गीता प्रेस, गोरखपुर >> गीतामाहात्म्य की कहानियाँ गीतामाहात्म्य की कहानियाँगीताप्रेस
|
2 पाठकों को प्रिय 217 पाठक हैं |
गीतामाहात्म्य की कहानियाँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।श्रीहरि:।।
श्रीमद्भागवद्गीता के पहले अध्याय का माहात्म्य
श्रीपार्वतीजी ने कहा- भगवन् ! आप सब तत्वों के ज्ञाता हैं। आपकी कृपा से
मुझे श्रीविष्णु-संबंधी नाना प्रकार के धर्म सुनने को मिले, जो समस्त लोको
का उद्धार करनेवाले हैं। देवेश ! अब मैं गीता का माहात्मय सुनना चाहती
हूँ, जिसका श्रवण करने से श्रीहरि में भक्ति बढ़ती हैं।
श्रीमहादेवजी बोले- जिनका श्रीविग्रह अलसी के फूल की भाँति श्यामवर्ण का है, पक्षिराज गरुड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान् महाविष्णु की हम उपासना करते हैं एक समय की बात है, मुर दैत्य के नाशक भगवान् विष्णु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुखपूर्वक विराजमान थे। उस समय समस्त लोकों को आनन्द देनेवाली भगवती लक्ष्मी ने आदरपूर्वक प्रश्न किया था।
श्रीलक्ष्मीजी ने पूछा- भगवन् ! आप सम्पूर्ण जगत् का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन-से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है ?
श्रीभगवान् बोले- सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूँ। देवि ! यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र-बुद्धि के द्वारा अपने अन्त:करण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान वेदों का सार तत्त्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप रोग-शोक से रहित, अखण्ड आनन्द का पुंज, निष्पन्द (निरीह) तथा द्वैतरहित है। इस जगत् का जीवन उसी के अधीन है। मैं उसी का अनुभव करता हूँ। देवश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता-सा प्रतीत हो रहा हूँ।
श्रीलक्ष्मीजी ने कहा- हृषीकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। इस चराचर जगत् की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं। आप सर्वसमर्थ हैं। इस प्रकार की स्थिति में होकर भी यदि आप उस परम तत्त्व से भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये।
श्रीभगवान् बोले- प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक्, भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है। शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होनेवाले तथा परमानन्दस्वरूप होने के कारण एकमात्र सुन्दर है। वही मेरा ईश्वरीय रूप है। आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जाननेयोग्य है। गीताशास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है।
अमित तेजस्वी भगवान् विष्णु के ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करते हुए कहा- भगवन् ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानन्दमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है ? मेरे इस संदेह का आप निवारण कीजिये।
श्रीभगवान् बोले- सुन्दरि ! सुनो, मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ। क्रमश: पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उधर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो। इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वांग्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए।* यह ज्ञानमात्र से ही महान् पातकों का नाश करनेवाली है। जो उत्तम बुद्धिवाले पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है।
श्रीलक्ष्मीजी ने पूछा- देव ! सुर्शमा कौन था ? किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई ?
श्रीभगवान् बोले- प्रिये ! सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था। पापियों का तो वह शिरोमणि ही था। उसका जन्म वैदिक ज्ञान से शून्य एवं क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था। वह न ध्यान करता था न जप; न होम करता था न अतिथियों का सत्कार। वह लम्पट होने के कारण सदा विषयों के सेवन में ही आसक्त रहता था। हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था। उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था। इस प्रकार उसने अपने जीवन का दीर्घकाल व्यतीत कर दिया। एक दिन मूढ़ बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिये किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था। इसी बीच कालरूप धारी काले साँप ने उसे डँस लिया। सुशर्मा की मृत्यु हो गयी। तदन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ भोगकर मर्त्यलोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोनेवाला बैल हुआ। उस समय किसी पंगुने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के लिये उसे खरीद लिया। बैल ने अपनी पीठ पर पंगुका का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात-आठ वर्ष बिताये। एक दिन पंगुने किसी ऊँचे स्थान पर बहुत देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया।
--------------------------------------------------------------------
श्रीमहादेवजी बोले- जिनका श्रीविग्रह अलसी के फूल की भाँति श्यामवर्ण का है, पक्षिराज गरुड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान् महाविष्णु की हम उपासना करते हैं एक समय की बात है, मुर दैत्य के नाशक भगवान् विष्णु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुखपूर्वक विराजमान थे। उस समय समस्त लोकों को आनन्द देनेवाली भगवती लक्ष्मी ने आदरपूर्वक प्रश्न किया था।
श्रीलक्ष्मीजी ने पूछा- भगवन् ! आप सम्पूर्ण जगत् का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन-से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है ?
