों के लिए छिन्नमस्ता का संन्यासी और डरथी ब्राउन कामाख्या से दूर चले जाते हैं। वे अपने गन्तव्य स्थल के बारे में किसी को कुछ नहीं बताते लेकिन लोगों को पता चल जाता है कि वे बलि रोकने के लिए जनमत जुटाने को गये हैं। जाने से पहले संन्यासी ने अपने प्रिय शिष्य बलिविरोधी रत्नधर को बताया था कि वे मालेगढ़ और चक्रशिला में कुछ दिन रहेंगे। उसके बाद वे लोग आगे बढ़ जाएँगे और देवध्वनि उत्सव के समय वापस आ जाएँगे।
कथानक में छिन्नमस्ता के जटाधारी का प्रसंग रहस्यमय है। उसी तरह डरथी के चरित्र में भी काव्यगत वैशिष्ट्य है। उसके व्यक्तित्व में शान्ति और दृढ़ता का समावेश दिखाया गया है। ये दोनों चरित्र भी पाठकों को बाँधकर रखते हैं। इनमें से एक है मनमोहन पण्डा का बेटा रत्नधर। वह एक निपुण चित्रकार है। डरथी उसे चित्र बनाने के लिए उत्साहित करती है। एक और किशोर चरित्र है-विधिबाला। यह लड़की भी बलि-विरोधी है। यह चरित्र भी पाठकों के मन में सहानुभूति भर देता है। इस चरित्र के चित्रण में लेखिका की सहज सर्जनात्मक (इज़ी क्रिएटिविटी) स्पष्ट दिखती है।इस चरित्र को और विस्तृत बनाने का अवकाश था। विधिबाला को पाठक अपने मन से मिटा नहीं पाते।
असमिया पत्रिका ‘गरीयसी’ में प्रकाशित होते समय ही यह पुस्तक काफ़ी चर्चित हुई थी। इसका कारण था कि लेखिका ने इस पुस्तक में पशुबलि का विरोध किया है। अपने वक्तव्य के समर्थन में उन्होंने कालिकापुराण आदि शास्त्रों के अंशों को भी उद्घृत किया है। ‘छिन्नमस्ता के संन्यासी’ बलिप्रथा का विरोध करते हैं। वे हर समय ज़ोर देकर बोलते रहते हैं-‘‘माँ छिन्नमस्ता, माँ, तुम रक्त वस्त्र उतार दो ! माँ, माँ !’’ एक उदाहरण देखिए, छिन्नमस्ता के संन्यासी के लिए प्रतीक्षारत भक्तों ने एक साथ कहा, ‘‘रक्त को त्याग दो ! फूलों से देवी की पूजा करो ! फूलों में ज़्यादा शक्ति है। रक्त को त्याग दो ! फूलों से जगज्जननी के पैर धुलाओ ! फूलों की पंखुड़ियों में मनुष्य-हृदय छुपा रहता है। मनुष्य की अदृश्य आत्मा को फूल ही सुगन्धित बनाये रखते हैं। रक्त को त्याग दो, फूलों से देवी माता की पूजा करो !’’ कहानी के मध्यभाग से ही इस प्रसंग को मूलरूप दिया गया है और वह धीरे-धीरे तेज़ गति से आगे बढ़ने लगता है। इसका विरोध भी होता है। दो अलग-अलग विचार वाले लोग आपस में टकराते हैं। एक दल तर्कसम्मत, जीवप्रेमी और उदार है। दूसरा दल पुराने संस्कारों से घिरा, हिंस्त्र और पराश्रित है। दरअसल यही कथानक का मूल विषय है, लेकिन इसे सर्जनात्मक स्वरूप प्रदान किया गया है। कथानक में मूल विषय के साथ कई प्रक्षिप्त घटनाएँ हैं। इनमें से किशोरी विधिबाला का प्रसंग भी एक है। एक बूढ़े, शादीशुदा और पहली पत्नी से हुए बच्चों