गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त सुमन भक्त सुमनहनुमानप्रसाद पोद्दार
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प्रस्तुत है भक्त सुमन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
यह संक्षिप्त भक्त-चरित-मालाका तेरहवाँ पुष्प है। इसमें भक्तों की बड़ी
सुन्दर दस कथाएं हैं। भक्त भगवान् के ही स्वरूप हैं, उनके साथ चरित्र
पढ़ने-सुनने से बहुत लाभ होता है। आशा है, पाठक-पाठिकागण इन कथाओंको पढ़कर
और अपने जीवन में भगवद्भक्ति को प्रधान स्थान देकर जीवन का असली लाभ
उठावेंगे।
हनुमानप्रसाद पोद्दार
।।श्रीहरिः।।
भक्त-सुमन
भक्त विष्णुचित्त और उनके शिष्य नरपति
दक्षिण पाण्डयदेश में धन्विनगर नामक स्थान में मुकुन्द नामक ब्राह्मण
निवास करते थे। ब्राह्मण बड़े ही धर्मात्मा, सदाचारी, शास्त्रज्ञ और
सद्गुणी थे। रोज सबेरे श्रीभगवानका भक्तिपूर्वक पूजन करते थे। जो कुछ मिल
जाता था, उसी में वे मस्त रहते थे; परंतु उनके पुत्र नहीं था। ब्राह्मणी
की प्रबल इच्छा थी कि उन्हें पुत्र हो; उसके लिये श्रीभगवान् से प्रार्थना
की। भगवान् ने मुकुन्द को स्वप्न दिया कि तुम्हारे घर में एक बड़ा भक्त
पुत्र उत्पन्न होगा। तदनुसार दसवें मास उनके एक सुन्दर पुत्ररत्न पैदा
हुआ। उसका नाम रखा गया विष्णुचित्त। विष्णुचित्त लड़कपन से ही भगवानका
भक्त था।
वह भगवान की कथा बड़ी रुचि के साथ सुनता। लड़कों में परस्पर भगवान की लीला के ही खेल खेलता। परस्पर भगवान की ही चर्चा करता। माता-पिता की आज्ञा मानता, कभी किसी से लड़ता नहीं। किसी को सताता नहीं। दूसरे के दोषों को सह लेता, परन्तु किसी का भी छिद्र किसी के सामाने नहीं खोलता। उसकी वाणी में इतनी मधुरता थी कि वह जिसके साथ एक बार बोल लेता उसी का मन मोह लेता। इस प्रकार बाल्यावस्था में ही उसमें ऐसे दैवी गुणों का प्रादुर्भाव हो गया कि उसके साथ खेलनेवाले बालक भी सात्त्विक बुद्धि के होने लगे। पिता ने विष्णुचित्त का यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। तदुपरान्त थोड़े ही दिनों बाद पिता परलोक सिधार गये।
विष्णुचित्त जवान हुए; परंतु उनमें जवानीका मद नहीं आया। सोलह से चलीस तक की अवस्था को ‘गधापचीसी’ कहते हैं। इस उम्र में जिसका जीवन पवित्र रह जाता है उसका जीवन अन्ततक पवित्र रहता है। विष्णुचित्त सुन्दर थे, मधुभाषी थे हृष्ट-पुष्ट थे, परंतु उनका मन भगवान् में होने के कारण जवानी में वे प्रसाद के वश नहीं हुए। नियमित संध्योपानरा, वेदाध्ययन, साधुसेवा चलने लगी। एक दिन विष्णुचित्त मनमें आया कि भगवान के दसों अवतार ही परम सुन्दर और परम मधुर हैं, परंतु यदुकुलभूषण भगवान् श्रीकृष्ण के समान सौन्दर्य-माधुर्यनिधि तो कोई नहीं है; मुझे अपना जीवन उन्हीं के चरणों में निवेदन करना चाहिये। शुद्ध हृदय के सात्त्विक विचार को दृढ़ निश्चय रूप में परिणित होते देर नहीं लगती।
