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गीता प्रेस, गोरखपुर >> योग दर्शन

योग दर्शन

हरिकृष्णदास गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1152
आईएसबीएन :81-293-0415-5

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प्रस्तुत है योग दर्शन....

Yog Darshan a hindi book by Hari Krishndas Goyandka - योग दर्शन - हरिकृष्णदास गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्री परमात्मने नमः।।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव।।


मूकं करोति वाचालं पंगु लंघयते गिरिम्।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्।।


योगदर्शन एक बड़ा ही महत्त्वपूर्ण और साधकों के लिये परम उपयोगी शास्त्र है। इसमें अन्य दर्शनों की भाँति खण्डन-मण्डन के लिये युक्तिवादका अवलम्बन न करके सरलता पूर्वक बहुत ही कम शब्दों में अपने सिद्धान्त का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ पर अब तक संस्कृति, हिंदी और अन्यान्य भाषाओं में बहुत भाष्य और टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। भोजवृत्ति और व्यासभाष्यके अनुवाद भी हिंदी-भाषा में कई स्थानों से प्रकाशित हो चुके हैं। इसके सिवा ‘पातञ्जलयोग-प्रदीप’ नामक एक ग्रन्थ स्वामी ओमानन्दजीका लिखा हुआ भी प्रकाशित हो चुका है, इसमें व्यासभाष्य और भोजवृत्ति के सिवा दूसरे-दूसरे योगविषयक शास्त्रों के भी बहुत-से प्रमाण संग्रह करके एवं उपनिषद् और श्रीमद्भगवद्गीतादि सद्ग्रन्थों के तथा दूसरे दर्शनों के साथ भी समन्वय के ग्रन्थ को बहुत ही उपयोगी बनाया गया है। परंतु ग्रन्थ का विस्तार अधिक है और मूल्य अधिक होने के कारण सर्वसाधारण को सुलभ भी नहीं है। इन सब कारणों को विचारकर पूज्यपाद भाई जी तथा श्रीदयालजी की आज्ञा से मैंने इस पर यह ‘साधारण हिंदी-भाषाटीका’ लिखनी आरम्भ की थी।

टीका थोड़े ही दिनों में लिखी जा चुकी थी, परंतु उसी समय ‘कल्याण’ के ‘उपनिषदंक’ का निकलना निश्चित हो गया; अतः ईशावास्योपनिषद् से लेकर श्वेताश्वतरोपनिषद्तक नौ उपनिषदों की टीका लिखने का भार मुझ पर आ पड़ा। इस कारण योगदर्शन की टीका संशोधन कार्य नहीं हो सका एवं प्रेसमें छापने के लिये अवकाश नहीं रहा। इसके सिवा और भी व्यवहार-सम्बन्धी काम हो गये, अतः प्रकाशनकार्य में विलम्ब हुआ। इस समय सरकार का कागजों पर से कन्ट्रोल उठ जाने से एवं प्रेसमें भी छपाई के लिये कुछ अवकाश मिल जाने से यह टीका प्रकाशित की जा रही है। यह तो पाठकगण जानते ही होंगे कि मैं न तो विद्वान हूँ और न अनुभवी ही।

अतः योगदर्शन-जैसे गम्भीर शास्त्र पर टीका लिखना मेरे-जैसे अल्पज्ञ मनुष्य के लिये सर्वथा अनधिकार चेष्टा है। तथापि मैंने इसपर अपने और मित्रोंके संतोष के लिये जैसे कुछ समझ में आया, वैसे लिखने की धृष्टता की है। इसके लिये अनुभवी विद्वान सज्जनोंसे सानुनय प्रार्थना है कि इस टीका में जहां जो त्रुटियाँ रह गयी हों, उनकी सूचना देनेकी कृपा करें, ताकि अगले संस्करण में आवश्यक सुधार किया जा सके।