वाले आदमी के साथ विधिबाला की शादी करना चाहते हैं उनके पिता, जो पुराने संस्कारों को मानते हैं। विधिबाला के साथ की गयी इस ज़बरदस्ती की यहाँ पशुबलि से तुलना की गयी है। अलग अलग चरित्र कथा के विस्तार में सहायक सिद्ध हुए हैं। इन चरित्रों में मुख्य हैं पुलु ढोलकिया, विधिबाला के पिता सिंहदत्त, नर्तकी वेश्याओं के दल और विभिन्न देवी-देवताओं के ‘घोड़ा’ (वे लोग जिनकी आत्मा देवी-देवता से प्रेरित हो जाती है)।
कामाख्या के जनजीवन की सच्ची कहानी-ग़रीबी, निरक्षरता, अज्ञान, कुसंस्कार और अन्धविश्वासों से घिरे लोगों की सच्ची कहानी, लेखिका ने इस पुस्तक में दी है। सिर्फ़ कामाख्या ही नहीं, कामाख्या के आसपास वाले इलाक़ों, ब्रह्मपुत्र के उत्तर और दक्षिण किनारों का जनजीवन भी इस उपन्यास में स्पष्ट है। इस तरह से देखा जाय तो इस उपन्यास को एक ‘सामाजिक दस्तावेज़’ (ह्यूमन डॉकुमेण्ट) कहा जा सकता है। समाज के पिछड़े और शोषितवर्ग के प्रति इन्दिरा गोस्वामी की समवेदना इस कृति के हर प्रसंग में स्पष्ट झलकती है। उपन्यास में ब्रह्मपुत्र के उत्तर और दक्षिण किनारे की विभिन्न जगहों को ध्यान में रखकर ही लेखिका ने अनेक प्रसंगों में आंचलिक ‘कामरूपी भाषा’ का प्रयोग किया है। इसके फलस्वरूप कथानक का अधिकांश यथार्थ से जुड़ गया है।
बहुत दिनों से कामाख्या से दूर चले छिन्नमस्ता के संन्यासी और डरथी ब्राउन वापस आ जाते हैं। किसी हत्यारे ने गोली मारकर डरथी की हत्या कर दी है। बाद में पता चलता है कि गोली मारनेवाला व्यक्ति डरथी का पति था।
यहाँ तक कहानी की सिर्फ़ ‘आउट लाइन’ दी गयी है। अलग-अलग उपादान इसे पूर्णता प्रदान करते हैं। उनमें हैं अनेक खण्डचित्र, लोककथाएँ, लोकविश्वास, प्रकृति-वर्णन, इतिहास, किंवदन्तियाँ, लोकाचार और वहाँ की राजनैतिक परिस्थितियाँ। कहानी कितनी सशक्त है यह इस उपन्यास में मुख्य बात नहीं है, मुख्य बात है इसकी परिपूर्णता, लेखिका की असाधारण प्रतिभा। हर प्रसंग में पाठक कहानी के साथ जुड़ जाता है, वह सिर्फ़ दर्शक नहीं बना रहता। पुस्तक की एक उल्लेखनीय विशेषता है-परम्परा से चली आ रही पशुबलि जैसी निर्मम प्रथा का विरोध। लेखक का उद्देश्य भी यही है। डरथी, विधिबाला और रत्नधर, मन से पशुबलि का विरोध करते हैं। साथ ही विद्यापीठ के वे छात्र भी हैं जो बलि-प्रथा बन्द करवाने के लिए लोगों से दस्तख़त कराते हैं।
