गीता प्रेस, गोरखपुर >> कर्म रहस्य कर्म रहस्यस्वामी रामसुखदास
|
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प्रस्तुत है कर्म-रहस्य....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।। श्रीहरि: ।।
निवेदन
वर्तमान समय में ‘कर्म’ संबंधी कई भ्रम लोगों में फैले हुए
हैं। इसलिये इसको समझने की वर्तमान में बड़ी आवश्यकता है। हमारे परम
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजने श्रीमद्भगवद्गीता की
‘साधक-संजीवनी’ हिन्दी-टीका में इसका बड़े सुन्दर और सरल ढंग
से विवेचन किया है। उसी को इस पुस्तक के रूप में अलग से प्रकाशित किया जा
रहा है। प्रत्येक भाई-बहन को यह पुस्तक स्वयं भी पढ़नी चाहिये तथा दूसरों
को भी पढ़ने के लिये प्रेरित करना चाहिये। इस पुस्तक के पढ़ने से कर्म से
संबंधित अनेक शंकाओं का समाधान हो सकता है।
प्रकाशक
।। ॐ श्रीपरमात्मने नम: ।।
कर्म-रहस्य
पुरुष और प्रकृति-ये दो हैं। इनमें से पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता।
जब यह पुरुष प्रकृति के साथ संबंध जोड़ लेता है, तब प्रकृति की क्रिया
पुरुष का ‘कर्म’ बन जाती है; क्योंकि प्रकृति के साथ संबंध
मानने से तादात्म्य हो जाता है। तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुएँ
प्राप्त हैं, उनमें ममता होती है और ममता के कारण अप्राप्त वस्तुओं की
कामना होती है। इस प्रकार जब तक कामना, ममता और तादात्म्य रहता है, तब तक
जो कुछ परिवर्तनरूप क्रिया होती है, उसका नाम ‘कर्म’ है।
तादात्म्य टूटने पर वही कर्म पुरुष के लिये ‘अकर्म’ हो जाता है अर्थात् वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है, उसमें फलजनकता नहीं रहती-यह ‘कर्म में अकर्म’ है। अकर्म-अवस्था में अर्थात् स्वरूप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है, वह ‘अकर्म में कर्म’ है।* तात्पर्य यह हुआ कि अपने निर्लिप्त स्वरूप का अनुभव न होने पर भी वास्तव में सब क्रियाएँ प्रकृति और उसके शरीर में होती हैं; परन्तु प्रकृति या शरीर से अपनी पृथकता का अनुभव न होने से वे क्रियाएँ ‘कर्म’ बन जाती हैं।
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तादात्म्य टूटने पर वही कर्म पुरुष के लिये ‘अकर्म’ हो जाता है अर्थात् वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है, उसमें फलजनकता नहीं रहती-यह ‘कर्म में अकर्म’ है। अकर्म-अवस्था में अर्थात् स्वरूप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है, वह ‘अकर्म में कर्म’ है।* तात्पर्य यह हुआ कि अपने निर्लिप्त स्वरूप का अनुभव न होने पर भी वास्तव में सब क्रियाएँ प्रकृति और उसके शरीर में होती हैं; परन्तु प्रकृति या शरीर से अपनी पृथकता का अनुभव न होने से वे क्रियाएँ ‘कर्म’ बन जाती हैं।
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कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत।।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत।।
(गीता 4। 18)
कर्म तीन तरह के होते हैं-क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। अभी वर्तमान में
जो कर्म किये जाते हैं, वे ‘क्रियमाण’ क्रम कहलाते हैं।**
वर्तमान से पहले इस जन्म में किये हुए अथवा पहले के अनेक मनुष्य जन्मों
में किये हुए जो कर्म संग्रहीत हैं, वे ‘संचित’ कर्म कहलाते
हैं। संचित में से जो फल देने के लिये प्रस्तुत (उन्मुख) हो गये हैं
अर्थात् जन्म, आयु और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में परिणत होने के
लिये सामने आ गये हैं, वे ‘प्रारब्ध’ कर्म कहलाते हैं।
1.क्रियमाण कर्म
(I) फल-अंश
(A) दृष्ट
(i) तात्कालिक
(ii) कालान्तरिक
(B) अदृष्ट
(i) लौकिक
(ii) पारलौकिक
(II) संस्कार-अंश
(A) शुद्ध
(B) अशुद्ध
क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं-शुभ और अशुभ। जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधान से किये जाते हैं, वे शुभ कर्म
