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लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी

राजेन्द्र मिश्र

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11408
आईएसबीएन :8172701004

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3.22 राजयोग भंग


धर्मकर्माधिनेतारौ रन्ध्र लाभाधिपौ यदि
तमोः सम्बन्ध मात्रेण न योगं लभते नरः ।।2।।

यदि कोई ग्रह केन्द्र या त्रिकोण भाव का स्वामी होने के साथ अष्टम या लाभ स्थान का स्वामी भी हो तो उनके सम्बन्ध मात्र से राजयोग नहीं होता।
टिप्पणी-
(1) भाग्य व्ययाधिपत्येन रन्धेशो न शुभ प्रदः भाग्य स्थान का व्ययेश होने के कारण अष्टमेश सर्वाधिक पापी है। वह कभी शुभ नहीं होता। (i) कुम्भ लग्न में बुध पंचमेश और अष्टमेश होता है तो (ii) सिंह लग्न में गुरु पंचमेश और अष्टमेश बनता है। अष्टमेश होने से इनका पंचमेश होना भी विशेष शुभ नहीं है।
(2) त्रिषडायेश में एकादशेश को सर्वाधिक पापी माना जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि केन्द्र व त्रिकोण भाव के स्वामी यदि 3,6,8,11 भावेश से सम्बन्ध करें तो वे अपनी शुभता खो बैठते हैं। (i) कर्क लग्न में शुक्र चतुर्थेश होने के साथ एकादशेश भी है। (ii) मकर लग्न में मंगल चतुर्थेश होने के साथ एकादशेश भी है।
(3) इसी प्रकार कर्क लग्न में शनि सप्तमेश केन्द्रेश होने के साथ अष्टमेश है। तो वही शनि मिथुन लग्न में अष्टमेश और भाग्येश बनाता है। सभी विज्ञजन जानते हैं कि कालपुरुष की मेष लग्न कुंडली में शनि दशमेश होने के साथ एकादशेश भी है।
(4) नैसर्गिक पाप ग्रह यदि अष्टमेश अथवा लाभेश होकर केन्द्र या त्रिकोण भाव के स्वामी से सम्बन्ध करें तो निश्चय ही योग के शुभ फल मैं बहुत कमी हो जाएगी।

3.23 राजयोग भंग

उदाहरण-
(i) दशमेश पंचमेश मंगल, सप्तमेश शनि के साथ पंचम या त्रिकोण भाव में राजयोग दे रहा है।
(ii) पापी ग्रह शनि केन्द्रेश होने से सम किन्तु अष्टमेश होने से निश्चय ही पापी है।
(iii) लाभेश-सुखेश शुक्र अष्टम भाव में भाग्येश गुरु तथा योग कारक मंगल की दृष्टि पाने से शुभ है। ध्यान रहे, भाग्येश गुरु की अन्य राशि षष्ठ भाव में होने से गुरु की शुभता कम हो गई है तो शुक्र एकादशेश होने से पापी है। अतः गुरु और शुक्र का सम्बन्ध योग भंग का प्रतीक बना है।
(iv) दशमेश की अष्टमेश से युति व षष्ठेश की दशम भाव पर दृष्टि होने से जातक सरकारी नौकरी पाने में असफल रहा।
(v) लग्नेश चन्द्रमा पर योगकारक मंगल की दृष्टि ने स्थिति को बिगड़ने से बचाया।
तथ्य-जातक अर्ध-सरकारी संस्था में कार्यरत है। इसकी विद्या, आर्थिक स्थिति व सुख श्रेष्ठ है।

3.24 समीक्षा
1. योगफल अध्याय में श्लोक संख्या 14 से 29 अर्थात् मात्र 9 श्लोकों पर विचार हुआ है।
2. पद, प्रतिष्ठा, धन व यश पाने के लिए केन्द्र व त्रिकोण भावेश का सम्बन्ध होना निश्चय ही शुभ है।
3. केन्द्रेश व त्रिकोणेश यदि थोड़े दुर्बल या दोषयुक्त हों तब भी शुभ फल दिया करते हैं।
4. केन्द्रेश त्रिकोणस्थ हो अथवा त्रिकोणेश केन्द्रस्थ या फिर केन्द्र व त्रिकोण के स्वामी परस्पर राशि परिवर्तन करें तो निश्चय ही योगकारक होते हैं।
5. बली केन्द्रेश (दशमेश या स्वगृही अथवा उच्चस्थ केन्द्रेश) से त्रिकोणेश का सम्बन्ध योगकारक होता है।
6. योगकारक ग्रहों के सम्बन्ध करने पर अशुभ ग्रह की दशा भी शुभ फल देने वाली हो जाती है।
7. यदि कोई एक ग्रह केन्द्र व त्रिकोण, दोनों भावों का स्वामी हो तो वह निश्चय ही शुभ फल देने वाला बन जाता है।
8. केन्द्र व त्रिकोण भाव और भावेश से सम्बन्ध करने पर तमोग्रह राहु-केतु भी योगकारक हो जाते हैं।
9. यदि कोई ग्रह केन्द्र व त्रिकोण भावाधिपति होने के साथ अष्टमेश या लाभेश भी हो अथवा अष्टमेश-लाभेश सम्बन्धित केन्द्रेश-त्रिकोणेश से अधिक बली हो जाएँ तो विद्वान इसे राजयोग भंग कहते हैं।
10. लग्नेश केन्द्रेश-त्रिकोणेश होने से सदा शुभ माना जाता है। उसे षष्ठेश, अष्टमेश, एकादशेश होने का दोष नहीं लगता।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी

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