गीता प्रेस, गोरखपुर >> हमारा आश्चर्य हमारा आश्चर्यजयदयाल गोयन्दका
|
9 पाठकों को प्रिय 24 पाठक हैं |
प्रस्तुत है हमरा आश्चर्य....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक ‘हमारा आश्चर्य’
जीवन्मुक्त तत्त्वज्ञ
और आध्यात्मिक चेतना-पुरुष ब्रह्मलीन परमश्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका
के बहुमूल्य प्रवचनों का संग्रह है, जो पुराने कैसेटों से लिपिबद्ध करके
छापा गया है। श्रद्धालुजन के निरन्तर प्रेमाग्रह के फलस्वरूप इन प्रवचनों
को लेखबद्धकर पुस्तकरूप में प्रस्तुत करनेका यह सुयोग श्रीभगवान् की
अहैतुकी कृपा से ही सम्भव हो सका है। जिसे भगवत्प्रेमी पाठकों के सेवा में
समर्पित करते हुए हम हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।
इसमें सरल, सुबोध भाषा तथा उद्बोधन शैली में प्रस्तुत भगवत्प्रेम और उच्चकोटि के आध्यात्मिक भावों को उजागर करनेवाले ऐसे लेख हैं, जिनका तत्त्वार्थ मनीषी लेखक ने छोटी-छोटी रोचक कहानियों और दृष्टान्तों के रूप में संजोकर और भी अधिक सरल, समझने में सुगम और आत्मसात् करनेयोग्य बना दिया है। उदाहराणार्थ—‘हमारा आश्चर्य’ और ‘निष्कामता की कहानी’, ‘भगवत्प्राप्ति के सरल उपाय तथा भगवत्प्रेम का प्रभाव,’ ‘स्वभाव सुधारने के विषय में चेतावनी’ एवं ‘भगवान्, भक्त और भजन-ध्यान के उच्चतम भाव’ आदि इसके ऐसे उल्लेखनीय विषय हैं, जो जिज्ञासुओं और साधकों के लिये प्रेरणादायी और मार्ग-दर्शन कराने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
आशा है, भगवत्प्रेमी महानुभवों और सभी वर्ग के पाठक-पाठिकाओं के लिये यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी। हमारा यह सादर विनम्र अनुरोध है कि अधिकाधिक लोगों को इससे विशेष लाभ उठाना चाहिये।
इसमें सरल, सुबोध भाषा तथा उद्बोधन शैली में प्रस्तुत भगवत्प्रेम और उच्चकोटि के आध्यात्मिक भावों को उजागर करनेवाले ऐसे लेख हैं, जिनका तत्त्वार्थ मनीषी लेखक ने छोटी-छोटी रोचक कहानियों और दृष्टान्तों के रूप में संजोकर और भी अधिक सरल, समझने में सुगम और आत्मसात् करनेयोग्य बना दिया है। उदाहराणार्थ—‘हमारा आश्चर्य’ और ‘निष्कामता की कहानी’, ‘भगवत्प्राप्ति के सरल उपाय तथा भगवत्प्रेम का प्रभाव,’ ‘स्वभाव सुधारने के विषय में चेतावनी’ एवं ‘भगवान्, भक्त और भजन-ध्यान के उच्चतम भाव’ आदि इसके ऐसे उल्लेखनीय विषय हैं, जो जिज्ञासुओं और साधकों के लिये प्रेरणादायी और मार्ग-दर्शन कराने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
आशा है, भगवत्प्रेमी महानुभवों और सभी वर्ग के पाठक-पाठिकाओं के लिये यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी। हमारा यह सादर विनम्र अनुरोध है कि अधिकाधिक लोगों को इससे विशेष लाभ उठाना चाहिये।
प्रकाशक
हमारा आश्चर्य और निष्कामता पर कहानी
संसार में आश्चर्य क्या है ? यक्ष के द्वारा यह पूछे जाने पर उसके उत्तर
में महाराज युधिष्ठिर ने जो उत्तर दिया यह कथा महाभारत के वनपर्व के अन्त
में इस प्रकार आयी है—प्रतिदिन लोग यमालय को जा रहे हैं यानी
मृत्यु
को प्राप्त हो रहे हैं, फिर भी अपनी मृत्यु निकट नहीं दीखती, यही आश्चर्य
