गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
मनुष्य-जन्म का एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। उस उद्देश्य की
पूर्ति के लिये सत्संग, भगवद्भजन, निष्काम सेवा सरल साधन है। इन बातों को
जीवन में कैसे लाया जाय ? इनका क्या महत्त्व है ? श्रद्धेय जयदयालजी
गोयन्दका स्वर्गाश्रम में वटवृक्ष के नीचे तथा गीताभवन ऋषिकेश में
गीष्मऋतु में 3-4 महीनों के लिये सत्संग का आयोजन करके विशेष रूप से इन
विषयों पर प्रवचन किया करते थे। उनका भाव था कि सभी भाई लोग जो यहाँ आये
हैं अपना कल्याण करके ही जायँ। वे भजन, ध्यान, सेवा को ही आदर देते थे।
सादी वेशभूषा, सादा भोजन, संयमित जीवन बिताने के लिये उनके प्रवचनों में
विशेष प्रेरणा होती थी। सन् 1941 के आसपास उन्होंने जो प्रवचन दिये थे,
उन्हें किसी सज्जन ने नोट कर लिया था। सरल भाषा में अमूल्य बातें हमें
जीवन में लाने के लिये मिल जायँ, इस विचार से उन प्रवचनों को पुस्तक का
रूप दिया जा रहा है।
हमें आशा है कि भगवत्प्राप्ति के इच्छुक भाई-बहन इस पुस्तक से लाभ उठायेंगे और अन्य भाई-बहनों को पढ़ने की प्रेरणा देंगे।
हमें आशा है कि भगवत्प्राप्ति के इच्छुक भाई-बहन इस पुस्तक से लाभ उठायेंगे और अन्य भाई-बहनों को पढ़ने की प्रेरणा देंगे।
प्रकाशक
।।श्रीहरि:।।
भजन-ध्यान ही सार है
पूज्य मामा जी के साथ बनारस आने के लिये लिखा सो अवश्य आना चाहिये। तीर्थ
में समय बिताना चाहिये। अब रतन गढ़ में रहने में विशेष लाभ नहीं है, बनारस
में भजन-सत्संग में समय बिताना चाहिये।
समय बीता जा रहा है, चेतना चाहिये। पू. मामा जी के नित्य चरणस्पर्श करते होंगे। उनकी सेवा करने का भी अभ्यास विशेष रूप से डालना चाहिये तथा उनके वचनों का पालन विशेष रूप से करना चाहिये। उनके इच्छानुसार करना परम धर्म है, बाकी सब साधारण धर्म है। अब भजन-ध्यान के लिये विशेष समय बिताना चाहिये।
संसार के सारे काम तुमने कर लिये। अब तो परमार्थ में ही समय बिताना चाहिये ताकि फिर पश्चात्ताप नहीं करना पड़े। एकान्त में बैठकर नियमपूर्वक ध्यानसहित नामजप विशेष रूप से करना चाहिये। चलते-फिरते, उठते-बैठते हर समय नामजप करना चाहिये और मन से सर्वत्र भगवान् का दर्शन करना चाहिये। मन से भगवान् का ध्यान, पूजा, पाठ, भोग, आरती, प्रार्थना, स्तुति और निरन्तर जप करने का अभ्यास करना चाहिये। जिस प्रकार संसारी मनुष्य संसार का संकल्प करता है, उसी प्रकार तुम्हें भगवान् का संकल्प करना चाहिये। इस प्रकार करने से भगवान् का प्रभाव जानकर भगवान् में श्रद्धा-प्रेम बढ़कर साधन तेज हो सकता है और भगवान् का दर्शन होकर भगवान् की प्राप्ति हो सकती है, इसलिये इस काम को विशेष चेष्टा से कर्तव्य समझकर करना चाहिये।
आपने लिखा कि हमारे तो आपका ही भरोसा है। भगवान् के शरण होना चाहिये, उनका भरोसा रखना चाहिये। मैं तो एक साधारण मनुष्य हूँ। आपने लिखा कि मन वश में नहीं है, यदि मन को वश में करना हो तो गीता 6/35-36 की व्याख्या में गीता –तत्त्व विवेचनी में बहुत-सी बातें लिखी हैं, उसमें आपके जो अनुकूल पड़े उसका अभ्यास करना चाहिये। अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो सकता है। भगवान् के नाम का जप निरन्तर करने की चेष्टा करनी चाहिये, भगवान् की शरण होना चाहिये। गीता 2/7, 9/32-34 के अनुसार भगवान् की शरण होने से दीवाला मिट सकता है, अभ्यास तेज हो सकता है, भगवान् भी विशेष दया कर सकते हैं। मनुष्य की दया से कुछ भी काम नहीं चलता।