विष्णुचित्तने अपने को भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में सम्पूर्णतया समर्पण कर दिया। वे यदुनाथ की करुणा पर मुग्ध हो गये। अहा ! मेरे स्वामी कितने दयालु हैं- कैसे प्रेममय हैं। नारद और सनकादिक मुनि निरन्तर ध्यान करते हैं, वेद जिनका ध्यान करते हैं, वेद नेति–नेति कहते हैं और ब्रह्मा तथा इन्द्र जिनकी कृपा-कोरके लिये सदा तरसते रहते हैं, उन साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीकृष्ण को गोकुल में नन्दरानी अपना स्तनपान कराकर उनका लाड़ लड़ाती हैं। व्रजके गोपबालक उनके साथ निःसंकोच खेलते हैं। गौएँ उनकी वंशी-ध्वनि को सुनकर उनके चरणप्रान्त में आकर खड़ी हो जाती हैं और उनके मनोहर मुखारविन्दकी ओर एकटक दृष्टि से देखा करती हैं। इन सब खेलों से ब्राह्मादि भी मोहित हो जाते हैं, परंतु प्रेमानन्दनिधि मेरे स्वामी श्रीकृष्ण को अपने भक्तों के साथ खेलने में जरा भी हिचक नहीं होती। उनकी एक-एक लीला परम आनन्ददायिनी है।
इस प्रकार के विचारों में-परम आराध्य श्रीकृष्ण चन्द्र के गुण-नाम-स्मरण में ही विष्णुचित्त का समय बीतने लगा। साथ ही शरीर भी उन्हीं की सेवा में लग गया। कभी वे भगवान के लिये पुष्प चयन करके मनोहर माला गूंथते, कभी चन्दन घिसते, कभी नैवेद्यकी तैयारी करते; कभी आरती उतारते। इस प्रकार श्रीभगवान् के कैंकर्य और चिन्तनमें ही वे रत हो गये। उन्होंने एक सुन्दर बाग लगाया और उसमें भगवान् के मंगलविग्रहकी स्थापना की। स्वयं रात-दिन वहीं रहकर तन-मन-धन से भगवान की सेवा करने लगे। भगवान के साथ उनका गूढ़ परिचय हो गया, वे धन्य हो गये।
एक समय उस देश के राजा उस बगीचे के पास से कहीं जा रहे थे। सहज ही सुन्दर बगीचा देखकर वहाँ विश्राम करने की इच्छा हुई। राजा घोड़े से उतर पड़े और उन्होंने अंदर जाकर भगवान के दर्शन किये। फिर विष्णुचित्तजी के पास गये। राजा परम भागवत विष्णुचित्त के तेजोमण्डित मुखमण्डलको देखते ही प्रभावित होकर उनके चरणों में गिर पड़े और उनसे विनयपूर्वक बोले- ‘स्वामिन् ! मैं रात-दिन अपने राज-काज में ही लगा रहता हूँ। मेरे कल्याण के लिये जो उचित हो, वही उपदेश कृपाकर मुझे दीजिये।’ राजा के विनम्र वचनों को सुनकर विष्णुचित्त ने मुसकराते हुए स्नेहपूर्ण किंतु गम्भीर शब्दों में कहा—
‘राजन् ! जैसे बनिजारे लोग आठ महीने देश-विदेश में घूम-फिरकर धन कमाते हैं और फिर चार महीने चौमासे में घर बैठकर खाते हैं, वैसे ही बुद्धिमान लोग मनुष्य-जन्म में ऐसे पुण्य-कर्म करते हैं। जिनके फलस्वरूप अन्यान्य योनियों में उन्हें कोई भी अभाव या कष्ट नहीं होता। यह स्मरण रखना चाहिये कि एक मनुष्य-जन्म की ही कमाई अन्यान्य शरीर में भोगी जाती है। यहाँ जो पापरूप बुरी कमाई करता है, उसे नाना प्रकार की योनियों में भटकते हुए भयंकर कष्ट सहने पड़ते हैं और यहाँ जो पुण्यरूप अच्छी कमाई करता है, उसे बार–बार उत्तम योनि मिलती है- कहीं पूर्वकर्मवश निकृष्ट योनि मिलती है तो वहाँ भी उसे कोई कष्ट नहीं होता है। अतएव मनुष्य-देहको प्राप्त करके जीवको सदा पुण्यकर्म ही करते रहना चाहिये।
