गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्ति-भक्त-भगवान भक्ति-भक्त-भगवानजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्ति-भक्त-भगवान के बीच का संबंध....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘ऐसी स्थिति शीघ्र प्राप्त करने के लिये किसी की बात
की भी परवाह न कर हर समय कटिबद्ध रहना चाहिये।’’
‘‘मनुष्य को समय की कीमत जाननी चाहिये, समय प्रतिक्षण घट रहा है। मनुष्य-शरीर का समय अमूल्य है। इसे भजन, ध्यान, सत्संग रूप अमूल्य कामों में ही लगाना चाहिये। जिनका समय केवल पेट पालने में ही जाता है वे तो महान् पशु हैं।’’
‘‘संसार का काम करते हुए उस काम का बुरा मालूम होना केवल वैराग्य नहीं है। यदि केवल वैराग्य होता तो संसार का कुछ भी काम न करने से समय निरन्तर भजन-ध्यान ही हुआ करता।’’
‘‘खाना, पीना, चलना, फिरना, बोलना आदि सांसारिक कार्य तो बेगार हैं, जबरदस्ती करने पड़ते हैं, अपना निज कार्य तो केवल एक भगवत्स्मरण ही है, जो हर समय करना चाहिये।’’
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नोट- सं. 2048 से तत्त्व चिन्ताणि-भाग-7- दो खण्डों में प्रकाशित की गयी है- प्रथम खण्ड का नाम ‘समता अमृत और विषमता विष’ तथा द्वितीय खण्ड का नाम ‘भक्ति-भक्त-भगवान्’ है।
जिसका चिन्तन किया जायगा उसी के गुण अपने में आवेंगे; अतएव भगवान् और उनके भक्तों का ही चिन्तन करना चाहिये, जिससे उनके गुण अपने में प्रकट हों।
जिस प्रकार गुरु द्रोण को महाराज युधिष्ठिर के वचनों की सत्यतापर विश्वास था, उसी प्रकार का विश्वास गुरु के वचनों में होना चाहिये।
इच्छा के त्याग के ही सर्व त्याग हो जाता है।
चिन्ता करने से अमूल्य पदार्थ नाश हो जाता है और भी बहुत नुकसान है, अतएव ‘यदृच्छालाभ-सन्तुष्ट’ के सिद्धान्त के अनुसार जो कुछ हो उसी में आनन्द मानना चाहिये।
‘‘मनुष्य को समय की कीमत जाननी चाहिये, समय प्रतिक्षण घट रहा है। मनुष्य-शरीर का समय अमूल्य है। इसे भजन, ध्यान, सत्संग रूप अमूल्य कामों में ही लगाना चाहिये। जिनका समय केवल पेट पालने में ही जाता है वे तो महान् पशु हैं।’’
‘‘संसार का काम करते हुए उस काम का बुरा मालूम होना केवल वैराग्य नहीं है। यदि केवल वैराग्य होता तो संसार का कुछ भी काम न करने से समय निरन्तर भजन-ध्यान ही हुआ करता।’’
‘‘खाना, पीना, चलना, फिरना, बोलना आदि सांसारिक कार्य तो बेगार हैं, जबरदस्ती करने पड़ते हैं, अपना निज कार्य तो केवल एक भगवत्स्मरण ही है, जो हर समय करना चाहिये।’’
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नोट- सं. 2048 से तत्त्व चिन्ताणि-भाग-7- दो खण्डों में प्रकाशित की गयी है- प्रथम खण्ड का नाम ‘समता अमृत और विषमता विष’ तथा द्वितीय खण्ड का नाम ‘भक्ति-भक्त-भगवान्’ है।
जिसका चिन्तन किया जायगा उसी के गुण अपने में आवेंगे; अतएव भगवान् और उनके भक्तों का ही चिन्तन करना चाहिये, जिससे उनके गुण अपने में प्रकट हों।
जिस प्रकार गुरु द्रोण को महाराज युधिष्ठिर के वचनों की सत्यतापर विश्वास था, उसी प्रकार का विश्वास गुरु के वचनों में होना चाहिये।
इच्छा के त्याग के ही सर्व त्याग हो जाता है।
चिन्ता करने से अमूल्य पदार्थ नाश हो जाता है और भी बहुत नुकसान है, अतएव ‘यदृच्छालाभ-सन्तुष्ट’ के सिद्धान्त के अनुसार जो कुछ हो उसी में आनन्द मानना चाहिये।
।।ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।
शास्त्रों का अवलोकन और महापुरुषों के वचनों का श्रवण करके मैं इस निर्णय
पर पहुँचा कि संसार में श्रीमद्भागवद्गीता के समान कल्याण के लिये कोई भी
उपयोगी ग्रन्थ नही है। गीता में ज्ञानयोग, ध्यानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग
