नई पुस्तकें >> रंजिश ही सही.. रंजिश ही सही..कुमार पंकज
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संस्मरण के विधा के रूप में हिंदी में जो छवि अर्जित की है, वह सामान्यतः ऐसे गद्य का संकेत देती है जिसे लिखना कुछ-कुछ स्मृतियों के धवल-सजल संसार को शब्दबद्ध करना होता है। पढ़नेवाला भी उसे इसी मंशा से पढ़ने जाता है कि हल्के-फुल्के श्रद्धा-विगलित विवरणों एक साथ कुछ जानकारी भी मिल जाए। लेकिन इधर इस विधा में एक सशक्त गद्य की रचना का प्रयास दिखाई देने लगा है जो काशीनाथ सिंह के संस्मरणों में प्रबल रूप में सामने आया था। जहाँ संस्मरण के पत्रों कि प्रस्तुति कहानी-उपन्यास के पत्रों कि तरह बहुपर्श्विक होती है। कुमार पंकज के ये संस्मरण भी इस दृष्टि से श्लाघनीय हैं। विश्वविद्यालय में अध्यापन से जुड़े कुमार पंकज ने इन संस्मरणों में उन व्यक्तियों के चित्र तो आंके ही हैं जिन्हें वे याद कर रहे हैं, विश्वविद्यालयों, और विशेष रूप से हिंदी विभागों के गुह्य-जगत पर भी एकदम सीढ़ी और तीखी रौशनी यहाँ पड़ती हैं। इन संस्मरणों को पढ़ना हिंदी साहित्य के उस पार्श्व को जानना है, जो हो सकता है कि एकबारगी किसी नए साहित्य-उत्साही का मोहभंग कर दे, लेकिन संभवतः आत्मालोचना का यही तेवर शायद भविष्य में भाषा के ज्यादा काम आए। यहाँ सिर्फ चुटकियाँ नहीं हैं; स्पष्ट आलोचना है, जो सिर्फ मनोरंजन कि छवियों को थोड़ा और वस्तुनिष्ठ होकर देखने को कहती है।
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