गीता प्रेस, गोरखपुर >> माण्डूक्योपनिषद् माण्डूक्योपनिषद्गीताप्रेस
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माण्डूक्योपनिषद् ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
माण्डूक्योपनिषद् अथर्ववेदीय ब्राह्मण भाग के अन्तर्गत है। इसमें कुल बारह
मन्त्र हैं। कलेवर की दृष्टि से पहली दस उपनिषदों में यह सबसे छोटी है।
किन्तु इसका महत्त्व किसी से कम नहीं है। भगवान् गौड़पादाचार्य ने इस पर
कारिकाएँ लिखकर इसका महत्त्व और भी बढ़ा दिया है।
कारिका और शांकरभाष्य के सहित यह उपनिषद् अद्वैत सिद्धान्त का प्रथम निबन्ध कहा जा सकता है। इसी ग्रन्थ रत्न के आधार पर भगवान् शंकराचार्य ने अद्वैत मन्दिर की स्थापना की थी। यों तो अद्वैत सिद्धान्त अनादि है, किन्तु उसे जो साम्प्रदायिक मतवाद का रूप प्राप्त हुआ है उसका प्रधान श्रेय आचार्यप्रवर भगवान् शंकर को है और उसका मूल ग्रन्थ गौडपादाचार्य है।
कारिकाकार भगवान् गौड़पादाचार्य के जीवन तथा जीवन काल के विषय में विशेष विवरण नहीं दिया जा सकता। बँगला में ‘वेदान्तदर्शनेर इतिहास’ के लेखक स्वामी प्रज्ञानानन्दजी सरस्वती ने उन्हें गौड़देशीय (बंगाली) बतलाया है। इस विषय में वहाँ नैष्कर्यसिद्धिकार भगवान् सुरेश्वराचार्य का यह श्लोक प्रमाण रूप से उद्धत किया गया है-
कारिका और शांकरभाष्य के सहित यह उपनिषद् अद्वैत सिद्धान्त का प्रथम निबन्ध कहा जा सकता है। इसी ग्रन्थ रत्न के आधार पर भगवान् शंकराचार्य ने अद्वैत मन्दिर की स्थापना की थी। यों तो अद्वैत सिद्धान्त अनादि है, किन्तु उसे जो साम्प्रदायिक मतवाद का रूप प्राप्त हुआ है उसका प्रधान श्रेय आचार्यप्रवर भगवान् शंकर को है और उसका मूल ग्रन्थ गौडपादाचार्य है।
कारिकाकार भगवान् गौड़पादाचार्य के जीवन तथा जीवन काल के विषय में विशेष विवरण नहीं दिया जा सकता। बँगला में ‘वेदान्तदर्शनेर इतिहास’ के लेखक स्वामी प्रज्ञानानन्दजी सरस्वती ने उन्हें गौड़देशीय (बंगाली) बतलाया है। इस विषय में वहाँ नैष्कर्यसिद्धिकार भगवान् सुरेश्वराचार्य का यह श्लोक प्रमाण रूप से उद्धत किया गया है-
एवं गीड़ैर्द्राविडैर्न: पूज्यैरर्थ: प्रभाषित:।
अज्ञानमात्रोपाधि: सन्नहमादिद्वगीश्वर:।।*
(4/44)
अज्ञानमात्रोपाधि: सन्नहमादिद्वगीश्वर:।।*
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इस प्रकार जो साक्षात् भगवान्
की अज्ञानोपाधिक
होकर अहंकारादिका साक्षी (जीव) हुआ है उस परमार्थ तत्त्व का हमारे पूजनीय
गौड़देशीय और द्रविडदेशीय आचार्यों ने वर्णन किया है। (यहाँ गौड़देशीय
आचार्य श्री गौड़पादाचार्य को कहा है और द्रविडदेशीय श्रीशंकराचार्यजी को)।
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