गीता प्रेस, गोरखपुर >> शरणागति शरणागतिस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है शरणागति....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
हमारे श्रद्धेय एवं गीताप्रेमी भाई-बहनों के सुपरिचित स्वामीजी
श्रीरामसुखदासजी महाराज ने श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय का बहुत
सुन्दर विवेचन किया है, जिसे ‘गीताका सार’
नामक पुस्तक
के रूप में प्रकाशित किया गया है। गीता का सार अठारहवाँ अध्याय है और
अठारहवें अध्याय का भी सार उसका 66 वाँ श्लोक है। इस श्लोक में भगवान् ने
सम्पूर्ण धर्मों का त्याग करके अपनी शरण में आने की आज्ञा दी, जिसे अर्जुन
ने ‘करिष्ये वचनं तव’ कहकर स्वीकार किया और अपने
क्षात्र-धर्म
के अनुसार युद्ध भी किया। यहाँ जिज्ञासा होती है कि सम्पूर्ण धर्मों का
त्याग करने की जो बात भगवान् ने कही है, उसका तात्पर्य क्या है ? इस
जिज्ञासा की पूर्ति इस श्लोक का विवेचन पढ़ने से हो जाती है।
दूसरी बात, जब अर्जुन ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (गीता 2/7) कहकर भगवान् की शरण हुए तो उस शरणागति में कुछ कमी रही। उस कमी की पूर्ति अठारहवें अध्याय के 66वें श्लोक में हुई। इसलिये इस श्लोक के विवेचन में भगवत्-शरणागत और शरणागत भक्त के विषय में बहुत विशेष बातें आयी हैं।
उपर्युक्त बातों को दृष्टि में रखते हुए ‘गीता का सार’ पुस्तक में आये 66वें श्लोक का विवेचन साधकों के लाभ के लिये अलग से प्रकाशित किया जा रहा है। इसके अनुसार साधक अपना जीवन बना ले तो उसका कल्याण निश्चित है; क्योंकि शरणागत के कल्याण का भार (जिम्मेवारी) भगवान् अपने पर लेते हैं। इसीलिए भगवान् ने इस श्लोक में आश्वासन दिया है कि ‘मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर।’
पाठकों से विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तक को ध्यानपूर्वक पढ़ें और तदनुसार अपना जीवन बनायें।
दूसरी बात, जब अर्जुन ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (गीता 2/7) कहकर भगवान् की शरण हुए तो उस शरणागति में कुछ कमी रही। उस कमी की पूर्ति अठारहवें अध्याय के 66वें श्लोक में हुई। इसलिये इस श्लोक के विवेचन में भगवत्-शरणागत और शरणागत भक्त के विषय में बहुत विशेष बातें आयी हैं।
उपर्युक्त बातों को दृष्टि में रखते हुए ‘गीता का सार’ पुस्तक में आये 66वें श्लोक का विवेचन साधकों के लाभ के लिये अलग से प्रकाशित किया जा रहा है। इसके अनुसार साधक अपना जीवन बना ले तो उसका कल्याण निश्चित है; क्योंकि शरणागत के कल्याण का भार (जिम्मेवारी) भगवान् अपने पर लेते हैं। इसीलिए भगवान् ने इस श्लोक में आश्वासन दिया है कि ‘मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता मत कर।’
पाठकों से विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तक को ध्यानपूर्वक पढ़ें और तदनुसार अपना जीवन बनायें।
प्रकाशक
शरणागति
(श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय के 66वें श्लोक का विस्तृत विवेचन)
न विद्या येषां श्रीर्न शरणमपीषन्न च गुणाः
परित्यक्ता लोकैरपि वृजिनयुक्ताः श्रुतिजडाः।
शरण्यं यं तेऽपि प्रसृतगुणमाश्रित्य सुजना
विमुक्तास्तं वन्दे यदुपतिमहं कृष्णममलम्।।
परित्यक्ता लोकैरपि वृजिनयुक्ताः श्रुतिजडाः।
शरण्यं यं तेऽपि प्रसृतगुणमाश्रित्य सुजना
विमुक्तास्तं वन्दे यदुपतिमहं कृष्णममलम्।।
‘जिनके पास न विद्या है, न धन है, न कोई सहारा है; जिनमें न कोई
गुण
है, न वेद-शास्त्रों का ज्ञान है; जिनको संसार के लोगों ने पापी समझकर
त्याग दिया है, ऐसे प्राणी भी जिन शरणागतपालक प्रभुकी शरण लेकर संत बन
जाते और मुक्त हो जाते हैं, उन विश्वविख्यात गुणोंवाले अमलात्मा यदुनाथ
श्रीकृष्णभगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ।’
श्लोक-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।66।।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।66।।
‘सम्पूर्ण धर्मों के आश्रयका त्याग करके एक मेरी शरण में आ जा।
मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर।’
व्याख्या —
‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं
व्रज’—भगवान् कहते