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1.क्रियमाण कर्म
(I) फल-अंश
(A) दृष्ट
(i) तात्कालिक
(ii) कालान्तरिक
(B) अदृष्ट
(i) लौकिक
(ii) पारलौकिक
(II) संस्कार-अंश
(A) शुद्ध
(B) अशुद्ध
क्रियमाण कर्म दो तरह के होते हैं-शुभ और अशुभ। जो कर्म शास्त्रानुसार विधि-विधान से किये जाते हैं, वे शुभ कर्म
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* प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।
(गीता 3/27)
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।।
(गीता 13/29)
**जो भी नये कर्म और उनके संस्कार बनते हैं, वे सब केवल मनुष्य जन्म में
ही बनते हैं (गीता 4/12; 15। 2), पशु-पक्षी आदि योनियों में नहीं; क्योंकि
वे योनियाँ केवल कर्मफल-भोग के लिये ही मिलती हैं।
कहलाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति आदि को लेकर जो शास्त्र-निषिद्ध क्रम किये जाते हैं, वे अशुभ कर्म कहलाते हैं।
शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्मका एक तो फल-अंश बनता है और एक संस्कार-अंश। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
क्रियमाण कर्म के फल-अंश के दो भेद हैं-दृष्ट और अदृष्ट। इनमें से दृष्ट के भी दो भेद होते हैं- तात्कालिक और कालान्तरिक जैसे, भोजन करते हुए जो रस आता है, सुख होता है, प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है-यह दृष्ट का ‘तात्कालिक’ फल है और भोजन के परिणाम में आयु, बल, आरोग्य आदि का बढ़ना-यह दृष्ट का ‘कालान्तरिक’ फल है। ऐसे ही जिसका अधिक मिर्च खाने का स्वभाव है, वह जब अधिक मिर्च वाले पदार्थ खाता है, तब उसको प्रसन्नता होती है, सुख होता है और मिर्च की तीक्ष्णता के कारण मुँह में, जीभ में जलन होती है, आँखों से और नाक से पानी निकलता है, सिर से पसीना निकलता है-यह दृष्ट का ‘तात्कालिक’ फल है और कुपथ्य के कारण परिणाम में पेट में जलन और रोग, दु:ख आदि का होना-यह दृष्ट का ‘कालान्तरिक’ फल है।
इसी प्रकार अदृष्ट के भी दो भेद होते हैं-लौकिक और पारलौकिक। जीते-जी ही फल मिल जाय-इस भाव से यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, मन्त्र-जप आदि शुभ कर्मों को विधि-विधान से किया जाय और उसका कोई प्रबल प्रतिबन्ध न हो तो यहाँ ही पुत्र, धन, यश, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल की प्राप्ति होना और रोग-निर्धनता आदि प्रतिकूल की निवृत्ति होना-यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है* और मरने के बाद स्वर्ग आदि की प्राप्ति हो जाय-इस भाव से यथार्थ विधि-विधान और श्रद्धा-विश्वास-पूर्वक जो यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म किये जायँ तो मरने के बाद स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होना-यह अदृष्ट का ‘पारलौकिक’ फल है। ऐसे ही डाका डालने, चोरी करने, मनुष्य की हत्या करने आदि अशुभ कर्मों का फल यहाँ ही कैद, जुर्माना, फाँसी आदि होना-यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है और पापों के कारण मरने के बाद नरकों में जाना और पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि बनना-यह अदृष्ट का ‘पारलौकिक’ फल है।
पाप-पुण्य के इस लौकिक और पारलौकिक फल के विषय में एक बात और समझने की है कि जिन पाप कर्मों का फल यहीं कैद, जुर्माना, अपमान, निन्दा आदि के रूप में भोग लिया है, उन पापों का फल मरने के बाद भोगना नहीं पड़ेगा। परन्तु व्यक्ति के पाप कितनी मात्रा के थे और उनका भोग कितनी मात्रा में हुआ अर्थात् उन पाप-कर्मों का फल उसने पूरा भोगा या अधूरा भोगा-इसका पूरा पता मनुष्य को नहीं लगता; क्योंकि मनुष्य के पास इसका कोई माप-तौल नहीं है। परन्तु भगवान् को इस का पूरा पता है; अत: उनके कानून के अनुसार उन पापों का फल यहाँ जितने अंश में कम भोगा गया है, उतना इस जन्म में या मरने के बाद भोगना ही पड़ेगा। इसलिए मनुष्य को ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये।
