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गीता प्रेस, गोरखपुर >> दुःख में भगवत्कृपा

दुःख में भगवत्कृपा

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1171
आईएसबीएन :81-293-0440-6

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प्रस्तुत है दुःख में भगवत्कृपा की महिमा का वर्णन....

Dukh Mein Bhagvatkripa a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - दुःख में भगवत्कृपा - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नम्र निवेदन

भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार के  लेखों का यह एक सुन्दर चयन आपकी सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है। ये लेख समय-समय पर ‘कल्याण’ में प्रकाशित हुए हैं। इस संग्रह में विभिन्न आध्यात्मिक विषयों में साथ-साथ अतिशय उपादेय ठोस सामग्री का समावेश हुआ है।
व्यक्ति के जीवन का प्रभाव सर्वोपरी होता है और वह अमोघ होता है। श्रीभाईजी अध्यात्म-साधन की उस परमोच्च स्थिति में पहुँच गये थे, जहाँ पहुँचे हुए व्यक्ति के जीवन से मंगल होता है। हमारा विश्वास है कि जो व्यक्ति इन लेखों को मननपूर्वक पढ़ेंगे एवं अपने जीवन में उनकी बातों को उतारने का प्रयत्न करेंगे, उनको परमार्थ पथ में ही निश्चय ही विशेष सफलता प्राप्त होगी।

 प्रकाशक

।।श्रीहरि:।।

दु:ख में भगवत्कृपा



जब मनुष्य केवल संसार के अनुकूल भोगपदार्थों की प्राप्ति में भगवत्कृपा मानता है, तब वह बड़ी भारी भूल करता है। भगवान् की कृपा तो निरन्तर है, सबपर और सभी अवस्थाओं में हैं; किन्तु जो ये अनुकूल भोगपदार्थ हैं, जिनमें अनुकूल बुद्धि रहती है, यो सब तो मनुष्य को माया के, मोह के बन्धन में बाँधने वाले होते हैं। माया के मोह में बाँधकर जो भगवान् से अलग कर देनेवाली चीज है, उनकी प्राप्ति में भगवत्कृपा मानना ही गलती है। पर होता यह है कि जब मनुष्य भगवान् भजन करता है, भगवान के नाम का जप करता है, रामायण और गीतादि का पाठ करता है और संसार के भोगों की प्राप्ति में जरा-सी सफलता प्राप्त होती है, तब वह ऐसा मान लेता है कि मेरी यह कामना पूरी हो गयी, मुझे यह लाभ हो गया है। ऐसे पत्र मेरे पास बहुत आते हैं और मैं उन्हें प्रोत्साहित भी करता हूँ, परन्तु यह चीज बड़ी गलत है। जहाँ मनुष्य अनुकूल भोगों में भगवान् की कृपा मानता है, वहाँ प्रतिकूलता होने पर वह उलटा ही सोचेगा।

वह कहेगा- ‘भगवान बड़े निर्दयी हैं, भगवान् की मुझपर कृपा नहीं है।’ अधिक क्षोभ होगा तो वह कह बैठेगा कि ‘भगवान् न्याय नहीं करते।’ इससे भी अधिक और क्षोभ होगा वह यहाँ तक कह देगा कि ‘भगवान् हैं ही नहीं, यह सब कोरी कल्पना है। भगवान् होते तो इतना भजन करने पर भी ऐसा क्यों होता।’ यों कहकर वह भगवान् को अस्वीकार कर देता है। इसलिये अमुक स्थिति की प्राप्ति में भगवत्कृपा है, यह मानना ही भूल है। पहले-पहले जब मनुष्य को सफलता मिलती है, तब तो उसमें वह भगवान् की कृपा मानता है, पर आगे चलकर वह कृपा रुक जाती है, छिप जाती है, वह कृपा को भूल जाता है। फिर तो वह अपनी कृति को एवं अपने ही अहंकार को प्रधानता देता है।

अमुक कार्य मैंने किया, अमुक सफलता मैंने प्राप्त की। इस प्रकार वह अपनी बुद्धि का, अपने बल का, अपनी चतुराई का, अपने कला-कौशल का घमंड करता है, अभिमान करता है। भगवान् को भूलकर वह अपने अहंकार की पूजा करने लगता है। सफलता मैंने प्राप्त की है, इसलिये मेरी पूजा होनी चाहिये जगत् में। ‘‘मैंने धनोपार्जन किया, मैंने विजय प्राप्त किया, मैंने अमुक सेवा की, मैंने राष्ट्र का निर्माण किया, मैंने राज्य, देश तथा धर्म की रक्षा की’- इस प्रकार सर्वत्र प्रत्येक कर्म में अपना ‘अहम्’ लगाकर वह अहंका पूजक तथा प्रचारक बन जाता है और जब इस ‘अहम्’ की, ‘मैं’ की पूजा नहीं होती, उसमें किसी प्रकार का किंचित् भी व्यवधान उपस्थित होता है, तब वह बौखला उठता है, दल बनाता है और परस्पर दलबंदी होती है। राग-द्वेष एवं शत्रुता का वायुमण्डल बनता है, बढ़ता है। मनुष्य जब ऐसे किसी प्रवाह में बहने लगता है, तब भगवान् दया करके ब्रेक लगाते हैं। उसे उस पतन के प्रवाह से लौटाने के लिये भगवान् कृपा करते हैं। श्रीमद्भागत में आया है-

