भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[परदा झटककर कंचुकी का प्रवेश]
कंचुकी : (क्रोधित स्वर में) नहीं, नहीं। नासमझ छोकरियों! यह तुम क्या कर
रही हो? तुम जब जानती हो कि महाराज ने वसन्तोत्सव को रोक दिया है तो तुम
यह आम की मंजरी क्यों तोड़ रही हो?
दोनों : (डरी हुई-सी) आर्य! आप रुष्ट न हों, हमें इस बात का बिलकुल ज्ञान
नहीं था।
कंचुकी : क्या तुम लोगों ने नहीं सुना?
दोनो : क्या नहीं सुना आर्य!
कंचुकी : अरे, यही कि जन साधारण की तो बात ही क्या है, बसन्त-ऋतु में
फलने-फूलने वाले वृक्षों ने और उन पर बसेरा करके चहकने वाले पक्षियों ने
भी महाराज की उस आज्ञा को मान लिया है। देखो-
आम की मंजरी तो बहुत पहले आ गई थी किन्तु अभी तक भी उनमें पराग नहीं आ
पाया है। कुरबक का पुष्प खिलना ही चाह रहा था किन्तु नहीं खिला, अभी तक
ज्यों-का-त्यों बंधा हुआ ही है। जाड़ा बीत गया है फिर भी कोयल की कूक कहीं
सुनाई नहीं पड़ती। मानो उसके गले तक आकर वह वहीं पर अटक गई हो। कामदेव भी
अपने तरकस में से बाण तो निकालता है किन्तु फिर डरकर उसी में वापस रख देता
है, वह उन्हें छोड़ नहीं पाता।
सानुमती : इसमें तो कोई सन्देह नहीं। इसका तो यही अभिप्राय हुआ कि यह
राजर्षि बड़ा प्रतापी है।
पहली परि०: आर्य! इस नगर के रक्षक श्रीमान् मित्रावसु ने अभी कुछ दिन पहले
ही हम लोगों को इस प्रमद वन की रखवाली करने के लिए महाराज की सेवा में
नियुक्त किया था। हम लोग बिलकुल नयी हैं, इस कारण हमको इस बात का ज्ञान
नहीं था। यदि हमें ज्ञान होता तो हम कभी न तोड़ती।
कंचुकी : कोई बात नहीं। अब पुन: इस प्रकार का कोई कार्य मत करना।
दोनों : आर्य! किन्तु हमको बड़ा कौतूहल हो रहा है कि महाराज ने वसन्तोत्सव
न मनाने का निश्चय क्यों किया है, हम यह जानना चाहती हैं। यदि आपको बताने
में कोई अड़चन न हो तो कृपया हमें भी बताइये कि महाराज ने वसन्तोत्सव
क्यों रोक दिया है?
सानुमती : मनुष्य प्राणी तो बड़ा ही उत्सव-प्रिय होता है यदि महाराज ने
उत्सव रोक दिया है तो निश्चित है कि इसका कोई बहुत बड़ा ही कारण होगा?
अन्यथा वसन्तोत्सव जैसे उत्सव को रोक देना सहज नहीं था।
कंचुकी : नहीं, बताने में अब कोई अडचन नहीं है, क्योकि यह बात अब चारों ओर
फैल गई है। इसलिए तुमको भी बता देता हूं सुनों-क्या शकुन्तला के छोड़े
जाने की बात तुम लोगों ने सुनी है?
दोनों : जी हां। नगर रक्षक के मुख से महाराज को मुद्रिका मिलने तक की बात
तो हम लोगों को विदित है।
कंचुकी : फिर तो अब तुम लोगों को थोड़ा ही जानना शेष रह गया है। वह मैं
सुनाता हूं
जिस मुद्रिका की बात तुम कह रही हो, उसको देखते ही महाराज को स्मरण हो आया
कि उन्होंने शकुन्तला से एकाब्ल में विवाह किया था और अब भूल के कारण उसका
परित्याग कर बैठे हैं। तब से ही उनको बड़ा पश्चात्ताप हो रहा है।
तब से ही-
उनके मन को न अब कोई सुन्दर वस्तु ही सुहाती है और न वे अब पहले की भांति
अपने मन्त्री-आमात्यों के साथ नित्य बैठकर गोष्ठी आदि करते हैं। रात्रि के
समय भी उनको नींद नहीं आती। रातभर पलंग पर करवटें बदलते रहते हैं, इस
प्रकार सारी रात बीत जाती है।
रनिवास की रानियां जब आग्रह करके उनसे उनके इस प्रकार उदास रहने का कारण
पूछती हैं तो उनके मुख से बात तो कुछ निकलती नहीं, झोंक में आकर केवल
शकुन्तला का नाम ही निकल आता है, बस।
इसके बाद वे बड़ी देर तक लजाये से सिर नीचा किये रहते हैं।
सानुमती : यह बात तो मेरे लिए बड़ी ही प्रिय है।
कंचुकी : (अपर्नी बात पूरी करता हुआ) बस, इसी दुःख के कारण उन्होंने
वसन्तोत्सव रोक दिया है।
दोनों : हां, यह तो उन्होंने ठीक ही किया है। जब मन में उल्लास न हो और
खिन्नता हो तो फिर उत्सव किस प्रकार मनाया जा सकता है।
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