आदि जितने ही साधन बतलाये गये हैं, उनमें से कोई भी साधन अपनी श्रद्धा,
रुचि और योग्यता के अनुसार करने से मनुष्य का शीघ्र कल्याण हो सकता है।
अतएव उपर्युक्त साधनों का तथा परमात्मा का तत्त्व रहस्य कल्याण जानने के लिये महापुरुषों का और उनके आभाव में उच्चकोटि के साधकों का श्रद्धा, प्रेमपूर्वक संग करने की विशेष चेष्टा रखते हुए गीता का अर्थ और भाव सहित मनन करने तथा उसके अनुसार अपना जीवन बनाने के लिये प्राण पर्यन्त प्रयत्न करना चाहिये।
अतएव उपर्युक्त साधनों का तथा परमात्मा का तत्त्व रहस्य कल्याण जानने के लिये महापुरुषों का और उनके आभाव में उच्चकोटि के साधकों का श्रद्धा, प्रेमपूर्वक संग करने की विशेष चेष्टा रखते हुए गीता का अर्थ और भाव सहित मनन करने तथा उसके अनुसार अपना जीवन बनाने के लिये प्राण पर्यन्त प्रयत्न करना चाहिये।
निवेदक
जयदयाल गोयन्दका
जयदयाल गोयन्दका
।।ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।
छ: प्रकार की महत्त्वपूर्ण चार-चार बातें
चार प्रकार के मनुष्य
संसार में चार प्रकार के मनुष्य होते हैं- उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ और नीच।
1. उत्तम मनुष्य वे हैं, जो अपने साथ बुराई करने वालों के प्रति भी बुराई न करके सदा भलाई ही करते हैं। ये मनुष्य प्रथम श्रेणी के हैं।
2. दूसरी श्रेणी के मनुष्य वे हैं, जो अपने प्रति बुराई करनेवालों के साथ न तो भलाई करते हैं और न बुराई ही। उसका निश्चय होता है कि हमारा जो कुछ अनिष्ट हुआ है या हो रहा है, इसमें प्रारब्ध ही कारण है। किसी का कोई दोष नहीं। वे तो बेचारे केवल निमित्तमात्र हैं।
3. तीसरी श्रेणी के वे कनिष्ठ मनुष्य हैं, जो अपने प्रति बुराई करने वालों के साथ बुराई करते हैं और उनसे बदला लेने का प्रयत्न करते हैं।
इस प्रतिहिंसापरायण लोगों में चार प्रकार होते हैं। प्रथम, जो बुराई करनेवालों के साथ बदले में तुरन्त उतनी ही या उससे न्यूनानिक बुराई करके बदला ले लेते हैं। द्वितीय, जो अनिष्ट करने वालों के साथ स्वयं अनिष्ट न करके अदालत में दावा कर देते हैं। तृतीय, जो अदालत में न जाकर पंचों के द्वारा दण्ड दिलवाते हैं और चतुर्थ, पंचों से कुछ भी न कहकर अनिष्ट करने वाले को समुचित दण्ड मिले, इसके लिये परमात्मा से प्रार्थना करते हैं। ये चारों ही कनिष्ठ श्रेणी के मनुष्य होते हैं।
4. चतुर्थ श्रेणी के नीच मनुष्य वे हैं, जो भलाई करने वालों के साथ भी बुराई ही किया करते हैं। ऐसे लोगों के द्वारा किसी का भला होना सम्भव नहीं।
उपर्युक्त चारों श्रेणियों के मनुष्यों के साथ अपना भला चाहनेवाले पुरुष को सदा सद्व्यवहार ही करना चाहिये।
1. उत्तम मनुष्य वे हैं, जो अपने साथ बुराई करने वालों के प्रति भी बुराई न करके सदा भलाई ही करते हैं। ये मनुष्य प्रथम श्रेणी के हैं।
2. दूसरी श्रेणी के मनुष्य वे हैं, जो अपने प्रति बुराई करनेवालों के साथ न तो भलाई करते हैं और न बुराई ही। उसका निश्चय होता है कि हमारा जो कुछ अनिष्ट हुआ है या हो रहा है, इसमें प्रारब्ध ही कारण है। किसी का कोई दोष नहीं। वे तो बेचारे केवल निमित्तमात्र हैं।
3. तीसरी श्रेणी के वे कनिष्ठ मनुष्य हैं, जो अपने प्रति बुराई करने वालों के साथ बुराई करते हैं और उनसे बदला लेने का प्रयत्न करते हैं।
इस प्रतिहिंसापरायण लोगों में चार प्रकार होते हैं। प्रथम, जो बुराई करनेवालों के साथ बदले में तुरन्त उतनी ही या उससे न्यूनानिक बुराई करके बदला ले लेते हैं। द्वितीय, जो अनिष्ट करने वालों के साथ स्वयं अनिष्ट न करके अदालत में दावा कर देते हैं। तृतीय, जो अदालत में न जाकर पंचों के द्वारा दण्ड दिलवाते हैं और चतुर्थ, पंचों से कुछ भी न कहकर अनिष्ट करने वाले को समुचित दण्ड मिले, इसके लिये परमात्मा से प्रार्थना करते हैं। ये चारों ही कनिष्ठ श्रेणी के मनुष्य होते हैं।