समाधिपाद



इस ग्रन्थ के पहले पाद में योगके लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन करते हुए चित्त की वृत्तियों के पाँच भेद और उनके लक्षण बतलाये गये हैं। वहाँ सूत्रकारने निद्राको भी चित्त की वृत्तिविशेष के अन्तर्गत माना है (योग.1/10), अन्य अदर्शनकारों की भाँति इनकी मान्यता में निद्रा वृत्तियों का अभावरूप अवस्थाविशेष नहीं है। तथा विपर्ययवृत्ति का लक्षण करते समय उसे मिथ्याज्ञान बताया है। अतः साधारण तौरपर यही समझ में आता है कि दूसरे पादमें ‘अविद्या’ के नाम से जिस प्रधान क्लेशका वर्णन किया गया है (योग. 2/5), वह और चित्त की विपर्ययवृत्ति—दोनों एक ही हैं; परंतु गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर यह बात ठीक नहीं मालूम होती। ऐसा मानने से जो-जो आपत्तियाँ आती हैं, उनका दिग्दर्शन सूत्रों की टीका में कराया गया है (देखिये योग. 1/8; 2/3, 5 की टीका)। द्रष्टा और दर्शन की एकरूपता अस्मिता-क्लेश के कारण का नाम ‘अविद्या’ है (योग. 2/24), वह अस्मिता चित्तकी कारण मानी गयी है (योग. 1/47; 4/4)। इस परिस्थिति में अस्मिता के कार्यरूप चित्ता की वृत्ति अविद्या कैसे हो सकती है जो कि—अस्मिता की भी कारणरूपा है, यह विचारणीय विषय है।

इस पादमें सतरहवें और अठारहवें सूत्रों में समाधि के लक्षणों का वर्णन बहुत ही संक्षेप में किया गया है। उसके बाद इकतालीसवें से लेकर इस पादकी समाप्ति तक इसी विषय का कुछ विस्तार से पुनः वर्णन किया गया है, परन्तु विषय इतना गम्भीर है कि समाधि की वैसी स्थिति प्राप्ति कर लेने के पहले उसका ठीक-ठीक भाव समक्ष लेना बहुत ही कठिन है। मैंने अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार उन सूत्रों की टीका में विषय को समझाने की चेष्टा की है, किंतु यह नहीं कहा जा सकता है कि इतने से ही पाठकों को संतोष हो जायगा; क्योंकि सूत्रकारने आनन्दानुगत और अस्मितानुगत समाधि का स्वरूप यहाँ स्पष्ट शब्दों में नहीं बताया। इसी प्रकार ग्रहण और ग्रहीताविषयक समाधि का विवेचन भी स्पष्ट शब्दों में नहीं किया; अतः विषय बहुत ही जटिल हो गया है। यही कारण है कि बड़े-बड़े टीकाकारों का सम्प्रज्ञातसमाधिके स्वरूप-सम्बन्धी विवेचन करने में मतभेद हो गया है, किसी के भी निर्णय से पूरा संतोष नहीं होता। मैंने यथासाध्य पूर्वापर के सम्बन्ध की संगति बैठाकर विषय को सरल बनाने की चेष्टा तो की है, तथापि पूरी बात तो किसी अनुभवी महापुरुष के कथनानुसार श्रद्धापूर्वक अभ्यास करने से वैसी स्थिति प्राप्त होने पर ही समझ में आ सकती है और तभी पूरा संतोष हो सकता है, यह मेरी धारणा है।

प्रधानतया योग के तीन भेद माने गये हैं—एक सविकल्प, दूसरा निर्विकल्प और तीसरा निर्बीज। इस पाद में निर्बीज समाधिका उपाय प्रधानतया पर वैराग्य को बताकर (योग. 1/18) उसके बाद दूसरा सरल उपाय ईश्वर की शरणागति को बतलाया है (योग. 1/23), श्रद्धालु आस्तिक साधनों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी है। ईश्वर का महत्त्व स्वीकार कर लेने के कारण इनके सिद्धान्त में साधारण बद्ध और मुक्त पुरुषों की ईश्वर से भिन्नता तथा अनेकता सिद्ध होती है। योगदर्शन की तात्त्विक मान्यता प्रायः सांख्यशास्त्रों से मिलती-जुलती है। कोई लोग यद्यपि सांख्यशास्त्र को अनीश्वरवादी बतलाते हैं, परंतु सांख्यशास्त्र पर भलीभाँति विचार करने पर यह कहना ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि सांख्यदर्शन की विशेषता तीसरे पाद के 56वें और 57वें सूत्रों में स्पष्ट ही साधारण पुरुषों की अपेक्षा ईश्वर की विशेषता स्वीकार की गयी है। अतः सांख्य योग के तात्त्विक विवेचन में वर्णनशैली के अतिरिक्त और कोई मतभेद प्रतीत नहीं होता।