हैं कि सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय, धर्म के निर्णय का विचार छोड़कर अर्थात्
क्या करना है और क्या नहीं करना है—इसको छोड़कर केवल एक मेरी ही
शरण
में आ जा।
स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना—यह सम्पूर्ण साधनों का सार है। इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे—पतिव्रता का अपना कोई काम नहीं रहता। वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के नाते, पति के लिये ही करती है। वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती, प्रत्युत पतिदेव का मानती है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार पतिव्रता पति के परायण होकर पति के गोत्र में ही अपना गोत्र मिला देती है और पति के ही घर पर रहती है, उसी प्रकार शरणागत भक्त भी शरीर को लेकर माने जाने वाले गोत्र, जाति, नाम आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है।
गीताके अनुसार यहाँ ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य-कर्म का वाचक है। कारण कि इसी अध्याय के इकतालीसवें से चौवालीसवें श्लोकतक ‘स्वभावजं कर्म’ पद आये हैं, फिर सैंतालीसवें श्लोक के पूर्वार्ध्द में ‘स्वधर्म’ पद आया है। उसके बाद, सैंतालीसवें श्लोकके ही उत्तरार्ध में तथा (प्रकरण के अन्त में) अड़तालीसवें श्लोक में ‘कर्म’ पद आया है । उसके बाद, सैंतालीसवें श्लोक के ही उत्तरार्ध्द में तथा (प्रकरण के अन्त में) अड़तालीसवें श्लोक में ‘कर्म’ पद आया है। तात्पर्य यह हुआ कि आदि और अन्तमें ‘कर्म’ पद आया है और बीचमें ‘स्वधर्म’ पद आया है तो इससे स्वतः ही ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य-कर्म का वाचक सिद्ध हो जाता है।
अब यहाँ प्रश्न यह होता है कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ पद से क्या धर्म अर्थात् कर्तव्य-कर्मका स्वरूप से त्याग माना जाय ? इसका उत्तर यह है कि धर्म का स्वरूप से त्याग करना न तो गीता के अनुसार ठीक है और न यहाँ के प्रसंग के अनुसार ही ठीक है; क्योंकि भगवान् की यह बात सुनकर अर्जुन ने कर्तव्य-कर्म का त्याग नहीं किया है, प्रत्युत ‘करिष्ये वचनं तव’ (18/73) कहकर भगवान की आज्ञा के अनुसार कर्तव्य-कर्म का पालन करना स्वीकार किया है। केवल स्वीकार ही नहीं किया है, प्रत्युत अपने क्षात्र-धर्म के अनुसार युद्ध भी किया है। अतः उपर्युक्त पदमें धर्म अर्थात् कर्तव्य का त्याग करने की बात नहीं है। भगवान् भी कर्तव्य के त्याग की बात कैसे कह सकते हैं ? भगवान् ने इसी अध्याय के छठे श्लोक में कहा है कि यज्ञ, दान, तप और अपने-अपने वर्ण-आश्रमों के जो कर्तव्य हैं, उनका कभी त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको जरूर करना चाहिये।
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तीसरे अध्याय में तो भगवान् ने कर्तव्य-कर्म को न छोड़ने के लिये प्रकरण –का-प्रकरण ही कहा है—कर्मों को त्यागने से न तो निष्कर्मता की प्राप्ति होती है और न सिद्धि ही होती है (3/4); कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता (3/5); जो बाहर से कर्मों को त्यागकर भीतरसे विषयों का चिन्तन करता है, वह मिथ्याचारी है (3/6); जो मन-इन्द्रियों को वश में करके कर्तव्य-कर्म करता है वही श्रेष्ठ है (3/7); कर्म किये बिना शरीर का निर्वाह भी नहीं होता, इस वास्ते कर्म करना चाहिये (3/7); कर्म किये बिना शरीर का निर्वाह भी नहीं होता, इस वास्ते कर्म करना चाहिये (3/8); ‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’—इस बन्धन के भय से भी कर्मों का त्याग करना उचित नहीं है; क्योंकि केवल कर्तव्य-पालन के लिये कर्म करना बन्धनकारक नहीं है, प्रत्युत कर्तव्य-कर्मकी परम्परा सुरक्षित रखने के सिवाय अपने लिये कुछ भी कर्म करना ही बन्धनकार है (3/9); ब्रह्माजी ने कर्तव्यसहित प्रजाकी रचना करके कहा कि इस कर्तव्य-कर्म से ही तुमलोगों की वृद्धि होगी और यही कर्तव्य-कर्म तुमलोगों को कर्तव्य-सामग्री देने वाला होगा (3/10) मनुष्य और देवतादोनों ही कर्तव्य का पालन करते हुए कल्याण को प्राप्त होंगे (3/11); जो कर्तव्य का पालन किये बिना प्राप्त सामग्री का उपभोग करता है, वह चोर है (3/12); कर्तव्य-कर्म करके अपना निर्वाह करनेवाला सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
