गीता प्रेस, गोरखपुर >> तू-ही-तू तू-ही-तूस्वामी रामसुखदास
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जब तक हम परमात्मा को सर्वत्र व्याप्त नहीं पाते तब तक सारे संशय और मायाजाल हमें घेरे रहते हैं। जब हम परमात्मा को सही जान जाते हैं, तो सर्वत्र और सर्वदा उसी के दर्शन होते हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।
तू-ही-तू (1)
उपनिषद् में आता है कि आरम्भ में एकमात्र अद्वितीय सत् ही विद्यमान
था-‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’
(छान्दोग्य.
6/2/1)।
वह एक ही सत्स्वरूप परमात्म तत्त्व एक से अनेकरूप हो गया-
वह एक ही सत्स्वरूप परमात्म तत्त्व एक से अनेकरूप हो गया-
(1) सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति।
(छान्दोग्य. 6/2/3)
(2) सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति।
(तैत्तिरीय. 2/6)
(3) एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति।
(कठ. 2/2/12)
एक से अनेक होने पर भी वह एक ही रहा, उसमें नानात्व नहीं आया-
(1) ‘नेह नानास्ति
किंचन’
(बृहदारण्यक. 4/4/19, कठ. 2/1/11)
(2) ‘एकोऽपि सन् बहुधा यो
विभाति’
(गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्)
(3) ‘यत्साक्षादपरोक्षाद्
ब्रह्म’
(बृहदारण्यक. 3/4/1)
(4) ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’
(छान्दोग्य. 3/14/1)
(5) ‘ब्रह्मवेदं विश्वमिदम्’
(मुण्डक. 2/2/19)
इसलिये श्रीमद्भागवत गीता में भगवान् ने ब्रह्माजी से कहा है-
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।।
(2/9/32)
‘सृष्टिके पहले भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था।
सृष्टि
के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दृश्यवर्ग है, वह मैं ही हूँ। जो
सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ। सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ
और इन सबका का नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही
हूँ।’
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