समय बीता जा रहा है, चेतना चाहिये। पू. मामा जी के नित्य चरणस्पर्श करते होंगे। उनकी सेवा करने का भी अभ्यास विशेष रूप से डालना चाहिये तथा उनके वचनों का पालन विशेष रूप से करना चाहिये। उनके इच्छानुसार करना परम धर्म है, बाकी सब साधारण धर्म है। अब भजन-ध्यान के लिये विशेष समय बिताना चाहिये।
संसार के सारे काम तुमने कर लिये। अब तो परमार्थ में ही समय बिताना चाहिये ताकि फिर पश्चात्ताप नहीं करना पड़े। एकान्त में बैठकर नियमपूर्वक ध्यानसहित नामजप विशेष रूप से करना चाहिये। चलते-फिरते, उठते-बैठते हर समय नामजप करना चाहिये और मन से सर्वत्र भगवान् का दर्शन करना चाहिये। मन से भगवान् का ध्यान, पूजा, पाठ, भोग, आरती, प्रार्थना, स्तुति और निरन्तर जप करने का अभ्यास करना चाहिये। जिस प्रकार संसारी मनुष्य संसार का संकल्प करता है, उसी प्रकार तुम्हें भगवान् का संकल्प करना चाहिये। इस प्रकार करने से भगवान् का प्रभाव जानकर भगवान् में श्रद्धा-प्रेम बढ़कर साधन तेज हो सकता है और भगवान् का दर्शन होकर भगवान् की प्राप्ति हो सकती है, इसलिये इस काम को विशेष चेष्टा से कर्तव्य समझकर करना चाहिये।
आपने लिखा कि हमारे तो आपका ही भरोसा है। भगवान् के शरण होना चाहिये, उनका भरोसा रखना चाहिये। मैं तो एक साधारण मनुष्य हूँ। आपने लिखा कि मन वश में नहीं है, यदि मन को वश में करना हो तो गीता 6/35-36 की व्याख्या में गीता –तत्त्व विवेचनी में बहुत-सी बातें लिखी हैं, उसमें आपके जो अनुकूल पड़े उसका अभ्यास करना चाहिये। अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो सकता है। भगवान् के नाम का जप निरन्तर करने की चेष्टा करनी चाहिये, भगवान् की शरण होना चाहिये। गीता 2/7, 9/32-34 के अनुसार भगवान् की शरण होने से दीवाला मिट सकता है, अभ्यास तेज हो सकता है, भगवान् भी विशेष दया कर सकते हैं। मनुष्य की दया से कुछ भी काम नहीं चलता।
श्रद्धा का महत्त्व
जिसे यह दृढ़ विश्वास या श्रद्धा हो जाय कि यहाँ भगवान् विद्यमान हैं,
उससे पाप नहीं हो सकता।
सर्वत:पाणिपादं तत्वर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वत:श्रुतिमल्लो के सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
सर्वत:श्रुतिमल्लो के सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
(गीता 13/13)
वह परमात्मा सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर
कानावाला है। क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है।
यहाँ सरकार के गुप्तचर हैं- यह विश्वास हो जाने पर सरकार के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती। इस प्रकार भगवान् सर्वत्र हैं यह विश्वास हो जाने पर भगवान् के विरुद्ध कोई काम नहीं होगा। इसी प्रकार महात्मा के विषय की बात है।
प्रश्न- श्रद्धा कैसे हो ?
