भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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मातलि : क्या?
राजा : मैं भगवान कश्यप की प्रदक्षिणा करता हूं, उसके बाद ही यहां से आगे
बढ़ेंगे।
मातलि : यह तो आपने उचित ही सोचा है।
[दोनों उतरने का नाटक करते हैं।]
राजा : (विस्मयपूर्वक-)
अरे, आपका रथ कब नीचे उतर आया, इसका पता ही नहीं चला। क्योंकि पृथ्वी से न
छूने के कारण न तो इसके पहियों की घरघराहट ही सुनाई दी, न धूल ही उड़ी और न
आपने रास ही खींची।
मातलि : बस, आयुष्मान के और इन्द्र के रथ में यही तो अन्तर है।
राजा : मातलि! मरीचि के पुत्र महामुनि कश्यप का आश्रम किधर है?
मातलि : (हाथ से दिखाते हुए-)
वह रहा कश्यप ऋषि का आश्रम। जहां वे ऐसी तपस्याकर रहे हैं कि उनके आधे
शरीर तक तो दीमकों ने बांबी उठा ली है। छाती पर न जाने कितने सांपों की
केंचुलियां लगी पड़ी हैं। उनके गले में सूखी हुई बेलें उलझी पड़ी हैं। उनकी
जटाओं में चिड़ियों ने घोंसले बना लिये हैं।
और वे प्रजापति हैं कि सूखे पेड़ के ठूंठ के समान अचल भाव से सूर्य पर
आंखें गड़ाये तप कर रहे हैं।
राजा : ऐसा महान् तप करने वाले महात्मा को मैं प्रणाम करता हूं।
[मातलि रास खींचकर रथ रोकने का नाटक करता है।]
मातलि : महाराज! हम प्रजापति कश्यप के आश्रम में पहुंच गये हैं। यह
देखिये, यह सुन्दर मन्दार के वृक्षों की पंक्ति अदिति ने अपने हाथ से लगाई
है।
राजा : यहां तो स्वर्ग से भी बढ़कर शान्ति विराजमान है। ऐसा लगने लगा है
मानो मैं अमृत कुण्ड में कूद पड़ा हूं।
[मातलि रथ रोकने का नाटक करता है।]
मातलि : आयुष्मान्! उतरिये।
[राजा उतरने का नाटक करता है।]
राजा : मातलि! अब आप क्या करेंगे?
मातलि : मैंने रथ रोक लिया है। अब मैं भी आपके साथ ही उतर रहा हूं।
[उतरता है।]
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