है।
महाराज युधिष्ठिर का कहना बहुत ठीक है। किंतु हमें यह आश्चर्य होता है कि समय-समयपर प्रायः यह बात कही जाती है कि भगवान् को हरदम याद रखो। शरीर का कोई भरोसा नहीं है, यदि संसार को याद रखते हुए मृत्यु हो गयी तो अपने लिये महान् हानि है। यह बात-बार सुनकर, युक्तियों से समझकर भी हर वक्त भगवान् की स्मृति नहीं रहती इसके लिये जोर नहीं दिया जाता तो हमें यह बड़ा आश्चर्य लगता है। यह बात अभी एक सज्जनने पूछी कि भगवान् अपने को हर वक्त याद कैसे रहें इसके लिये हमें यह बात याद आ गयी। बार-बार कहा जाता है कि रात्रि में सोने के समय विशेष चेष्टा करें, जितने समय हो सके, बिछौने पर लेटने के बाद जबतक आपको नींद नहीं आती उतने समयतक आप कोई भी काम नहीं कर सकते। उस समय मनुष्य जो स्मरण करता है। जो याद करता है वही आगे चलकर स्वप्न का संसार बन जाता है।
इसलिये लेटने के बाद और नींद आने के पूर्व पाँच मिनट, सात मिनट, दस मिनट जितना समय है उसमें विशेष चेष्टा से परिवर्तन करके भगवान् को स्मरण करना चाहिये, उस समय संसार के संकल्पों के प्रवाह को हटाकर भगवान् के नाम, रूप, लीला, गुण, प्रभाव इनमें मन लगा देना चाहिये, जिससे वह मनन करने लग जाय। बस, सांसारिक संकल्पों के प्रवाह को बदल देना चाहिये। फिर रातभर मौज करो। रातभर शयन का समय साधन के रूप में परिणत हो जाय, ऐसी चेष्टा करनी चाहिये। कई बार कहने का काम पड़ता है किंतु हमारे कहने के अनुसार काम नहीं हो रहा है। ऐसा न होने का कारण विश्वास-श्रद्धा की कमी है और कोई कारण नहीं। जिस काम में हम देखते हैं कि शरीर की हानि होती है, रुपयों की हानि होती है उस काम की जितनी परवाह करते हैं उतनी उसकी परवाह नहीं करते। हमारी प्रीति है और श्रद्धा है उसमें शरीर और रुपयों की हानि होने पर भी उसके लिये जितना प्रयत्न करते हैं उतना इसके लिये नहीं करते।
दूसरी बात यह है कि जो कहा जाता है—बार-बार कहा जाता है कि शरीर से जो काम करते हैं, इन्द्रियों से जो काम करते हैं वह कीमती नहीं है, जो मन से काम करते हैं उसका ही विशेष मूल्य है। आप स्नान करते हैं और आपका मन दूसरे काम में घूमता रहता है, आप भोजन करते हैं और आपका मन कहीं-का-कहीं चला जाता है, आप नित्यकर्म के वास्ते बैठते हैं, पूजा के वास्ते बैठते हैं, भजन-ध्यान के वास्ते बैठते हैं उस समय में भी जो खास आपके भजन-ध्यान का ही समय है आपका मन दूसरे काम में चला जाता है, यह कितने अंधेरखाते की बात है। इस प्रकार आप एक साथ दो काम तो कर ही रहे हैं—स्नान, शौच, संध्या, गायत्री, जप, ध्यान, पूजा-पाठ, भोजन, उठना, बैठना, चलना करते ही हैं, उस समय में आपका मन दूसरे ही काम में रहता है। हमारी सबसे यही विनय है कि दूसरे काम में मन रहे उस स्थान में भगवान् में ही रहे। इस पर और जोर लगाना चाहिये। शरीर की क्रिया, इन्द्रियों की क्रिया जिस प्रकार आप करते हैं, उसमें कोई फेर-बदल करने की हम नहीं कहते। जैसे आप करते हैं वैसे ही करते रहें किसी भाई ने मुझसे पूछा था कि गवर्नमेन्ट के कानून के अनुसार इनकमटैक्स, सेल्सटैक्स, ब्लैकमार्केटकी चोरी आदि से बचना तो बहुत ही मुश्किल है। ऐसा भी कोई उपाय है क्या कि हम लोग यो सब काम करते रहें ? हमसे जो दोष बन रहा है यह कायम रहते हुए भी भगवान् की प्रप्ति हो जाय। इसके लिये कोई उपाय है ? मैंने कहा—उपाय है। क्या उपाय है—
