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वास्तु एवं ज्योतिष >> लघुपाराशरी सिद्धांत

लघुपाराशरी सिद्धांत

एस जी खोत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :630
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 11250
आईएसबीएन :8120821351

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अध्याय-5 : दशाफल अध्याय


ज्योतिष प्रेमी इस बात से अनजान नहीं कि ‘लघु पाराशरी’ में मात्र 42 श्लोक हैं किन्तु इसमें ज्योतिष का दुर्लभ ज्ञान समेटा गया है। कुछ लोग इस लघु रचना की तुलना ‘होरा शतक’, ‘सुश्लोक शतक’, ‘षडपंचाशिका' से करते हैं। कुछ भी हो, गागर में सागर भरना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है जो ‘लघु पाराशरी’ में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ है।

पिछले अध्याय में मारक ग्रह व मृत्युप्रद दशा या सम्भावित जीवन अवधि पर चर्चा के बाद इस अध्याय में जीवन के विविध आयामों से सम्बन्धित घटनाओं तथा उनके सम्भावित समय पर चर्चा होगी।
अन्तिम 14 श्लोक या समूची पुस्तक का एक तिहाई भाग विभिन्न ग्रहों की दशा व फल पर विचार करने के लिए प्रयुक्त हुआ है। विभिन्न प्रकार के योग सम्बन्धित ग्रहों की दशा व अन्तर्दशा में घटित होते हैं। यदि कभी वांछित दशा न मिले तो भावों में बैठे ग्रह शायद समुचित फल दे पाने में असमर्थ रहते हैं। अस्तु।

5.1 दशाफल का विशेष नियम


न दिशेयुग्रहाः सर्वे स्वदशासु स्वभुक्तिषु
शुभाशुभ फल नृणाम् आत्मभावानुरूपतः ।।29।।


सभी ग्रह अपनी महादशा के प्रारम्भ में अपनी ही अन्तर्दशा में अपना विशिष्ट शुभ, अशुभ योगकारक या मारक फल नहीं देते। इस अवधि में वे अपना सामान्य फल दिखाते हैं
आत्म सम्बन्धिनो ये च ये वा निजसधर्मिणः।
तेषा अन्तर्दशास्वेव दिशन्ति स्वदशा फलम् ।।30।।


अन्तर्दशा में ही योगकारक ग्रह अति शुभ फल तथा मारक ग्रह अशुभ या अनिष्ट परिणाम देते हैं।

(ii) भाग्येश बुध की लाभेश-सुखेश मंगल से युति होने के कारण बुध की दशा भाग्यवृद्धि व पद-प्रतिष्ठा देने वाली बनी।
(ii) योगकास्क शुक्र की दशा ने मान-सम्मान, यश व प्रतिष्ठा दी। सन्तान से विशेष सुख मिला। दोनों बच्चे इंजीनियरिंग स्नातक बन स्वावलम्बी बने।
(iv) सूर्य की दशा आरम्भ होते ही सूर्य-सूर्य की अवधि में जातक उदर रोग से पीड़ित हुआ। उसका आत्मबल व विश्वास खंडित हुआ। ध्यान रहे, सूर्य ने सिंह राशि सम्बन्धी उदर विकार का दोष उत्पन्न किया जबकि जातक मृत्युभय से आशंकित था।

5.3 योगकारक ग्रह की दशा में (क) अन्य योगकारक (ख) शुभ ग्रह (ग) सम्बन्धित ग्रह की अन्तर्दशा प्रायः शुभ फल दिया करती है। सम्बन्धित या सम्बन्धी ग्रह केन्द्र के स्वामी, त्रिकोण के स्वामी तथा धन व लाभ स्थान के स्वामी परस्पर सम्बन्धी माने जाते हैं। अर्थात्
(i) 1L, 4L, 7L, 10L परस्पर सम्बन्धी हैं।
(i) IL, SL, 9L परस्पर सम्बन्धी हैं।
(iii) 2L, 11L धन प्रदायक होने से परस्पर सम्बन्धी हैं।

5.4 मारक या अशुभ ग्रह अन्य अशुभ ग्रह या सम्बन्धी ग्रह की दशा में अनिष्ट परिणाम देते हैं।
(i) 3L,6L, 11L त्रिषडायेश परस्पर सम्बन्धी हैं।
(ii) 2L,7L मारकेश परस्पर सम्बन्धी हैं।
(iii) 6L, 8, 121, त्रिकेश परस्पर सम्बन्धी हैं।

5.5 सम ग्रह की अन्तर्दशा का फल

इतरेषा दशानार्थ विरुद्ध फल दायिनाम्
'तत्तत्फलानुगुण्येन फला न्यूयानि सूरिभि।।31।।

जो ग्रह दशानाथ के सम्बन्धी अथवा सहधर्मी नहीं हैं, उनकी अन्तर्दशा में मिश्रित फल ही बताना उचित है।

टिप्पणी
(i) शुभ दशा+शुभ अन्र्तदशा = शुभ फल
(ii) शुभ दशा+सम अंह की अन्तर्दशा = अल्प शुभ फल
(iii) शभ दशा+अशुभं अन्तर्दशा = अल्प पाप फल।
(iv) अशुभ दशा+शुभ अन्तर्दशा = पाप फल में कमी
(v) अशुभ दशा+अशुभ अन्तर्दशा = पाप फल में वृद्धि या अधिक अशुभ फल

विज्ञजन जानते हैं कि ग्रहों का परस्पर सम्बन्ध चार प्रकार का माना गया है-

(i) परस्पर राशि परिवर्तन–सर्वश्रेष्ठ
(ii) परस्पर दृष्टि सम्बन्ध-श्रेष्ठ

(i) स्थान व दृष्टि सम्बन्ध अथवा अपने नियन्त्रक ग्रह (राशीश) से दृष्टि सम्बन्ध-शुभ
(iv) परस्पर युति एक राशि में एक साथ बैठना-सामान्य
सधर्मी ग्रह की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। चार केन्द्रेश, तीनों त्रिकोणपति, त्रिषडायेश, त्रिकेश परस्पर सधर्मी माने जाते हैं।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी

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