भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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बालक : (तोतली भाषा में छोड़ो, मुझे छोड़ दो, मैं अपनी माता के पास जाउंगा।
राजा : पुत्र! अब तुम मेरे साथ ही अपनी माता के पास चलकर उनको आनन्द देना।
बालक : (तुतलाकर) तुम मेरे पिता नहीं हो। मेरे पिता तो राजा दुष्यन्त हैं।
राजा : (मुस्कुराकर) यह विवाद ही तो मेरे विश्वास को दृढ़ कर रहा है।
[शकुन्तला आती है।]
शकुन्तला : यह सुनकर भी कि सर्वदमन की भुजा से गिरी जड़ी को छूने पर भी वह
सांप नहीं बनी, मुझे अपने भाग्य पर भरोसा नहीं हुआ। अथवा यह भी कि सानुमती
ने जो कुछ कहा था, सम्भव है वह ठीक ही हो।
[राजा शकुन्तला को देखता है।]
राजा : अरे, ये ही तो देवी शकुन्तला हैं। इनके शरीर पर यह मैले कपड़ों का
जोड़ा पड़ा हुआ है, तप करते-करते जिनका मुख सूख गया है, जिनके बाल एक लट में
उलझे पड़े हैं और जो शुद्ध मन से मुझ जैसे निर्दयी के वियोग में इतने दिनों
से तप करती चली आरही हैं।
शकुन्तला : (पश्वात्ताप से पतिवर्ण तना को देखकर) ये तो आर्यपुत्र जैसे
नहीं दीख पड़ते। तब ये कौन हैं। ये तो रक्षा से बंधे मेरे पुत्र को अपने
शरीर से लगा-लगाकर उसके शरीर को मैला कर रहे हैं।
[बालक माता को देखकर उसके पास चला जाता है।]
बालक : (तुतलाकर) मां! देखो, ये कोई पुरुष मुझको बेटा कहकर अपने गले से
लगा रहे हैं।
राजा : प्रिये! मैंने तुम्हारे साथ जो निठुराई की थी उसका यही दण्ड है कि
अभी तक भी तुमने मुझे पहचाना नहीं है।
शकुन्तला : (आप-ही-आप) अय मेरे हृदय! तनिक धीरज धरो। धीरज धरो। भूलवश
परित्यक्त मुझ अभागिनी पर दैव आज कृपालु हुआहै। हां, यह तो आर्यपुत्र ही
हैं।
राजा : प्रिये!
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