महाराज युधिष्ठिर का कहना बहुत ठीक है। किंतु हमें यह आश्चर्य होता है कि समय-समयपर प्रायः यह बात कही जाती है कि भगवान् को हरदम याद रखो। शरीर का कोई भरोसा नहीं है, यदि संसार को याद रखते हुए मृत्यु हो गयी तो अपने लिये महान् हानि है। यह बात-बार सुनकर, युक्तियों से समझकर भी हर वक्त भगवान् की स्मृति नहीं रहती इसके लिये जोर नहीं दिया जाता तो हमें यह बड़ा आश्चर्य लगता है। यह बात अभी एक सज्जनने पूछी कि भगवान् अपने को हर वक्त याद कैसे रहें इसके लिये हमें यह बात याद आ गयी। बार-बार कहा जाता है कि रात्रि में सोने के समय विशेष चेष्टा करें, जितने समय हो सके, बिछौने पर लेटने के बाद जबतक आपको नींद नहीं आती उतने समयतक आप कोई भी काम नहीं कर सकते। उस समय मनुष्य जो स्मरण करता है। जो याद करता है वही आगे चलकर स्वप्न का संसार बन जाता है।
इसलिये लेटने के बाद और नींद आने के पूर्व पाँच मिनट, सात मिनट, दस मिनट जितना समय है उसमें विशेष चेष्टा से परिवर्तन करके भगवान् को स्मरण करना चाहिये, उस समय संसार के संकल्पों के प्रवाह को हटाकर भगवान् के नाम, रूप, लीला, गुण, प्रभाव इनमें मन लगा देना चाहिये, जिससे वह मनन करने लग जाय। बस, सांसारिक संकल्पों के प्रवाह को बदल देना चाहिये। फिर रातभर मौज करो। रातभर शयन का समय साधन के रूप में परिणत हो जाय, ऐसी चेष्टा करनी चाहिये। कई बार कहने का काम पड़ता है किंतु हमारे कहने के अनुसार काम नहीं हो रहा है। ऐसा न होने का कारण विश्वास-श्रद्धा की कमी है और कोई कारण नहीं। जिस काम में हम देखते हैं कि शरीर की हानि होती है, रुपयों की हानि होती है उस काम की जितनी परवाह करते हैं उतनी उसकी परवाह नहीं करते। हमारी प्रीति है और श्रद्धा है उसमें शरीर और रुपयों की हानि होने पर भी उसके लिये जितना प्रयत्न करते हैं उतना इसके लिये नहीं करते।
दूसरी बात यह है कि जो कहा जाता है—बार-बार कहा जाता है कि शरीर से जो काम करते हैं, इन्द्रियों से जो काम करते हैं वह कीमती नहीं है, जो मन से काम करते हैं उसका ही विशेष मूल्य है। आप स्नान करते हैं और आपका मन दूसरे काम में घूमता रहता है, आप भोजन करते हैं और आपका मन कहीं-का-कहीं चला जाता है, आप नित्यकर्म के वास्ते बैठते हैं, पूजा के वास्ते बैठते हैं, भजन-ध्यान के वास्ते बैठते हैं उस समय में भी जो खास आपके भजन-ध्यान का ही समय है आपका मन दूसरे काम में चला जाता है, यह कितने अंधेरखाते की बात है। इस प्रकार आप एक साथ दो काम तो कर ही रहे हैं—स्नान, शौच, संध्या, गायत्री, जप, ध्यान, पूजा-पाठ, भोजन, उठना, बैठना, चलना करते ही हैं, उस समय में आपका मन दूसरे ही काम में रहता है। हमारी सबसे यही विनय है कि दूसरे काम में मन रहे उस स्थान में भगवान् में ही रहे। इस पर और जोर लगाना चाहिये। शरीर की क्रिया, इन्द्रियों की क्रिया जिस प्रकार आप करते हैं, उसमें कोई फेर-बदल करने की हम नहीं कहते। जैसे आप करते हैं वैसे ही करते रहें किसी भाई ने मुझसे पूछा था कि गवर्नमेन्ट के कानून के अनुसार इनकमटैक्स, सेल्सटैक्स, ब्लैकमार्केटकी चोरी आदि से बचना तो बहुत ही मुश्किल है। ऐसा भी कोई उपाय है क्या कि हम लोग यो सब काम करते रहें ? हमसे जो दोष बन रहा है यह कायम रहते हुए भी भगवान् की प्रप्ति हो जाय। इसके लिये कोई उपाय है ? मैंने कहा—उपाय है। क्या उपाय है—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।
