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भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

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राजा : अरे, यह तो आश्रम है, जहां अविनय के लिए कोई स्थान नहीं। तो फिर यह कौन है जो अपनी ही मनमानी कर रहा है।

[शब्दों का अनुसरण कर उस ओर देख आश्चर्य से।]
अरे, यह कौन पराक्रमी बालक है जिसके पीछे-पीछे दो तपस्विनियां चली आ रही हैं?
और-
सिंहनी के बच्चे अपनी मां के स्तनों में दूध भी भली प्रकार नहीं पी पाये हैं। वह उनको अपने  साथ खेलने के लिए उन्हें बलपूर्वक घसीटे लिये जा रहा है और इस खींचातानी में जिसके केश छितरा गये हैं।

[जैसा कहा गया है तदनुसार तपस्विनियों के साथ बालक का प्रवेश]

बालक : (तोतली भाषा में) खोल रे सिंह! अपना मुंह खोल, मैं तेरे दांत गिनूंगा।

पहली तपस्विनी : अरे नटखट! जिन्हें हमने अपने बालक के समान पाला हुआ है तू उनको क्यों इतना सताया करता है? हाय, हाय! तेरी शैतानी तो दिन-पर-दिन बढ़ती ही जा रही है।

ऋषियों ने जो तेरा नाम सर्वदमन रखा है, वह उन्होंने ठीक सोच-समझकर ही रखा होगा।

[राजा बालक को देखकर]

राजा : न जाने क्यों इस बालक को देखकर मेरे मन में ठीक उसी प्रकार प्रेम उमड़ रहा है  जिस प्रकार किसी को अपने औरस पुत्र पर उमड़ता है। हो सकता है, मेरा अपना कोई पुत्र न  होने के कारण इस बालक के प्रति मेरे मन में इस प्रकार के भाव उठ रहे हों।

दूसरी तपस्विनी : देख, यदि तूने इन बच्चों को नहीं छोड़ा तो यह जो सिंहनी है न, इनकी  मां, वह तुझ पर झपट पड़ेगी।

बालक : (मुस्कुराकर तोतली भाषा में) अरे, यह तो बड़ी डरावनी है, उसे देखकर मुझे बड़ा डर लग रहा है।

[बालक ओठ बिचकाता है।]

राजा : यह बालक तो मुझे किसी बड़े ही तेजस्वी महापुरुष का पुत्र-सा दीखता है। यह उस चिनगारी के समान जान पड़ता है जो भड़क
उठने के लिए बस केवल ईंधन की बाट जोह रही हो।

पहली : वत्स! इस सिंह के बच्चे को छोड़ दे। मैं तेरे खेलने के लिए कोई और खिलौना लाये देती हूं।

[बालक हाथ फैलाता है।]

बालक : कहां है और खिलौना-विलौना, लाओ, दो।

[राजा ध्यान से हाथ की ओर देखकर]

राजा : अरे, इसके हाथ में तो चक्रवर्तियों के लक्षण भी दिखाई दे रहे हैं।
क्योंकि-
यह जाल के समान मिली हुई अंगुलियों वाला खिलौने के लिये फैलाया हुआ इसका हाथ उस  अकेले कमल के समान दिखाई दे रहा है जो प्रातःकाल की लाली से चमक रहा हो और जिसकी पंखुड़ियां अभी पूरी खुल भी न पाई हों।

दूसरी तपस्विनी : सुव्रता! तुम क्या समझती हो कि इसको बातों-बातों में भरमा लोगी! यह  असम्भव है। जाओ, मेरी कुटी में ऋषिकुमार मार्कण्डेय का एक रंगा हुआ मोर रखा हुआ है,  उसको उठा लाओ।

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