असमिया साहित्य में समाज को जागरूक करनेवाली अनेक रचनाएँ हैं। ‘छिन्नमस्ता’ उसकी आख़िरी कड़ी है। लेकिन पशुबलि के विरोध में आवाज़ उठानेवाले असमिया साहित्यकारों में इन्दिरा गोस्वामी पहला नाम है। उनकी साहसपूर्ण कोशिश को यहाँ की जनता का समर्थन मिला है। पशुबलि विरोध जैसे एक नाजुक, धार्मिक विषय को लेते समय लेखिका ने तर्क, चिन्तन और शास्त्रों के प्रमाणों का सहारा लिया है। फिर भी उनके विचारों में कहीं उग्ररूप नहीं दिखाई देता और किसी की भी भावनाओं को उन्होंने आघात नहीं पहुँचाया है, बल्कि रचनाधर्म और भावनाओं का आश्रय लिया है। लेखिका को विश्वास है कि भावनाएँ अधिक फलप्रद होती हैं। कुछ-एक उदाहरण इस प्रकार हैं-
‘‘रत्नधर हाथ के नाखून से ज़मीन कुरेदने लगा उसके मुँह से झाग निकलने लगा। वह गला फाड़कर चिल्लाने लगा, ‘‘पकड़ो, पकड़ो ! बलि देने के लिए लाया गया है ! ओफ्, ओफ् !! वह वधस्थल में जाना नहीं चाहता है, डर के मारे उसकी विष्ठा निकल गयी है। ओह्, ओह् ! उसकी आँखें देखो ! उस पर रहम खाओ ! रहम खाओ उस पर ! वह मरना नहीं चाहता है ! उसे मुक्ति नहीं चाहिए। उसे घसीटकर इस तरह मुक्ति देने की ज़रूरत नहीं है। पकड़ो, पकड़ो ! वह ज़िन्दा रहना चाहता है। देवी माँ की बनाई हुई इस हरी-भरी धरती पर वह ज़िन्दा रहना चाहता है। पकड़ो, पकड़ो !’’रत्नधर के सीने में जैसे भैंसा के खुर की खट् खट् आवाज गूँजने लगी। उसकी देह के रक्तप्रवाह के साथ यह शब्द मिलकर एक हो गया है !
* * *
नाव से एक हट्टा-कट्टा आदमी उतरा। उसकी गोद में तीन साल का एक बच्चा था बायें हाथ से उसने बलि के लिए लाया गया एक बकरा पकड़ रखा था। बच्चा बकरे के साथ खेल रहा था। चितकबरा और मोटा-ताज़ा बकरा भी उस हट्टे-कट्टे आदमी की गोद में चढ़कर कान हिलाते हुए बच्चे के साथ खेल रहा था। बेचारे को क्या पता कि कुछ ही क्षणों में उसके ख़ून से बच्चे का माथा रँगा जाएगा ?’
बकरे ने बच्चे के सीने पर सिर छुपाकर अपना बदन झाड़ा। बकरे के मालिक ने एक बार उसे बायें हाथ से कसकर पकड़ लिया। फिर से एक बार संन्यासी ने चिल्लाकर उससे कहा, ‘‘ले जाओ, यह ताम्रपत्र ले जाओ ! मुझे ख़ून चाहिए !’’
* * *
बीच सड़क पर काली का ‘घोड़ा’ बने आदमी से अपना भविष्य पूछने के लिए एक सुन्दर महिला आकर खड़ी हो गयी। उसके दायें हाथ में एक गोल-मटोल बच्ची थी। बीच-बीच में माँ का ब्लाउज हटाकर दूध पीने की कोशिश कर रही थी। वह बायें हाथ से बकरे का छोटा-सा बच्चा पकड़े थी। भीड़ में दबने से उस बच्चे ने बीच सड़क पर ही उलटी कर दी। उसकी सफ़ेद रंग की उल्टी देखकर आसपास से धक्का-मुक्की करते हुए भक्तों के दल कह उठे, ‘‘ओह, बिलकुल माँ का दूध पीता हुआ बच्चा है ! उल्टी के साथ दूध ही निकला है न !’’
महिला ने बड़ी-बड़ी आँखों से बलि को लाये गये बकरी के बच्चे को देखा। आसपास खड़े भक्त बोले ‘‘ओह् ओह् ! ये दोनों ही माँ का दूध-पीते बच्चे हैं। देउधा का खू़न पिलाने के लिए क्यों ले आयी ?’’
छोटी-सी बच्ची ने एकबार माँ को और फिर बकरी के बच्चे को देखकर पूछा, ‘‘इसकी माँ कहाँ है ? इसकी माँ कहाँ है ?