(गीता 9/30/31)
भगवान् कहते हैं कि अतिशय दुराचारी व्यक्ति भी यदि अनन्य भावसे मुझे
भजनेवाला है तो शीघ्र ही साधु हो जाता है ‘‘क्षिप्रं
भवति
धर्मात्मा’’। जल्दी ही धर्मात्मा हो जाता है, इसलिये
उसको
साधु ही समझना चाहिये, क्योंकि वह अच्छी प्रकार से इस बात को समझता है कि
भगवान् के भजन के समान दुनिया में कोई भी वस्तु नहीं है। इसके प्रभाव से
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है
‘‘शश्वच्छान्तिम्’’ सदा रहने
वाली परम शान्ति को
प्राप्त होता है। भगवान् का कहना है कि हे कौन्तेय ! मैं प्रतिज्ञा करके
कहता हूँ कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता, पतन नहीं होता और
भी—
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।
(गीता 8/14)
‘‘अनन्य चित्त से’’ जो
नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण
करता है उसके लिये मैं सुलभ हूँ, नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ। एक
मुख्य बात यह कि हर वक्त भगवान् को याद रखें और आपके शरीर से जो कुछ
व्यवहार हो रहा है, काम हो रहा है वह तो हो ही रहा है किंतु आप एक काम
करें कि भगवान् को हर वक्त याद रखें। इस प्रकार की चेष्टा से सभी काम हो
सकते हैं। कैसे हो सकते हैं ? निरन्तर भगवान् की स्मृति में ऐसी सामर्थ्य
है कि आपके अन्तः-करण को शुद्ध करके हृदय में ग्लानि पैदा कर सकती है, जिस
ग्लानि से आप पापका काम नहीं कर सकते। उसे बंद करना ही पड़ेगा। बंद करने
की चेष्टा न करके मूल जड़को आप पकड़ें। बाकी तो डाल-पत्ता सींचना है। यह
जड़ सींचना है, जड़ के सींचने से वृक्ष अपने-आप ही हरा हो जाता है। इसके
लिये खूब जोर लगाना चाहिये जिससे भगवान् का भजन, परमात्मा की प्रप्ति
उद्देश्य से श्रद्धाभक्तिपूर्वक निष्कामभाव से निरन्तर हो। अन्य किसी बात
पर जोर न हो। उसने कहा—कि भाई ! श्रद्धा-भक्ति कहाँ से लावें।
मैंने
कहा—कोई बात नहीं। भगवान् की प्राप्ति के लिये भगवान् का भजन
निष्कामभाव से करना यह उद्देश्य रखे। उद्देश्य भी अपना यह रहे और
निरन्तरता उसके अंदर आनी चाहिये। बस निरन्तरा में यह सामर्थ्य है कि वह
अपने-आप ही सब काम बना दे। इसपर खूब जोर लगाये। इस श्लोकके ऊपर ज्यादा
ध्यान रखना चाहिये—
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।
(गीता 8/6)
—इस श्लोक के भावको समझकर यदि इसपर श्रद्धा कर ले तो यह एक
श्लोक
आत्मा के कल्याण के लिये काफी है। भगवान् कह रहे हैं कि मनुष्य जिस-जिस
भावसे भावित हुआ शरीरका त्याग करता है उस-उस भावको प्राप्त होता है।
|
विनामूल्य पूर्वावलोकन
Prev
Next
Prev
Next
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book