भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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नटी : आपने तो कलाकारों को पहले से ही इतना प्रशिक्षित कर दिया है कि अब
किसी अन्य के कुछ करने-धरने के लिए शेष नहीं है। उनकी ओर कोई भी अंगुली
नहीं उठा सकता।
सूत्रधार : (मुस्कुराकर) आर्ये! तुम कह तो रही हो, किन्तु जब तक विद्वान्
लोग नाटक को देखकर यह न मान लें कि नाटक बढ़िया है, तब तक मैं नाटक को सफल
नहीं समझ सकता। क्योंकि पात्रों को चाहे जितने भी अच्छे ढंग से सजाया जाय,
सिखाया जाय, फिर भी मन को सन्तोष नहीं होता।
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