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लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी

राजेन्द्र मिश्र

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11408
आईएसबीएन :8172701004

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2.8 राहु-केतु का शुभाशुभ निर्णय


यद् यद् भाव गतौ वापि यद् यद् भावेश संयुतौ
तत् तत् फलानि प्रबलौ प्रदिशेतां तमग्रहौ।।3।।


तमोग्रह राहु-केतु जिस भाव में बैठे अथवा जिस भावेश से युति करें उन्हीं से सम्बन्धित भावों को फल दिया करते हैं।

(i) राहु-केतु लग्न, पंचम व नवम भाव में शुभ किन्तु केन्द्र, धन और व्यय भाव में सम होते हैं।
(ii) त्रिषडाय भाव में अशुभ किन्तु अष्टम भाव में अति पापी होते हैं।
(iii) राहु-केतु की जिस भावेश के साथ युति हो, उसी के अनुसार फल देते हैं। त्रिकोणेश के साथ शुभ, केन्द्रेश के साथ सम किन्तु त्रिषडायेश के साथ बैठे राहु-केतु पाप फल देते हैं।
(iv) राहु-केतु केन्द्र स्थान में त्रिकोणेश के साथ अथवा त्रिकोण भाव में केन्द्रेश के साथ या केन्द्र में केन्द्रेश और त्रिकोण में त्रिकोणेश के साथ युति करने पर योगकारक हो जाते हैं। कारण, राहु-केतु उक्त भावेश के फल की वृद्धि कर उसे अधिक शुभ बनाते हैं।
(v) पंचम, नवम या लग्न में राहु की केन्द्रेश या त्रिकोणेश के साथ युति निश्चय ही शुभ फल देती है।
(vi) इसके विपरीत-दुःस्थान अर्थात 6,8,12 वें राहु का पाप ग्रह से सम्बन्ध दुष्मरण व विपत्ति देता है।

3. शनि-राहु में फाँसी

विश्लेषण-(i) दशम भाव में स्वगृही गुरु हंस नामक पंचमहापुरुष योग बना रहा है। (ii) दशमेश गुरु का लाभेश मंगल, पंचमेश शुक्र तथा भाग्येश शनि से दृष्टि सम्बन्ध प्रबल राजयोग बनाकर धन व यश देने वाला बना।
(iii) दुःस्थान अर्थात व्यय भाव में बैठे राहु का दृष्टि सम्बन्ध अष्टम भाव और अष्टमेश शनि से होने के कारण इन्हें फाँसी हुई।
(iv) दशानाथ शनि अष्टमेश होकर षष्ठ भाव में षष्ठेश से युति कर अष्टम भाव को देख रहा है तो भुक्तिनाथ राहु, व्यय भाव में चन्द्रमा से युति कर, अष्टम भाव और अष्टमेश को देख रहा है। अष्टम भाव में दशमेश की नीच राशि होने से राजकोप के कारण मृत्युदंड भुगतना पड़ा।

समीक्षा

1. इस अध्याय में लघु पाराशरी के श्लोक 6 से 13 तक (मात्र 8 श्लोकों) पर विचार हुआ है।
2. त्रिकोण अर्थात पंचम व नवम भाव के स्वामी सदा शुभ, तो त्रिषडाय अर्थात् 3,6,11 वें भाव के स्वामी सदा अशुभ माने जाते हैं।
3. क्रिके भाव 6,8,12 वें भाव के स्वामी भी अनिष्टप्रद होते हैं।
4. केन्द्र भाव के स्वामी यदि शुभ ग्रह हों तो केन्द्राधिपति दोष के कारण वे शुभ फल देने में असमर्थ रहते हैं।
5. पाप ग्रह मंगल, शनि, केन्द्रेश होने पर पापी नहीं रहते, अपितु थोड़े शुभ हो जाते हैं। अन्य शब्दों में, पापी केन्देश कभी पापी नहीं होते।
6. द्वितीयेश व द्वादशैश या 2r 12, स्वतन्त्र फल न देकर साहचर्य का अथवा
अपनी अन्य राशि का भाव फल देते हैं। यदि द्वितीयेश की अन्य राशि पंचम या नवम भाव में अर्थात त्रिकोण में हो तो निश्चय ही शुभ फल की प्राप्ति होती है।
7. यदि द्वादशेश की अन्य राशि नवम भाव में पड़े तब भी ऐसा व्ययेश भाग्य वृद्धि में सहायक होता है।
8. लग्नेश केन्द्रेश व त्रिकोणेश होने से सर्वाधिक शुभ तो अष्टम भाव का स्वामी, भाग्य स्थान को हानि पति या व्यययेश होने से सर्वाधिक अशुभ होता है।
9. केन्द्र व त्रिकोण भाव के स्वामी का परस्पर दृष्टि-युति सम्बन्ध अथवा किसी, एक ग्रह का केन्द्रेश और त्रिकोणेश होना, उस ग्रह को योगकारक बनाता है। योगकारक ग्रह धन, विद्या, यश व सुख की वृद्धि करते हैं।
10. केन्द्र या त्रिकोण भाव में स्थित ग्रह, केन्द्र या त्रिकोण भाव के स्वामी से सम्बन्ध करने पर उत्कृष्ट राजयोग देते हैं।
12. राहु-केतु का त्रिक भाव या इनके स्वामी अर्थात् 6L, 8L, 12L से सम्बन्ध प्रायः अनिष्ट परिणाम व दुर्मरण योग देता है।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी

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