इस तरह का एक अन्तर्भेदी विषादबोध पूरी कहानी में देखा जा सकता है। यह विषादबोध उपन्यास की गम्भीरता और उसकी सम्पूर्णता व्यक्त करता है। जटाधारी ने डरथी से कहा था, ‘‘देखो कोई सुखी नहीं है। इस जगत् में कोई सम्पूर्णरूप से सुखी नहीं है शरीर के टूटे-बिखरे माँस में एक सुघड़ आकार की कल्पना करके लोग सिर्फ़ भागदौड़ करते रहते हैं।’’
‘छिन्नमस्ता’ लिखते समय इसकी कथा के विभिन्न पक्षों को सोचा गया है। इसमें से दो-एक उदाहरण ही हमने दिये हैं। विचारशील पाठक ज़रूर इस कृति में भी विशेषताएँ पाएँगे। किसी कृति के मूल्यांकन के समय उसका वस्तुनिष्ठ होना आवश्यक होता है। लेकिन ऐसी कई रचनाएँ हैं जिनके बारे में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण के साथ रोचकता का अतिरेक भी रहता है। ‘छिन्नमस्ता’ ऐसी ही एक सृष्टि है। विषय की गहराई, अतीत और वर्तमान के अनुभवों की समग्रता से भरपूर यह मनमोहक रचना है। रचना-शीलता, समाज-चेतना और उद्देश्य एक बनकर सुन्दर रूप धारण करनेवाला यह उपन्यास पाठकों को बहुत पसन्द आएगा और बहुत जल्दी यह उनके मन में जगह बना सकेगा, यह हम निःसन्देह रूप से कह सकते हैं।
भूमिका
यह उपन्यास भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य असम में स्थित सबसे बड़ी शक्तिपीठ
कामाख्या की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। सन् 1921 से 1932 तक की घटनाओं के
आधार पर इस उपन्यास की रचना की गयी है, लेकिन पिछली घटनाओं और ऐतिहासिक
विवरणों के कारण कहीं-कहीं इसकी कथावस्तु अतीत की ओर भी चली गयी है। ऐसी
मान्यता है कि इस शक्तिपीठ अर्थात् नीलाचल में देवी का योनिभाग गिरा था।
शिव की पहली पत्नी दक्षराज की बेटी सती पिता के राजदरबार में अपने पति पर
लगाये लांछन को सह न सकी और यक्ष के अग्निकुण्ड में कूदकर उसने आत्महत्या
कर ली। शिव को जब यह खबर मिली तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे और सती का मृत
शरीर कन्धे पर लादकर पूरे ब्रह्माण्ड में संहार-नृत्य करने लगे। सभी
देवताओं ने भगवान विष्णु से इसे रोकने का अनुरोध किया। विष्णु ने अपने
सुदर्शनचक्र से सती की देह को खण्ड खण्ड कर दिया। जिन स्थानों पर सती के
अंग गिरे वे सभी स्थान शक्तिपीठ बने। असम के कामाख्या में देवी का योनि
भाग गिरने के कारण इसे विशिष्ट माना जाता है।
इस उपन्यास में उस समय के असम पर शासन करनेवाले अँग्रेज़ शासकों का भी कुछ वर्णन है। एक अँग्रेज़ महिला ने किस तरह शक्तिपीठ के तान्त्रिक के साथ सम्बन्ध बनाये थे- उसे मूल कहानी के रूप में लिया गया है। इस उपन्यास के प्रधान नायक छिन्नमस्ता के जटाधारी का परिचय अब भी रहस्य बना हुआ है। किसी को यह ठीक नहीं मालूम कि वे कहाँ से आये थे। उपन्यास का मुख्य हिस्सा है-इस शक्तिपीठ में हर समय चलते रहने वाले बलि-विधान की कहानी। कहते हैं कि पहले यहाँ नरबलि होती थी। अँग्रेज़ों के राज में इसे बन्द कर दिया गया। लेकिन अँग्रेज़ शासकों ने मन्दिर के अन्दरूनी नीति-नियमों में कभी दख़ल नहीं दिया। मन्दिर का सारा काम पुजारियों के हाथों में ही था इसलिए आज भी इस मन्दिर में पक्षियों, बकरों आदि की बलि दी जाती है। इस शक्तिपीठ का आँगन हमेशा ख़ून से रँगा रहता है।
