गीता प्रेस, गोरखपुर >> मूर्तिपूजा और नामजप मूर्तिपूजा और नामजपस्वामी रामसुखदास
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इस पुस्तक में मूर्तिपूजा और नामजप का वर्णन किया गया है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मूर्तिपूजा
‘‘गीता-दर्पण’’ से
हमारे सनातन वैदिक सिद्धान्त में भक्त लोग मूर्तिका पूजन नहीं करते,
प्रत्युत परमात्मा का ही पूजन करते हैं। तात्पर्य है कि जो परमात्मा सब
जगह परिपूर्ण है, उसका विशेष ख्याल करन के लिये मूर्ति बनाकर उस मूर्ति
में उस परमात्मा का पूजन करते हैं, जिससे सुगमतापूर्वक परमात्मा का
ध्यान-चिन्तन होता रहे।
अगर मूर्ति की ही पूजा होती है तो पूजकके भीतर पत्थर की मूर्ति का ही भाव होना चाहिये कि तुम अमुक पर्वत से निकले हो, अमुक व्यक्ति ने तुमको बनाया है, अमुक व्यक्ति ने तुमको यहां लाकर रखा है; अतः हे पत्थरदेव ! तुम मेरा कल्याण करो।’ परंतु ऐसा कोई कहता ही नहीं, तो फिर मूर्तिपूजा कहाँ हुई ? अतः भक्तलोग मूर्ति की पूजा नहीं करते; किंतु मूर्ति में भगवान् की पूजा करते हैं अर्थात् मूर्तिभाव मिटाकर भगवद्भाव करते है। इस प्रकार मूर्ति में भगवान् का पूजन करने से सब जगह भगवद्भाव हो जाता है। भगवत्पूजन से भगवान् की भक्ति का आरम्भ होता है। भक्त के सिद्ध हो जाने पर भी भगवत्पूजन होता ही रहता है।
मूर्ति में अपनी पूजा के विषय में भगवान ने गीता में कहा है कि ‘’भक्तलोग भक्तिपूर्वक मेरे को नमस्कार करते हुए मेरी उपनासना करते हैं’ (9/14); जो भक्त्त श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मेरे अर्पण करता है, उसके दिये हुए उपहार को मैं खा लेता हूँ’ (9/26); देवताओं (विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश और सूर्य—ये ईश्वरीकोटि के पंचदेवता), ब्राह्मणों, आचार्य, माता-पिता आदि बड़े-बूढ़ों और ज्ञानी जीवन्मुक्त महात्माओं का पूजन करना शारीरिक तप है (17/14) अगर सामने मूर्ति न हो तो किसको नमस्कार किया जायगा ? किसको पत्र, पुष्प, फल, जल आदि चढ़ाये जायँगे और किसका पूजन किया जायेगा ? इससे सिद्ध होता है कि गीता में मूर्तिपूजा की बात भी आयी है।
अगर मूर्ति की ही पूजा होती है तो पूजकके भीतर पत्थर की मूर्ति का ही भाव होना चाहिये कि तुम अमुक पर्वत से निकले हो, अमुक व्यक्ति ने तुमको बनाया है, अमुक व्यक्ति ने तुमको यहां लाकर रखा है; अतः हे पत्थरदेव ! तुम मेरा कल्याण करो।’ परंतु ऐसा कोई कहता ही नहीं, तो फिर मूर्तिपूजा कहाँ हुई ? अतः भक्तलोग मूर्ति की पूजा नहीं करते; किंतु मूर्ति में भगवान् की पूजा करते हैं अर्थात् मूर्तिभाव मिटाकर भगवद्भाव करते है। इस प्रकार मूर्ति में भगवान् का पूजन करने से सब जगह भगवद्भाव हो जाता है। भगवत्पूजन से भगवान् की भक्ति का आरम्भ होता है। भक्त के सिद्ध हो जाने पर भी भगवत्पूजन होता ही रहता है।
मूर्ति में अपनी पूजा के विषय में भगवान ने गीता में कहा है कि ‘’भक्तलोग भक्तिपूर्वक मेरे को नमस्कार करते हुए मेरी उपनासना करते हैं’ (9/14); जो भक्त्त श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मेरे अर्पण करता है, उसके दिये हुए उपहार को मैं खा लेता हूँ’ (9/26); देवताओं (विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश और सूर्य—ये ईश्वरीकोटि के पंचदेवता), ब्राह्मणों, आचार्य, माता-पिता आदि बड़े-बूढ़ों और ज्ञानी जीवन्मुक्त महात्माओं का पूजन करना शारीरिक तप है (17/14) अगर सामने मूर्ति न हो तो किसको नमस्कार किया जायगा ? किसको पत्र, पुष्प, फल, जल आदि चढ़ाये जायँगे और किसका पूजन किया जायेगा ? इससे सिद्ध होता है कि गीता में मूर्तिपूजा की बात भी आयी है।
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