भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[दृश्य परिवर्तन]
[उसी समय कंचुकी प्रविष्ट होता है।]
कंचुकी : आह, मेरी भी क्या दशा हो चली है-
जिस बेंत की छड़ी को कभी रनिवास के द्वारपाल का नियम मानकर हाथ में लिये
रहा करता था वही अब इस वृद्धावस्था में मेरे लड़खड़ाते पैरों के लिए
बड़ा आश्रय बन गई है।
यह तो ठीक है कि महाराज को धर्म कार्य करना चाहिए। इस समरा वे अभी-अभी
न्यायासन से उठकर गये हैं। लेकिन कष्ट देने के लिए ये कण्व के शिष्य आ
धमके हैं। इनके आने की सूचना देने को मेरा मन तो करता नहीं है।
किन्तु क्या करूं, राजकर्मचारी को कहां विश्राम! राजा को भी प्रजा
के शासन में विश्राम कहां मिलता है।
क्योंकि...
सूर्य भी तो एक ही बार अपने रथ को जोतकर अब तक निरन्तर चलता ही रहा है।
शेषनाग भी पहले ही दिन से पृथ्वी का भार
अपने सिर पर निरन्तर उठाये हुए हैं। यही दशा राज-कर के रूप में उपज का
षष्ठांश लेने वाले राजा की है। इसलिए चलूं, मैं भी अपना कर्तव्य पालन
करूं।
[इधर-उधर देखकर]
हां, बैठे हैं महाराज।
अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के समान मानकर उसका कार्य करने के उपरान्त थक
जाने पर ये महाराज यहां पर एकान्त में, उसी प्रकार विश्राम कर रहे हैं
जैसे दिन की धूप से तपा हुआ गजराज हाथियों के झुण्ड को चरने के लिए छोड़कर
स्वयं ठण्डे स्थान में विश्राम लेता है।
[राजा के समीप जाकर]
महाराज की जय हो! महाराज! हिमालय की उपत्यकाओं में निवास करने वाले कुछ
तपस्वी लोग महर्षि कण्व का सन्दश लेकर और साथ में दो स्त्रियों को लिये
हुए आये हुए हैं। अब आप जैसा ठीक समझें, आज्ञा कीजिए।
राजा : (आदर-सा व्यक्त करता हुआ) क्या महर्षि कण्व का सन्देश लेकर कोई
तपस्वी आये हैं?
कंचुकी : जी हां।
राजा : तो तुम कुल पुरोहित सोमरात जी को मेरी ओर से कहो, वे इन
आश्रमवासियों का वैदिक परम्परा से उचित आदर-सत्कार कर उन्हें अपने साथ
मेरे पास लिवा आवें।
मैं भी तब तक वहां पर चलकर बैठता हूं, जहां कि ऋषि गणों से मिलना उपयुक्त
होगा।
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