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			 भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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शकुन्तला : (मुस्कुराकर) अच्छा, जैसा तुम कह रही हो वही करती हूं। 
[शकुन्तला बैठी हुई-सी सोचती है।] 
राजा : अपनी प्रिया को जी भरकर देखने का यह बहुत ही अच्छा अवसर है। 
क्योंकि- 
लता के समान चढ़ी हुई एक भौंह वाला और हर्ष से पुलकित गालों वाला, इस कविता
की  रचना करने वाली का मुख ही स्वयं बता रहा है कि यह मुझको कितना
प्यार करती है। 
शकुन्तला : सखि! कविता में क्या लिखा जाये, यह तो मैंने सोच लिया है।
किन्तु लिखूं किस प्रकार? लिखने की सामग्री में से तो हमारे पास कुछ भी
नहीं है? 
प्रियंवदा : शुक की छाती के समान सुकोमल इस कमलिनी के पत्ते पर तुम अपने
नखों की कलम और स्याही बनाकर लिख दो। 
शकुन्तला : (वैसा करती हुई।) 
[लिखने के बाद] 
राजा : सखी! लिख तो मैंने लिया है। अब तुम एक बार इसको सुन लो कि कविता
कुछ ठीक भी बनी है अथवा नहीं। 
दोनों सखियां : हां, सुनाओ, हम सुन रही हैं। 
शकुन्तला : (सुनाने लगती है।) 
			
						
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