भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
|
|
राजा : (अपने पुरोहित से पूछता है) इस अवस्था में मैं आपसे ही ऊंच-नीच के
विषय में पूछता हूं।
क्योंकि-
या तो मैं भूल गया हूं या फिर ये ही झूठ बोल रही है। इस अवस्था में मैं
अपनी पत्नी को छोड़ने का पाप करूं या कि पराई स्त्री को स्पर्श करने का पाप
अपने सिर पर लूं?
पुरोहित : (कुछ विचारकर) यदि इस प्रकार की बात है तो फिर आप एक काम करिये।
राजा : हां, बताइये।
पुरोहित : जब तक इनका प्रसव नहीं हो जाता तब तक ये देवी मेरे घर पर रहें।
आप जानना चाहेंगे कि मैं क्यों ऐसा कह रहा हूं।
क्योंकि ऋषि-मुनियों ने तो आपको पहले ही आशीर्वाद दिया हुआ है कि आप के घर
में चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न होगा। यदि शकुन्तला से उत्पन्न कण्व ऋषि के
नाती में चक्रवर्ती राजा के सारे लक्षण मिल गये तब तो आप इनको सादर अपने
रनिवास में स्थान दीजियेगा और यदि वे लक्षण न मिले तो इनके पिता के पास
वापस भिजवा दीजियेगा।
राजा : गुरुजी! जैसा आपको उचित प्रतीत होता हो, वह कीजिये।
पुरोहित : (शकुन्तला) बेटी! आओ, मेरे साथ चली आओ।
शकुन्तला : भगवती वसुन्धरे! तू फट जा और मैं उसमें समा जाऊं।
[इस प्रकार विलाप करती हुई शकुन्तला पुरोहित जी और ऋषियों के पीछे-पीछे
चली जाती है। शाप के कारण भूला हुआ राजा शकुन्तला के सम्बन्ध में सोचता
है।]
[दृश्य परिवर्तन]
|