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पुराण एवं उपनिषद् >> केनोपनिषद

केनोपनिषद

यमुनाप्रसाद त्रिपाठी

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :105
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11066
आईएसबीएन :8120823818

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इस उपननिषद् में आरम्भ से लेकर अन्तपर्यन्त सर्वप्रेरक प्रभुके ही स्वरूप और प्रभावका वर्णन किया गया है

केनोपनिषद् सामवेदीय तलवकार ब्राह्मणके अन्तर्गत है। इसमें आरम्भसे लेकर अन्तपर्यन्त सर्वप्रेरक प्रभुके ही स्वरूप और प्रभावका वर्णन किया गया है। पहले दो खण्डों में सर्वाधिष्ठान परब्रह्मके पारमार्थिक स्वरूपको लक्षणासे निर्देश करते हुए परमार्थज्ञानको अनिर्वचनीयता तथा ज्ञेयके साथ उसका अभेद प्रदर्शित किया है। इसके पश्चात् तीसरे और चौथे खण्डमें यक्षोपाख्यानद्वारा भगवान्का सर्वप्रेरकत्व और सर्वकर्तृत्व दिखलाया गया है। इसकी वर्णनशैली बड़ी ही उदात्त और गम्भीर है। मन्त्रोंके पाठमात्रसे ही हृदय एक अपूर्व मस्तीका अनुभव करने लगता है। भगवती श्रुतिकी महिमा अथवा वर्णनशैलीके सम्बन्धमें कुछ भी कहना सूर्यको दीपक दिखाना है। इस उपनिषद्का विशेष महत्त्व तो इसीसे प्रकट होता है कि भगवान् भाष्यकारने इसपर दो भाष्य रचे हैं। एक ही ग्रन्थपर एक ही सिद्धान्तकी स्थापना करते हुए एक ही ग्रन्थकारद्वारा दो टीकाएँ लिखी गयी हों-ऐसा प्रायः देखा नहीं जाता। यहाँ यह शङ्का होती है कि ऐसा करनेकी उन्हें क्यों आवश्यकता हुई?

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