इस उपन्यास के नायक का एक ही मक़सद था कि किस तरह खू़न की धाराओं को रोका जा सके। इतिहास में यह तथ्य दर्ज है कि आहोम राजा रूद्रसिंह द्वारा हर दुर्गा-अष्टमी के दिन दस हज़ार भैंसे बलि को चढ़ाये जाते थे।
इस उपन्यास की रचना अनेक तथ्यों को संग्रह करने और मन्दिरों में दीर्घकाल तक रहकर अनुभव प्राप्त करने के बाद की गयी है।
इस उपन्यास में उस समय के असम पर शासन करनेवाले अँग्रेज़ शासकों का भी कुछ वर्णन है। एक अँग्रेज़ महिला ने किस तरह शक्तिपीठ के तान्त्रिक के साथ सम्बन्ध बनाये थे- उसे मूल कहानी के रूप में लिया गया है। इस उपन्यास के प्रधान नायक छिन्नमस्ता के जटाधारी का परिचय अब भी रहस्य बना हुआ है। किसी को यह ठीक नहीं मालूम कि वे कहाँ से आये थे। उपन्यास का मुख्य हिस्सा है-इस शक्तिपीठ में हर समय चलते रहने वाले बलि-विधान की कहानी। कहते हैं कि पहले यहाँ नरबलि होती थी। अँग्रेज़ों के राज में इसे बन्द कर दिया गया। लेकिन अँग्रेज़ शासकों ने मन्दिर के अन्दरूनी नीति-नियमों में कभी दख़ल नहीं दिया। मन्दिर का सारा काम पुजारियों के हाथों में ही था इसलिए आज भी इस मन्दिर में पक्षियों, बकरों आदि की बलि दी जाती है। इस शक्तिपीठ का आँगन हमेशा ख़ून से रँगा रहता है।
इस उपन्यास के नायक का एक ही मक़सद था कि किस तरह खू़न की धाराओं को रोका जा सके। इतिहास में यह तथ्य दर्ज है कि आहोम राजा रूद्रसिंह द्वारा हर दुर्गा-अष्टमी के दिन दस हज़ार भैंसे बलि को चढ़ाये जाते थे।
इस उपन्यास की रचना अनेक तथ्यों को संग्रह करने और मन्दिरों में दीर्घकाल तक रहकर अनुभव प्राप्त करने के बाद की गयी है।
एक
कोहरे के वक्षस्थल पर ब्रह्मपुत्र सो रहा था। जैसे विधवा माँ के सफ़ेद
कपड़ों के बीच सिर छुपाकर पड़ा धवल रोग से ग्रस्त एक असहाय पुरुष।
छिन्नमस्ता के जटाधारी भुवनेश्वरी से धीरे धीरे नीचे उतर आये। धीरे धीरे ब्रह्मपुत्र का रूप स्पष्ट होने लगा था। भोज के लिए कटे हुए मांस की गन्ध जैसी एक अजीब गन्ध खिले हुए हरसिंगार के साथ मिलकर विचित्र माहौल बना रही थी। ओऊ1 पेड़ के घिला पिठा2 जैसे पत्तों, अशोक के लम्बे पत्तों, विशालकाय खोकन पेड़ों और केन्दु की झाड़ियों से ओस टपकने की मृदु आवाज़ हो रही थी।
जटाधारी ने ब्रह्मपुत्र के पास जाकर मिट्टी-जल का स्पर्श किया। इस जगह पर इतना ज़्यादा कोहरा था कि वे नहाकर या पूजा करके लौटे हैं, यह समझना मुश्किल था। थोड़ी देर में कोहरे के बीच से चतुःपष्ठी योगिनी की वन्दना सुनाई दी-‘‘ब्राह्मणी, चण्डिका, गौरी, रौद्री, इन्द्रणी, कौमारी, वैष्णवी, दुर्गा, नरसिंही, कालिका, चामुण्डा शिवदूती, वाराही, कौशिकी, महेश्वरी, शंकरी, जयन्ती, सर्वमंगला, काली, कपालिनी, मेघा, शिवा, शाकम्भरी, भीमा, शान्ता, भ्रामरी, रूद्राणी, अम्बिका, क्षमा, धात्री, स्वाहा, स्वधा, सर्पणा, महोदरी, क्षेमंकरी, उग्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डानायिका, चण्डा, चण्डावनी, चण्डी, मनोमोहा, प्रियंकरी, बलविकारिणी, बलप्रमार्थनी, मनोन्मन्थिनी, सर्वभूतदमिनी, उमा, तारा, महानिद्रा, विजया, जया, शैलपुत्री....।’’ इसी तरह चतुःषष्ठि योगिनियों के नाम संगीत के टुकड़े बनकर नीलांचल पर्वत के चारों तरफ़ गूँजने लगे।
जटाधारी की देह धीरे-धीरे कोहरे के बीच से प्रकट होने लगी। जैसे किसी जलाशय में कोई भूखण्ड स्पष्ट होने लगा था-काई, पानी, घास और लताओं से भरा भूखण्ड !
