भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : (मन-ही-मन) इसका क्रोध देखकर तो मेरे मन में सन्देह होने लगा है
इसलिए मेरा मन और भी सन्देह में पड़ता जा रहा है।
क्योंकि-
ठीक स्मरण न आने से अकेले में किए हुए प्रेम को जो मैंने इतनी कठोरता से
अस्वीकार कर दिया है, उस पर क्रोध-से लाल-लाल आंखें करके अत्यन्त क्षब्ध
होकर शकुन्तला ने जो भौंहे चढ़ा ली हैं उन्होंने इस समय कामदेव के
धनुष को भी दो टूक कर डाला है।
[प्रकट में]
भद्रे! दुष्यन्त के कृत्यों से सारा संसार भली-भांति परिचित है। किन्तु इस
प्रकार की बात तो आज तक भी नहीं सुनी गई है।
शकुन्तला : तुमने मुझे कुचाली स्त्री बनाकर शायद ठीक ही किया है। क्योंकि
ऊंचे कुल के धोखे में आकर मैं ऐसे नीच के हाथ में जा पड़ी जिसके मुंह में
तो मधु है किन्तु हृदय में विष भरा पड़ा है।
[आंचल से मुख ढंककर रोने लगती है।]
शार्ङरव : बिना सोचे-समझे जो काम किया जाता है, उसमें इसी प्रकार दुःख
भोगना पड़ता है। इसलिए-
गुप्त प्रेम बहुत सोच-विचार कर करना चाहिए। क्योंकि बिना जाने-बूझे स्वभाव
वाले के साथ जो मित्रता की जाती है वह एक-न-एक दिन शत्रुता बनकर रह
जाती है।
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