भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : (मन-ही-मन) अब अपना क्या परिचय दूं और कैसे अपने को छिपाऊं। अच्छा
इनसे कहता हूं। (प्रकट में) भद्रे! पुरुराज दुष्यन्त ने मुझे अपने राज्य
की धार्मिक क्रियाओं की देखभाल का काम सौंप रखा है। इसलिए मैं यह
देखने के लिए आया हूं कि आश्रम में रहने वाले तपस्वियों के कार्य
में किसी प्रकार का कोई विघ्न तो नहीं पड़ता?
अनसूया : आर्य! धर्मक्रिया करने वाले लोगों पर आपने बड़ी कृपा की है।
[शकुन्तला संवरती हुई लज्जा का अभिनय करती हूं।]
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