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गीता प्रेस, गोरखपुर >> श्रीरामगीता

श्रीरामगीता

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :64
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1131
आईएसबीएन :81-293-0630-1

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प्रस्तुत है पुस्तक श्रीरामगीता...

Shri Ramgita -A Hindi Book by Gitapress - श्रीरामगीता - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


श्रीपरमात्मने नम:

श्रीरामगीता


नीलोत्पलनिभो रामो लक्ष्मण: कैरवोपम:।
मानसे राजतां मे तौ बोधवैराग्यविग्रहौ।।

उपोद्घात


ततो जगन्मंगलमंगलात्मना
विधाय रामायणकीर्तिमुत्तामाम्।
चचार पूर्वाचरितं रघूत्तमो
राजर्षिवर्यैरभिसेवितं यथा।।1।।


श्रीमहादेवजी बोले- हे पार्वती ! तदनन्तर, रघुश्रेष्ठ भगवान् राम, संसार के मंगल के लिये धारण किये अपने दिव्यमंगल देह से रामायण रूप अति उत्तम कीर्ति की स्थापना कर पूर्वकाल में राजर्षि श्रेष्ठों ने जैसा आचरण किया है वैसा ही स्वयं भी करने लगे।।1।।

सौमित्रिणा पृष्ट उदारबुद्धिना
राम: कथा: प्राह पुरातनी: शुभा:।
राज्ञ: प्रमत्त्स्य नृगस्य शापतो
द्विजस्य तिर्यक्त्वमथाह राघव:।।2।।

उदारबुद्धि लक्ष्मणजी के पूछने पर वे प्राचीन उत्तम कथाएँ सुनाया करते थे। इसी प्रसंग में श्रीरघुनाथजी ने, राजा नृग को प्रमादवश ब्राह्मण के शाप से तिर्यग्योनि प्राप्त होने का वृत्तान्त भी सुनाया।।2।।

कदाचिदेकान्त उपस्थितं प्रभुं
रामं रमालालितपादपंकजम्।
सौमित्रिरासादितशुद्धभावन:
प्रणम्य भक्त्या विनयान्वितोऽब्रवीत्।।3।।

किसी दिन भगवान् राम, जिनके चरण-कमलों की सेवा साक्षात् श्रीलक्ष्मीजी करती हैं, एकान्त में बैठे हुए थे। उस समय शुद्ध विचारवाले लक्ष्मणजी ने (उनके पास जा) उन्हें भक्ति पूर्वक प्रणाम कर अति विनीतभाव से कहा-।।3।।

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