ज़मीन से खोदकर निकाले गये मृत व्यक्ति की अस्थियों की तरह उनके शरीर
1.एक तरह का खट्टे फल का पेड़।
2. चावल का बना हुआ मालपुआ।
छिन्नमस्ता के जटाधारी भुवनेश्वरी से धीरे धीरे नीचे उतर आये। धीरे धीरे ब्रह्मपुत्र का रूप स्पष्ट होने लगा था। भोज के लिए कटे हुए मांस की गन्ध जैसी एक अजीब गन्ध खिले हुए हरसिंगार के साथ मिलकर विचित्र माहौल बना रही थी। ओऊ1 पेड़ के घिला पिठा2 जैसे पत्तों, अशोक के लम्बे पत्तों, विशालकाय खोकन पेड़ों और केन्दु की झाड़ियों से ओस टपकने की मृदु आवाज़ हो रही थी।
जटाधारी ने ब्रह्मपुत्र के पास जाकर मिट्टी-जल का स्पर्श किया। इस जगह पर इतना ज़्यादा कोहरा था कि वे नहाकर या पूजा करके लौटे हैं, यह समझना मुश्किल था। थोड़ी देर में कोहरे के बीच से चतुःपष्ठी योगिनी की वन्दना सुनाई दी-‘‘ब्राह्मणी, चण्डिका, गौरी, रौद्री, इन्द्रणी, कौमारी, वैष्णवी, दुर्गा, नरसिंही, कालिका, चामुण्डा शिवदूती, वाराही, कौशिकी, महेश्वरी, शंकरी, जयन्ती, सर्वमंगला, काली, कपालिनी, मेघा, शिवा, शाकम्भरी, भीमा, शान्ता, भ्रामरी, रूद्राणी, अम्बिका, क्षमा, धात्री, स्वाहा, स्वधा, सर्पणा, महोदरी, क्षेमंकरी, उग्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डानायिका, चण्डा, चण्डावनी, चण्डी, मनोमोहा, प्रियंकरी, बलविकारिणी, बलप्रमार्थनी, मनोन्मन्थिनी, सर्वभूतदमिनी, उमा, तारा, महानिद्रा, विजया, जया, शैलपुत्री....।’’ इसी तरह चतुःषष्ठि योगिनियों के नाम संगीत के टुकड़े बनकर नीलांचल पर्वत के चारों तरफ़ गूँजने लगे।
जटाधारी की देह धीरे-धीरे कोहरे के बीच से प्रकट होने लगी। जैसे किसी जलाशय में कोई भूखण्ड स्पष्ट होने लगा था-काई, पानी, घास और लताओं से भरा भूखण्ड !
ज़मीन से खोदकर निकाले गये मृत व्यक्ति की अस्थियों की तरह उनके शरीर
1.एक तरह का खट्टे फल का पेड़।
2. चावल का बना हुआ मालपुआ।
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