उपर्युक्त तीन भेदों में से सम्प्रज्ञातयोग के दो भेद हैं। उनमें जो सविकल्प योग है, वह तो पूर्वावस्था है, उसमें विवेकज्ञान नहीं होता। दूसरा जो निर्विकल्प योग है, जिसे निर्विचार समाधि भी कहते हैं; वह जब निर्मल हो जाता है (योग.1/47), उस समय उसमें विवेकज्ञान प्रकट होता है, वह विवेकज्ञान पुरुषख्याति तक हो जाता है (योग. 2/28; 3/35) जो कि पर वैराग्य का हेतु है (योग.1/16); क्योंकि प्रकृति और पुरुष के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होने के साथ ही साधककी समस्त गुणों में और उनके कार्य में आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाता है। तब चित्त में कोई भी वृत्ति नहीं रहती, यह सर्ववृत्तिनिरोधरूप निर्बीज समाधि है (योग. 1/51)। इसीको असम्प्रज्ञात-योग तथा धर्ममेघ समाधि (योग. 4/29) भी कहते हैं, इसकी विस्तृत व्याख्या यथास्थान की गयी है। निर्बीज समाधि ही योगका अन्तिम लक्ष्य है, इसीसे आत्मा की स्वरूपप्रतिष्ठा या यों कहिये कि कैवल्यस्थिति होती है (योग. 4/34)।

निरोध-अवस्था में चित्त का या उसके कारणरूप तीनों गुणों का सर्वदा नाश नहीं होता; किंतु जड़-प्रकृति-तत्त्व से जो चेतनतत्त्व का अविद्याजनित संयोग है, उसका सर्वथा अभाव हो जाता है।


साधनपाद



इस दूसरे पाद में अविद्यादि पाँच क्लेशों को समस्त दुःखों का कारण बताया गया है, क्योंकि इनके रहते हुए मनुष्य जो कुछ कर्म करता है, वे संस्काररूप से अन्तः करण में इकट्ठे होते रहते हैं, उन संस्कारों के समुदाय का नाम ही कर्माशय है। इस कर्माशय के कारणभूत क्लेश जबतक रहते हैं, तबतक जीवको उनका फल भोगने के लिये नाना प्रकार की योनियों में बार-बार जन्मना और मरना पड़ता है एवं पापकर्म का फल भोगने के लिये घोर नरकों की यातना भी सहन करनी पड़ती है। पुण्य कर्मों का फल जो अच्छी योनियों की और सुखभोग-सम्बन्धी सामग्री की प्राप्ति है वह भी विवेककी दृष्टि से दुःख ही है (योग. 2/15), अतः समस्त दुःखों का सर्वथा अत्यन्त अभाव करने के लिये क्लेशों का मूलोच्छेद करना परम आवश्यक है। इस पाद में उनके नाश का उपाय निश्चल और निर्मल विवेकज्ञान को (योग. 2/26) तथा उस विवेकज्ञानी की प्राप्ति का उपाय योगसम्बन्धी आठ अंगों अनुष्ठान को (योग. 2/28) बताया है। इसलिये साधकको चाहिये कि बताये हुए योगसाधनों का श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करे।


विभूतिपाद



इस तीसरे विभूतिपाद में धारणा, ध्यान और समाधि—इन तीनों का एकत्रित नाम ‘संयम’ बतलाकर भिन्न-भिन्न ध्येय पदार्थों में संयम का भिन्न-भिन्न फल बतलाया है; उनको योग का महत्त्व, सिद्धि और विभूति भी कहते हैं। इनका वर्णन यहाँ ग्रन्थकार ने समस्त ऐश्वर्य में वैराग्य उत्पन्न करने के लिये ही किया है। यही कारण है कि इस पाद के सैंतीसवें, पचासवें और इक्यावनवें में एवं चौथे पादके उन्तीसवें सूत्र में उनको समाधि में विघ्नरूप बताया है। अतः साधक को भूलकर भी सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिये।


कैवल्यपाद



इस चौथे पाद में कैवल्यपाद प्राप्त करने योग्य चित्त के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया (योग. 4-26)। साथ ही योगदर्शन के सिद्धान्तों में जो-जो शंकाएँ हो सकती हैं, उनका समाधान किया गया है। अन्त में धर्ममेघ-समाधि का वर्णन करके (योग. 4/29) उसका फल क्लेश और कर्मों का सर्वथा अभाव (योग. 4/30) तथा गुणों के परिणाम-क्रम की समाप्ति अर्थात् पुनर्जन्म का अभाव बताया गया है (योग. 4/32) एवं पुरुष को मुक्ति प्रदान करके अपना कर्तव्य पूरा कर चुकने के कारण गुणों के कार्य का अपने कारण में विलीन हो जाना अर्थात् पुरुष से सर्वथा अलग हो जाना गुणों की कैवल्य-स्थित और उन गुणों से सर्वथा अलग होकर अपने रूप में प्रतिष्ठित हो जाना पुरुषकी कैवल्य-स्थित बतलाकर (योग.4/34) ग्रन्थ की समाप्ति की गयी है।



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