नई पुस्तकें >> सुनो आनन्द सुनो आनन्दरामजी प्रसाद भैैरव
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मैं महापरिनिर्वाण के समीप था। रात्रि का अंतिम प्रहर चल रहा था। लोगों के दर्शनों का क्रम टूटा नहीं था। वे सब दुखी थे, पर व्यर्थ में मेरी आँखों के सामने कुछ पुराने दृश्य उभरे। वैशाली में प्रवास के दौरान आनंद ने राहुल के निर्वाण की सूचना दी। गोपा का मुखमंडल उभरा। पिताश्री का मुस्कुराता हुआ मुख, माताश्री का मुख, सारिपुत्र और मौग्द, जाने कितने दृश्य स्मृति-पटल पर आये और चले गये। मैंने आँखे खोलीं ‘‘आनंद !’’ आनंद रो रहा था, उसकी आँखे लाल थीं, कपोल आंसुओं से सिक्त थे। अन्य भिक्षु भी जो जहाँ था वह दुखी होकर अश्रु अर्घ्य दे रहा था। मैंने पुनः कहा - आनंद। वह समीप आया, मैंने उसका हाथ अपने हाथों में लिया। वह फूट-फूटकर रो पड़ा। ‘‘रोओ मत आनंद, जीवन का सत्य जानकार जब तुम रोते हो, तो भला इन सांसारिक लोगों को कौन सम्हालेगा।’’ मेरी जिव्हा फँसने लगी, होंठ सूख रहे थे। मैंने जीभ ओंठो पर फिराया, वह कुछ गीला हुआ। ‘‘भगवन ! आपके बाद हम दुःख निवृत्ति के लिए किसके शरण में जायेंगे।’’ इतना कहकर वह पुनः रो पड़ा। ‘‘सुनो आनंद ! मनुष्य मद के कारण पर्वत, वन, उद्यान, वृक्ष और चैत्य की शरण में जाता है। लेकिन यह उत्तम शरण नहीं है, यहाँ दुःख की निवृत्ति नहीं है। सर्वाधिक उत्तम शरण हैं बुद्ध पुरुषों की शरण, उन्ही के शरण में कल्याण है।’’
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