भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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शकुन्तला : (कुछ रोष प्रकट करती हुई) मैं तो जा रही हूं।
अनसूया : क्यों? किसलिए चली जा रही है?
शकुन्तला : इस प्रियंवदा की इस प्रकार अनर्गल बोलने की बात आर्या गौतमी से
कहना चाहती हूं।
अनसूया : सखि! ऐसे विशिष्ट अतिथि का आदर-सत्कार किये बिना तुम्हारा इस
प्रकार चला जाना उचित नहीं है।
[इसका कुछ उत्तर दिये बिना शकुन्तला जाने के लिए उद्यत होती है।]
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