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लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी

राजेन्द्र मिश्र

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11408
आईएसबीएन :8172701004

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3.17 शुभ योगकारक ग्रह


केन्द्र त्रिकोणाधिप योर एकत्वे योगकारकौ।
अन्य त्रिकोणपतिना सम्बन्धों यदि कि परम्।20।।

यदि कोई ग्रह केन्द्र और त्रिकोण, दोनों का स्वामी हो तो वह योगकारक होता है।

यदि ऐसा योगकारक ग्रह अन्य त्रिकोणपति से सम्बन्ध करे तो निश्चय ही मणिकांचन संयोग सरीखा उत्कृष्ट योग बनता है।

3.18 जार्ज बर्नर्ड शॉ
विश्लेषण
(i) योगकारक शनि की पंचमेश बुध के साथ युति तथा सुख व लाभ स्थान पर दृष्टि है।
(ii) सप्तमेश मंगल, लग्नेश शुक्र तथा सुखेश सूर्य का भाग्य स्थान से दृष्टि सम्बन्ध जातक को भाग्यशाली बनाता है।
(iii) लाभेश का लाभ स्थान में स्वगृही होकर पराक्रम भाव में स्थित लग्नेश व सुखेश तथा पंचम व सप्तम भाव से दृष्टि सम्बन्ध जातक को पराक्रम व बुद्धि देने वाला बना।

3.19. महारानी विक्टोरिया
23 मई 1819; लन्दन

विश्लेषण
(i) लग्न में सूर्य चन्द्रमा की युति होने से त्रिलग्न एकात्म योग बना है।
(ii) पराक्रमेश चन्द्रमा का लग्न में उच्चस्थ होकर, सुखेशं सूर्य से युति करना आशा, उत्साह, साइंस व आत्मबल बढ़ाकर सुख देता है।
(iii) योगकारक शनि लाभ स्थान में बैठकर लग्न को देखता है तो लाभेश गुरु. भाग्यस्थ होकर लग्न, पराक्रम व पंचम भाव को देख रहा है।
(iv) लग्नेश व लाभेश का राशि परिवर्तन कर लग्न व पंचम भाव से दृष्टि सम्बन्ध करना उत्कृष्ट राजयोग देने वाला बना।

3.20 झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई
विश्लेषण
(i) दशमेश चन्द्रमा के साथ पंचमेश शनि तथा नवमेश बुध की लग्न में युति पर दशमस्थ मंगल की
दृष्टि है।
(ii) लग्नेश शुक्र होने से शनि योगकारक है।
(iii) लग्नेश शुक्र पराक्रम भाव में बैठ कर भाग्य स्थान को देख रहा है।
(iv) दोनों त्रिकोणपति का दशमेश के साथ लग्न में युति करना अक्षय मान व कीर्ति देने वाला बना।
 

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी

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