उत्तर- श्रद्धा होने का पहला उपाय भगवान् से प्रार्थना करना तथा दूसरा उपाय आज्ञापालन है। शास्त्र के आज्ञा पालन से शास्त्र में श्रद्धा होती है।
बालक को पहले बिना इच्छा ही विद्यालय भेजते हैं, फिर उसकी रुचि हो जाती है। बाद में इतनी रुचि हो जाती है कि घरवालों के रोकने पर भी नहीं मानता, इसी प्रकार कोई भी काम हो, करने से श्रद्धा होती है। इसी प्रकार भजन करते-करते भजन में, महात्मा की आज्ञापालन करते-करते महात्मा में और सत्संग करते-करते सत्संग में श्रद्धा हो जाती है।
कर्तव्य-पालन करना ही अपना उद्देश्य बना ले, उसके फल की ओर नहीं देखे, चलता रहे। अपना जो ध्येय बना ले, कटिबद्ध होकर तत्परता से उसका पालन करे। अपनी ऊँची स्थिति हो तो उसकी ओर भी खयाल नहीं करे, स्वामी यदि नरक में भी डाल दें तो वह भी उत्तम है, उसमें भी अपनी प्रसन्नता ही रहे। श्रद्धा-प्रेम बढ़ने के लिये भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये। यह भी कामना ही है, परन्तु परमात्मा का प्रभाव न जानने का कारण ही प्रार्थना की जाती है। परमात्मा से कहेंगे तो जल्दी होगा, नहीं कहेंगे तो नहीं होगा-ऐसी बात नहीं है। कर्तव्य पालन करने से प्रभु स्वयं ही करेंगे, प्रभु सब अच्छा ही करेंगे। अच्छा ही करते हैं इसकी ओर भी लक्ष्य नहीं करना चाहिये। हमें तो यही देखना है कि हमारा राम प्रभु की सम्मति के अनुसार हो रहा है, उसी पर भार रखे। उससे भी ऊँची बात यह है कि अरने स्वार्थ की बात का प्रकरण ही नहीं लाये।
यहाँ सरकार के गुप्तचर हैं- यह विश्वास हो जाने पर सरकार के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती। इस प्रकार भगवान् सर्वत्र हैं यह विश्वास हो जाने पर भगवान् के विरुद्ध कोई काम नहीं होगा। इसी प्रकार महात्मा के विषय की बात है।
प्रश्न- श्रद्धा कैसे हो ?
उत्तर- श्रद्धा होने का पहला उपाय भगवान् से प्रार्थना करना तथा दूसरा उपाय आज्ञापालन है। शास्त्र के आज्ञा पालन से शास्त्र में श्रद्धा होती है।
बालक को पहले बिना इच्छा ही विद्यालय भेजते हैं, फिर उसकी रुचि हो जाती है। बाद में इतनी रुचि हो जाती है कि घरवालों के रोकने पर भी नहीं मानता, इसी प्रकार कोई भी काम हो, करने से श्रद्धा होती है। इसी प्रकार भजन करते-करते भजन में, महात्मा की आज्ञापालन करते-करते महात्मा में और सत्संग करते-करते सत्संग में श्रद्धा हो जाती है।
कर्तव्य-पालन करना ही अपना उद्देश्य बना ले, उसके फल की ओर नहीं देखे, चलता रहे। अपना जो ध्येय बना ले, कटिबद्ध होकर तत्परता से उसका पालन करे। अपनी ऊँची स्थिति हो तो उसकी ओर भी खयाल नहीं करे, स्वामी यदि नरक में भी डाल दें तो वह भी उत्तम है, उसमें भी अपनी प्रसन्नता ही रहे। श्रद्धा-प्रेम बढ़ने के लिये भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये। यह भी कामना ही है, परन्तु परमात्मा का प्रभाव न जानने का कारण ही प्रार्थना की जाती है। परमात्मा से कहेंगे तो जल्दी होगा, नहीं कहेंगे तो नहीं होगा-ऐसी बात नहीं है। कर्तव्य पालन करने से प्रभु स्वयं ही करेंगे, प्रभु सब अच्छा ही करेंगे। अच्छा ही करते हैं इसकी ओर भी लक्ष्य नहीं करना चाहिये। हमें तो यही देखना है कि हमारा राम प्रभु की सम्मति के अनुसार हो रहा है, उसी पर भार रखे। उससे भी ऊँची बात यह है कि अरने स्वार्थ की बात का प्रकरण ही नहीं लाये।
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- भजन-ध्यान ही सार है
- श्रद्धाका महत्त्व
- भगवत्प्रेम की विशेषता
- अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
- भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
- अनन्यभक्ति
- मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
- निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
- भक्तिकी आवश्यकता
- हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
- महात्माकी पहचान
- भगवान्की भक्ति करें
- भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
- केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
- सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
- भगवान् वशमें कैसे हों?
- दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
- मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
- संन्यासीका जीवन
- अपने पिताजीकी बातें
- उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
- अमृत-कण
- महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
- प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
- जैसी भावना, तैसा फल
- भवरोग की औषधि भगवद्भजन
अनुक्रम
विनामूल्य पूर्वावलोकन
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