श्रीभगवान् बोले- सुमुखि ! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का साक्षात्कार कर रहा हूँ। देवि ! यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र-बुद्धि के द्वारा अपने अन्त:करण में दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान वेदों का सार तत्त्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप रोग-शोक से रहित, अखण्ड आनन्द का पुंज, निष्पन्द (निरीह) तथा द्वैतरहित है। इस जगत् का जीवन उसी के अधीन है। मैं उसी का अनुभव करता हूँ। देवश्वरि ! यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता-सा प्रतीत हो रहा हूँ।
श्रीलक्ष्मीजी ने कहा- हृषीकेश ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। इस चराचर जगत् की सृष्टि और संहार करने वाले स्वयं आप ही हैं। आप सर्वसमर्थ हैं। इस प्रकार की स्थिति में होकर भी यदि आप उस परम तत्त्व से भिन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये।
श्रीभगवान् बोले- प्रिये ! आत्मा का स्वरूप द्वैत और अद्वैत से पृथक्, भाव और अभाव से मुक्त तथा आदि और अन्त से रहित है। शुद्ध ज्ञान के प्रकाश से उपलब्ध होनेवाले तथा परमानन्दस्वरूप होने के कारण एकमात्र सुन्दर है। वही मेरा ईश्वरीय रूप है। आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जाननेयोग्य है। गीताशास्त्र में इसी का प्रतिपादन हुआ है।
अमित तेजस्वी भगवान् विष्णु के ये वचन सुनकर लक्ष्मी देवी ने शंका उपस्थित करते हुए कहा- भगवन् ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानन्दमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है ? मेरे इस संदेह का आप निवारण कीजिये।
श्रीभगवान् बोले- सुन्दरि ! सुनो, मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ। क्रमश: पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उधर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो। इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की वांग्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए।* यह ज्ञानमात्र से ही महान् पातकों का नाश करनेवाली है। जो उत्तम बुद्धिवाले पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोक का भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुशर्मा के समान मुक्त हो जाता है।
श्रीलक्ष्मीजी ने पूछा- देव ! सुर्शमा कौन था ? किस जाति का था और किस कारण से उसकी मुक्ति हुई ?
श्रीभगवान् बोले- प्रिये ! सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था। पापियों का तो वह शिरोमणि ही था। उसका जन्म वैदिक ज्ञान से शून्य एवं क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाले ब्राह्मणों के कुल में हुआ था। वह न ध्यान करता था न जप; न होम करता था न अतिथियों का सत्कार। वह लम्पट होने के कारण सदा विषयों के सेवन में ही आसक्त रहता था। हल जोतता और पत्ते बेचकर जीविका चलाता था। उसे मदिरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था। इस प्रकार उसने अपने जीवन का दीर्घकाल व्यतीत कर दिया। एक दिन मूढ़ बुद्धि सुशर्मा पत्ते लाने के लिये किसी ऋषि की वाटिका में घूम रहा था। इसी बीच कालरूप धारी काले साँप ने उसे डँस लिया। सुशर्मा की मृत्यु हो गयी। तदन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ भोगकर मर्त्यलोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोनेवाला बैल हुआ। उस समय किसी पंगुने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के लिये उसे खरीद लिया। बैल ने अपनी पीठ पर पंगुका का भार ढोते हुए बड़े कष्ट से सात-आठ वर्ष बिताये। एक दिन पंगुने किसी ऊँचे स्थान पर बहुत देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया।
--------------------------------------------------------------------
*श्रृणु सुश्रोणि वक्ष्यामि स्थितिमात्मन:।
वक्त्राणि पंच जानीहि पंचाध्यायाननुक्रमात्।।
दशाध्यायान् भुजांश्चैकमुदरं द्वौ पदाम्बुजे।
एवमष्टादशाध्यायी वांग्मयी मूर्तिरैश्वरी।।
वक्त्राणि पंच जानीहि पंचाध्यायाननुक्रमात्।।
दशाध्यायान् भुजांश्चैकमुदरं द्वौ पदाम्बुजे।
एवमष्टादशाध्यायी वांग्मयी मूर्तिरैश्वरी।।
पद्म. उत्तर. 171/27-28)
इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और मूर्च्छित हो गया। उस समय
वहाँ कुतूहलवश आकृष्ट हो बहुत-से लोग एकत्रित हो गये। उस जनसमुदाय में से
किसी पुण्यात्मा व्यक्ति ने उस बैल का कल्याण करने के लिये उसे अपना पुण्य
दान किया। तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगों ने भी अपने-अपने पुण्यों को याद
करके उन्हें उसके लिये दान दिया। उस भीड़ में एक वेश्या भी खड़ी थी। उसे
अपने पुण्य का पता नहीं
था तो भी उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के लिये कुछ त्याग किया।