4. चतुर्थ श्रेणी के नीच मनुष्य वे हैं, जो भलाई करने वालों के साथ भी बुराई ही किया करते हैं। ऐसे लोगों के द्वारा किसी का भला होना सम्भव नहीं।
उपर्युक्त चारों श्रेणियों के मनुष्यों के साथ अपना भला चाहनेवाले पुरुष को सदा सद्व्यवहार ही करना चाहिये।
चार याद रखने और भूलने की बातें
चार बातों में दो सदा याद रखने की और दो सर्वथा भुला देने की।
याद रखने योग्य बातों में पहली बात है- (1) ‘किसी के द्वारा अपने प्रति किया गया कोई भी उपकार।’ दूसरे का उपकार याद रखने से उसके प्रति मन में पवित्र कृतज्ञता के भाव आते हैं, नम्रता आती है, उसके हित के विचार और कर्म होते हैं, जिससे हम उसके ऋण से मुक्त हो जाते हैं और परिणाम से हमारा हित एवं कल्याण होता है। दूसरी याद रखने-योग्य बात है- (2) ‘अपने द्वारा किया गया किसी का अपकार।’ इसकी स्मृति से चित्त में पश्चात्ताप होता है, दुबारा वैसी भूल न करने के लिए प्रेरणा मिलती है और उस व्यक्ति को सुख पहुँचाने वाले हितकारक विचार और कार्य करके उससे और परमात्मा से क्षमा प्राप्त करने का प्रयत्न होता है। यही इसका प्रायश्चित है, इससे पाप का नाश होकर कल्याण की प्राप्ति होती है।
भूलने योग्य दो बातों में पहली बात है- (1) ‘अपने द्वारा किया गया किसी का उपकार।’ इसी स्मृति से चित्त में अभिमान उत्पन्न होता है, ‘मैं उपकारक हूँ’ और ‘वह उपकार प्राप्त करनेवाला है।’ इस प्रकार अपने में श्रेष्ठ-बुद्धि और उसमें हीनबुद्धि होती है, जिससे उसके तिरस्कार की आशंका रहती है; और यदि कभी उसके आचरण में कृतज्ञता नहीं दीखती तो अपने मन में दु:ख और उसके प्रति रोष भी हो सकता है। साथ ही उपकार की स्मृति यदि प्रमादवश कहीं उसे लोगों में कहलवा देती है तो उस उपकार का पुण्य नष्ट हो जाता है। अतएव अभिमान से बचने और पुण्य की रक्षा करने के लिये उसे भुला देना चाहिये।
याद रखने योग्य बातों में पहली बात है- (1) ‘किसी के द्वारा अपने प्रति किया गया कोई भी उपकार।’ दूसरे का उपकार याद रखने से उसके प्रति मन में पवित्र कृतज्ञता के भाव आते हैं, नम्रता आती है, उसके हित के विचार और कर्म होते हैं, जिससे हम उसके ऋण से मुक्त हो जाते हैं और परिणाम से हमारा हित एवं कल्याण होता है। दूसरी याद रखने-योग्य बात है- (2) ‘अपने द्वारा किया गया किसी का अपकार।’ इसकी स्मृति से चित्त में पश्चात्ताप होता है, दुबारा वैसी भूल न करने के लिए प्रेरणा मिलती है और उस व्यक्ति को सुख पहुँचाने वाले हितकारक विचार और कार्य करके उससे और परमात्मा से क्षमा प्राप्त करने का प्रयत्न होता है। यही इसका प्रायश्चित है, इससे पाप का नाश होकर कल्याण की प्राप्ति होती है।
भूलने योग्य दो बातों में पहली बात है- (1) ‘अपने द्वारा किया गया किसी का उपकार।’ इसी स्मृति से चित्त में अभिमान उत्पन्न होता है, ‘मैं उपकारक हूँ’ और ‘वह उपकार प्राप्त करनेवाला है।’ इस प्रकार अपने में श्रेष्ठ-बुद्धि और उसमें हीनबुद्धि होती है, जिससे उसके तिरस्कार की आशंका रहती है; और यदि कभी उसके आचरण में कृतज्ञता नहीं दीखती तो अपने मन में दु:ख और उसके प्रति रोष भी हो सकता है। साथ ही उपकार की स्मृति यदि प्रमादवश कहीं उसे लोगों में कहलवा देती है तो उस उपकार का पुण्य नष्ट हो जाता है। अतएव अभिमान से बचने और पुण्य की रक्षा करने के लिये उसे भुला देना चाहिये।
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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