स्वयं भगवान् के शरणागत हो जाना—यह सम्पूर्ण साधनों का सार है। इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे—पतिव्रता का अपना कोई काम नहीं रहता। वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के नाते, पति के लिये ही करती है। वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती, प्रत्युत पतिदेव का मानती है। तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार पतिव्रता पति के परायण होकर पति के गोत्र में ही अपना गोत्र मिला देती है और पति के ही घर पर रहती है, उसी प्रकार शरणागत भक्त भी शरीर को लेकर माने जाने वाले गोत्र, जाति, नाम आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है।
गीताके अनुसार यहाँ ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य-कर्म का वाचक है। कारण कि इसी अध्याय के इकतालीसवें से चौवालीसवें श्लोकतक ‘स्वभावजं कर्म’ पद आये हैं, फिर सैंतालीसवें श्लोक के पूर्वार्ध्द में ‘स्वधर्म’ पद आया है। उसके बाद, सैंतालीसवें श्लोकके ही उत्तरार्ध में तथा (प्रकरण के अन्त में) अड़तालीसवें श्लोक में ‘कर्म’ पद आया है । उसके बाद, सैंतालीसवें श्लोक के ही उत्तरार्ध्द में तथा (प्रकरण के अन्त में) अड़तालीसवें श्लोक में ‘कर्म’ पद आया है। तात्पर्य यह हुआ कि आदि और अन्तमें ‘कर्म’ पद आया है और बीचमें ‘स्वधर्म’ पद आया है तो इससे स्वतः ही ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य-कर्म का वाचक सिद्ध हो जाता है।
अब यहाँ प्रश्न यह होता है कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ पद से क्या धर्म अर्थात् कर्तव्य-कर्मका स्वरूप से त्याग माना जाय ? इसका उत्तर यह है कि धर्म का स्वरूप से त्याग करना न तो गीता के अनुसार ठीक है और न यहाँ के प्रसंग के अनुसार ही ठीक है; क्योंकि भगवान् की यह बात सुनकर अर्जुन ने कर्तव्य-कर्म का त्याग नहीं किया है, प्रत्युत ‘करिष्ये वचनं तव’ (18/73) कहकर भगवान की आज्ञा के अनुसार कर्तव्य-कर्म का पालन करना स्वीकार किया है। केवल स्वीकार ही नहीं किया है, प्रत्युत अपने क्षात्र-धर्म के अनुसार युद्ध भी किया है। अतः उपर्युक्त पदमें धर्म अर्थात् कर्तव्य का त्याग करने की बात नहीं है। भगवान् भी कर्तव्य के त्याग की बात कैसे कह सकते हैं ? भगवान् ने इसी अध्याय के छठे श्लोक में कहा है कि यज्ञ, दान, तप और अपने-अपने वर्ण-आश्रमों के जो कर्तव्य हैं, उनका कभी त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको जरूर करना चाहिये।
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तीसरे अध्याय में तो भगवान् ने कर्तव्य-कर्म को न छोड़ने के लिये प्रकरण –का-प्रकरण ही कहा है—कर्मों को त्यागने से न तो निष्कर्मता की प्राप्ति होती है और न सिद्धि ही होती है (3/4); कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता (3/5); जो बाहर से कर्मों को त्यागकर भीतरसे विषयों का चिन्तन करता है, वह मिथ्याचारी है (3/6); जो मन-इन्द्रियों को वश में करके कर्तव्य-कर्म करता है वही श्रेष्ठ है (3/7); कर्म किये बिना शरीर का निर्वाह भी नहीं होता, इस वास्ते कर्म करना चाहिये (3/7); कर्म किये बिना शरीर का निर्वाह भी नहीं होता, इस वास्ते कर्म करना चाहिये (3/8); ‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’—इस बन्धन के भय से भी कर्मों का त्याग करना उचित नहीं है; क्योंकि केवल कर्तव्य-पालन के लिये कर्म करना बन्धनकारक नहीं है, प्रत्युत कर्तव्य-कर्मकी परम्परा सुरक्षित रखने के सिवाय अपने लिये कुछ भी कर्म करना ही बन्धनकार है (3/9); ब्रह्माजी ने कर्तव्यसहित प्रजाकी रचना करके कहा कि इस कर्तव्य-कर्म से ही तुमलोगों की वृद्धि होगी और यही कर्तव्य-कर्म तुमलोगों को कर्तव्य-सामग्री देने वाला होगा (3/10) मनुष्य और देवतादोनों ही कर्तव्य का पालन करते हुए कल्याण को प्राप्त होंगे (3/11); जो कर्तव्य का पालन किये बिना प्राप्त सामग्री का उपभोग करता है, वह चोर है (3/12); कर्तव्य-कर्म करके अपना निर्वाह करनेवाला सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।
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