तदन्तर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गये। वहाँ यह विचार करके कि यह वेश्या के दिए हुए पुण्य से पुण्यवान् हो गया है, उसे छोड़ दिया दया गया। फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शील वाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ। उस समय भी उसे अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण बना रहा। बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करनेवाले कल्याण-तत्त्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया और उसके दान की बात बतलाते हुए उसने पूछा- ‘तुमने कौन-सा पुण्य दान किया था ?’ वेश्या ने उत्तर दिया- ‘वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है। उससे मेरा अन्त:करण पवित्र हो गया है। उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिये दान किया था।’ इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा। तब उस तोते ने अपने पूर्वजन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया।
शुक बोला- पूर्वजन्म मैं विद्वान होकर भी विद्वत्ता के अभिमान से मोहित रहता था। मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान् विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्याभाव रखने लगा। फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा। उसके बाद इस लोक में आया। सद्गुरु की अत्यन्त निन्दा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ। पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता-पिता से वियोग हो गया। एक दिन ग्रीष्म ऋतु में तपे हुए मार्ग पर पड़ा था। वहाँ से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओं के आश्रय में आश्रम के भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया। वहीं मुझे पढ़ाया गया। ऋषियों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय की आवृत्ति करते थे। उन्हीं से सुनकर मैं भी बारंबार पाठ करने लगा। इसी बीच में एक चोरी करनेवाले बहेलिये ने मुझे वहाँ से चुरा लिया। तत्पश्चात् इस देवी ने मुझे खरीद लिया। यही मेरा वृत्तान्त है, जिसे मैंने आप लोगों से बता दिया। पूर्वकाल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था, जिससे मैंने अपने पापों को दूर किया है। फिर उसी से इस वेश्या का अन्त:करण शुद्ध हुआ है और उसी के पुण्य से द्विजश्रेष्ठ सुशर्मा भी पापमुक्त हुए हैं।
था तो भी उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के लिये कुछ त्याग किया।
तदन्तर यमराज के दूत उस मरे हुए प्राणी को पहले यमपुरी में ले गये। वहाँ यह विचार करके कि यह वेश्या के दिए हुए पुण्य से पुण्यवान् हो गया है, उसे छोड़ दिया दया गया। फिर वह भूलोक में आकर उत्तम कुल और शील वाले ब्राह्मणों के घर में उत्पन्न हुआ। उस समय भी उसे अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण बना रहा। बहुत दिनों के बाद अपने अज्ञान को दूर करनेवाले कल्याण-तत्त्व का जिज्ञासु होकर वह उस वेश्या के पास गया और उसके दान की बात बतलाते हुए उसने पूछा- ‘तुमने कौन-सा पुण्य दान किया था ?’ वेश्या ने उत्तर दिया- ‘वह पिंजरे में बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है। उससे मेरा अन्त:करण पवित्र हो गया है। उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे लिये दान किया था।’ इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा। तब उस तोते ने अपने पूर्वजन्म का स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया।
शुक बोला- पूर्वजन्म मैं विद्वान होकर भी विद्वत्ता के अभिमान से मोहित रहता था। मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान् विद्वानों के प्रति भी ईर्ष्याभाव रखने लगा। फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकों में भटकता फिरा। उसके बाद इस लोक में आया। सद्गुरु की अत्यन्त निन्दा करने के कारण तोते के कुल में मेरा जन्म हुआ। पापी होने के कारण छोटी अवस्था में ही मेरा माता-पिता से वियोग हो गया। एक दिन ग्रीष्म ऋतु में तपे हुए मार्ग पर पड़ा था। वहाँ से कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओं के आश्रय में आश्रम के भीतर एक पिंजरे में उन्होंने मुझे डाल दिया। वहीं मुझे पढ़ाया गया। ऋषियों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के प्रथम अध्याय की आवृत्ति करते थे। उन्हीं से सुनकर मैं भी बारंबार पाठ करने लगा। इसी बीच में एक चोरी करनेवाले बहेलिये ने मुझे वहाँ से चुरा लिया। तत्पश्चात् इस देवी ने मुझे खरीद लिया। यही मेरा वृत्तान्त है, जिसे मैंने आप लोगों से बता दिया। पूर्वकाल में मैंने इस प्रथम अध्याय का अभ्यास किया था, जिससे मैंने अपने पापों को दूर किया है। फिर उसी से इस वेश्या का अन्त:करण शुद्ध हुआ है और उसी के पुण्य से द्विजश्रेष्ठ सुशर्मा भी पापमुक्त हुए हैं।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book