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• यहाँ दृष्ट का ‘कालान्तरिक’ फल और अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल-दोनों फल एक समान ही दीखते हैं, फिर भी दोनों में अन्तर है। जो ‘कालान्तरिक’ फल है, वह सीधे मिलता है, प्रारब्ध बनकर नहीं; परन्तु जो ‘लौकिक’ फल है, वह प्रारब्ध बनकर ही मिलता है।
कहलाते हैं और काम, क्रोध, लोभ, आसक्ति आदि को लेकर जो शास्त्र-निषिद्ध क्रम किये जाते हैं, वे अशुभ कर्म कहलाते हैं।
शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्मका एक तो फल-अंश बनता है और एक संस्कार-अंश। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
क्रियमाण कर्म के फल-अंश के दो भेद हैं-दृष्ट और अदृष्ट। इनमें से दृष्ट के भी दो भेद होते हैं- तात्कालिक और कालान्तरिक जैसे, भोजन करते हुए जो रस आता है, सुख होता है, प्रसन्नता होती है और तृप्ति होती है-यह दृष्ट का ‘तात्कालिक’ फल है और भोजन के परिणाम में आयु, बल, आरोग्य आदि का बढ़ना-यह दृष्ट का ‘कालान्तरिक’ फल है। ऐसे ही जिसका अधिक मिर्च खाने का स्वभाव है, वह जब अधिक मिर्च वाले पदार्थ खाता है, तब उसको प्रसन्नता होती है, सुख होता है और मिर्च की तीक्ष्णता के कारण मुँह में, जीभ में जलन होती है, आँखों से और नाक से पानी निकलता है, सिर से पसीना निकलता है-यह दृष्ट का ‘तात्कालिक’ फल है और कुपथ्य के कारण परिणाम में पेट में जलन और रोग, दु:ख आदि का होना-यह दृष्ट का ‘कालान्तरिक’ फल है।
इसी प्रकार अदृष्ट के भी दो भेद होते हैं-लौकिक और पारलौकिक। जीते-जी ही फल मिल जाय-इस भाव से यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, मन्त्र-जप आदि शुभ कर्मों को विधि-विधान से किया जाय और उसका कोई प्रबल प्रतिबन्ध न हो तो यहाँ ही पुत्र, धन, यश, प्रतिष्ठा आदि अनुकूल की प्राप्ति होना और रोग-निर्धनता आदि प्रतिकूल की निवृत्ति होना-यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है* और मरने के बाद स्वर्ग आदि की प्राप्ति हो जाय-इस भाव से यथार्थ विधि-विधान और श्रद्धा-विश्वास-पूर्वक जो यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म किये जायँ तो मरने के बाद स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होना-यह अदृष्ट का ‘पारलौकिक’ फल है। ऐसे ही डाका डालने, चोरी करने, मनुष्य की हत्या करने आदि अशुभ कर्मों का फल यहाँ ही कैद, जुर्माना, फाँसी आदि होना-यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है और पापों के कारण मरने के बाद नरकों में जाना और पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि बनना-यह अदृष्ट का ‘पारलौकिक’ फल है।
पाप-पुण्य के इस लौकिक और पारलौकिक फल के विषय में एक बात और समझने की है कि जिन पाप कर्मों का फल यहीं कैद, जुर्माना, अपमान, निन्दा आदि के रूप में भोग लिया है, उन पापों का फल मरने के बाद भोगना नहीं पड़ेगा। परन्तु व्यक्ति के पाप कितनी मात्रा के थे और उनका भोग कितनी मात्रा में हुआ अर्थात् उन पाप-कर्मों का फल उसने पूरा भोगा या अधूरा भोगा-इसका पूरा पता मनुष्य को नहीं लगता; क्योंकि मनुष्य के पास इसका कोई माप-तौल नहीं है। परन्तु भगवान् को इस का पूरा पता है; अत: उनके कानून के अनुसार उन पापों का फल यहाँ जितने अंश में कम भोगा गया है, उतना इस जन्म में या मरने के बाद भोगना ही पड़ेगा। इसलिए मनुष्य को ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये।
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• यहाँ दृष्ट का ‘कालान्तरिक’ फल और अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल-दोनों फल एक समान ही दीखते हैं, फिर भी दोनों में अन्तर है। जो ‘कालान्तरिक’ फल है, वह सीधे मिलता है, प्रारब्ध बनकर नहीं; परन्तु जो ‘लौकिक’ फल है, वह प्रारब्ध बनकर ही मिलता है।
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