भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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कण्व : (स्वगत ही बोलते हैं-)
दुष्यन्त के अनुरूप कौन-सा सन्देश उनके पास भेजना चाहिए।
[सोचने का अभिनय करते हैं।]
शकुन्तला : (सखी से अलग में) सखी! देख तो, कमलिनी के पत्ते की ओट में छिपे
हुए अपने चकवे को न देख सकने से यह चकवी कैसे घबराकर चिल्ला रही है। यह तो
अपशकुन है। इस लिए मैं जिस काम से जा रही हूं वह पूरा होता नहीं दिखाई
देता।
अनसूया : सखि! तुम्हें इस प्रकार नहीं सोचना चाहिए।
जानती हो-
यह चकवी भी अपने प्रिय से वियोग की लम्बी रातों को पति के बिना अकेली ही
काट देती है। क्योंकि उस विरह के समय में भी इसको यह आशा बनी रहती है कि
प्रातःकाल तो उसका
अपने प्रिय से मिलन होगा ही।
कण्व : शार्ङरव! शकुन्तला को दुष्यन्त के हाथ में सौंपते हुए उनको मेरी ओर
से कहना-
शार्ङरव : (बीच में ही) जी हां, आज्ञा कीजिए।
कण्व : कहना कि-
राजन! हम लोग तो सीधे-साधे वन में रहने वाले संयमी तपस्वी लोग हैं और आप
उच्च कुल के वंशज और राजपुत्र हैं। आपकी हमारी क्या तुलना। फिर भी
आपने स्वयं ही इस कन्या का पाणिग्रहण किया है। इन सब बातों को ध्यान
में रखकर आप कम-से-कम शकुन्तला को दूसरी रानियों के समान तो आदर प्रदान
करेंगे ही।
इससे बढ़कर जो इसको सौभाग्य मिले वह इसके भाग्य की बात है। उसके लिए हम इस
कन्या के निकटजन भला आपको क्या कह सकते हैं!
शार्ङरव : तात! मैं आपका आशय समझ गया हूं।
कण्व : (शकुन्तला की ओर संकेत करके उसे अपने पास बुलाते हैं।) वत्से! आओ,
तुम्हें कुछ सीख देनी है-
देखो, वन में रहते हुए भी हम लोग सांसारिक व्यवहार को भली-भांति जानते
हैं।
शार्ङरव : ऐसी कौन-सी बात है जिसको विद्वान् लोग न जानते हों।
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