बलिकी शक्ति बढ़ी। बलि विश्वविजयी हो गये। देवताओं की शक्ति क्षीण हो गयी। देवता भयभीत होकर छिप गये। बलिका प्रताप सूर्य सम्पूर्ण विश्वपर छा गया। बलि भगवान् के भक्त थे। भगवान् की कृपा मानते थे। पर बलि के मन में भी अपने इन विषयक अहंकार तो आया ही। उसमें निमित्त चाहे तो कुछ बना हो, पर भगवान् ने बलि पर कृपा की। बलिका सारा राज्य हरण कर लिया, बलिका सारा ऐश्वर्य अपहरण कर लिया। उक्त प्रसंग में यह प्रश्न हो सकता है कि बलि के साथ भगवान् ने ऐसा क्यों किया ? स्पष्ट उत्तर है कि भगवान् ने बलि पर कृपा करने के लिये ऐसा किया। भगवान् ने उन पर यह कृपा किसलिये की ?

 दयामय भगवान् ने उन पर अपनी कृपा-वृष्टि इसलिये की कि बलिको जो अपने राज्य का, विजय का अहंकार हो गया था। उनका मोह इस प्रकार बढ़ता रहता तो पता नहीं बलि क्या कर बैठते भगवान् को भूलकर बलि कुछ कर न बैठें, बलिका ऐश्वर्य-विजय-मद न रहे, बलि कुछ न कर बैठें, बलिका ऐश्वर्य-विजय मद न रहे, बलि भगवान् की ओर लग जायँ, इसलिए भगवान् ने बलि पर कृपा की। बलि ने स्वयं इसे स्वीकार किया है। यह बात समझ में आनी कठिन है कि बलि का राज्य ले लिया, उनका सर्वनाश कर दिया, इसमे क्या कृपा की, पर सचमुच भगवान् ने उन पर बड़ी कृपा की। बलि के पितामाह भक्तराज प्रह्लाद ने वहाँ भगवान् की स्तुति करते हुए कहा- ‘प्रभो ! आपने ही बलि को ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रत्व दिया था। आज आपने उसे छीनकर इस पर बड़ी कृपा की है। आपकी कृपा से आज यह आत्मा को मोहित करने वाली राज्यश्री से अलग हो गया है। लक्ष्मी के मद से बड़े-बड़े विद्वान मोहित हो जाते हैं। ऐसी लक्ष्मी को छीनकर महान् उपकार करनेवाले, समस्त लोकों के महेश्वर, सबके अन्तर्यामी तथा सबके परम साक्षी आप श्रीनारायणदेव को मैं नमस्कार करता हूँ।’
(भागवत 8/22)

जब भगवान् किसी पर इस प्रकार कृपा करते हैं, तब उसके ऐश्वर्य का विनाश कर देते हैं। एक बार तो वह दु:खी हो जाता है। इसी प्रकार जिसके सम्मान की वृद्धि हो जाती है, भगवान् उसका अपमान करवा देते हैं, लांछित कर देते हैं, जिससे वह मान की माया से छूटकर भगवान् की ओर बढ़े। जितनी भी इस प्रकार की लीलाएँ होती हैं, सबमें भगवान् की कृपा ही हेतु होती है। जो बढ़ रहा है, वह भगवान् को मानेगा ही क्यों ? जब तक जगत् में सफलता होती हैं, तब तक मनुष्य बुद्धि का अभिमान करता ही है और इसलिये भगवान् तथा धर्म दोनों ही उससे दूर हो जाते हैं।

वह मोहवश अपने लिये असम्भव और अकर्तव्य कुछ भी नहीं मानता। ‘मैं चाहे जो कर सकता हूँ, कौन बोलनेवाला है। किसकी जगत् में शक्ति है जो मेरी उन्नति में बाधा दे सके।’ यों वह बहकने लगता है, पर भगवान् की कृपा से ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जो उसकी सारी सफलताओं को चूर्ण कर देती है। तब वह फिर भगवान् की ओर देखता है। जब तक मनुष्य को संसार का आश्रय मिलता है, तब तक वह भगवान् की ओर ताकता भी नहीं। जब तक उसकी प्रशंसा करने वाले, उसे आश्रय देने वाले, उसकी बुरी अवस्था में कुछ भी मित्र, बन्धु-बन्धुत्व रहते हैं, तब तक वह उन्हीं की ओर देखता है। द्रौपदी के चीर-हरण का प्रसंग देखिये।

 भगवान् की ओर उसने तब तक नहीं देखा, तब तक उसने भगवान् को नहीं पुकारा, जब तक उसे तनिक भी किसी की आशा बनी रही। वह उनकी ओर ताकती रही। उसने पाण्डवों की ओर देखा, द्रोण की ओर देखा, विदुर की ओर देखा और देखा पितामाह भीष्म की ओर। उसे आशा थी, ये मुझे बचा लेंगे, किन्तु वह सब ओर से निराश हो गयी, उसे कहीं किंचित् भी आश्रय नहीं रह गया, तब उसने निराश्रय के आश्रय और निर्बल के बल भगवान् का स्मरण किया और भगवान् को आते कितनी देर लगती है। जहाँ अनन्य भाव से करुण आह्नान हुआ कि वे भक्तवत्सल प्रभु दौड़ पड़े।

 

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