परंतु सच्ची बात तो यह है कि मनुष्य-देहकी सफलता एकमात्र पुण्य-कर्मों में नहीं है। क्योंकि पुण्य-कर्म भी पुनः जन्म देनेवाले होते हैं। आखिर वह भी तो है बन्धन ही। बड़ी लोहेकी हो या सोने की है तो बेड़ी ही। मानव-जीवन की सच्ची सफलता तो इसमें है कि वह जन्म-मरण का चक्कर छुड़ानेवाले परमात्मा को प्राप्त कर ले। अतएव तुमको उसी के लिये प्रयत्न करना चाहिये। आजसे पहले असंख्य राजा हो गये और चले गये। उनके नाम भी लोग नहीं जानते। तुम यदि अपने जीवन को राजमदमें खोओगे तो पाप करोगे। विषय-वासनामें बिताओगे तो भी पाप होगा। केवल राज-काज में लगाओगे तो जीवन व्यर्थ न होगा।
वह भगवान की कथा बड़ी रुचि के साथ सुनता। लड़कों में परस्पर भगवान की लीला के ही खेल खेलता। परस्पर भगवान की ही चर्चा करता। माता-पिता की आज्ञा मानता, कभी किसी से लड़ता नहीं। किसी को सताता नहीं। दूसरे के दोषों को सह लेता, परन्तु किसी का भी छिद्र किसी के सामाने नहीं खोलता। उसकी वाणी में इतनी मधुरता थी कि वह जिसके साथ एक बार बोल लेता उसी का मन मोह लेता। इस प्रकार बाल्यावस्था में ही उसमें ऐसे दैवी गुणों का प्रादुर्भाव हो गया कि उसके साथ खेलनेवाले बालक भी सात्त्विक बुद्धि के होने लगे। पिता ने विष्णुचित्त का यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। तदुपरान्त थोड़े ही दिनों बाद पिता परलोक सिधार गये।
विष्णुचित्त जवान हुए; परंतु उनमें जवानीका मद नहीं आया। सोलह से चलीस तक की अवस्था को ‘गधापचीसी’ कहते हैं। इस उम्र में जिसका जीवन पवित्र रह जाता है उसका जीवन अन्ततक पवित्र रहता है। विष्णुचित्त सुन्दर थे, मधुभाषी थे हृष्ट-पुष्ट थे, परंतु उनका मन भगवान् में होने के कारण जवानी में वे प्रसाद के वश नहीं हुए। नियमित संध्योपानरा, वेदाध्ययन, साधुसेवा चलने लगी। एक दिन विष्णुचित्त मनमें आया कि भगवान के दसों अवतार ही परम सुन्दर और परम मधुर हैं, परंतु यदुकुलभूषण भगवान् श्रीकृष्ण के समान सौन्दर्य-माधुर्यनिधि तो कोई नहीं है; मुझे अपना जीवन उन्हीं के चरणों में निवेदन करना चाहिये। शुद्ध हृदय के सात्त्विक विचार को दृढ़ निश्चय रूप में परिणित होते देर नहीं लगती।
विष्णुचित्तने अपने को भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में सम्पूर्णतया समर्पण कर दिया। वे यदुनाथ की करुणा पर मुग्ध हो गये। अहा ! मेरे स्वामी कितने दयालु हैं- कैसे प्रेममय हैं। नारद और सनकादिक मुनि निरन्तर ध्यान करते हैं, वेद जिनका ध्यान करते हैं, वेद नेति–नेति कहते हैं और ब्रह्मा तथा इन्द्र जिनकी कृपा-कोरके लिये सदा तरसते रहते हैं, उन साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीकृष्ण को गोकुल में नन्दरानी अपना स्तनपान कराकर उनका लाड़ लड़ाती हैं। व्रजके गोपबालक उनके साथ निःसंकोच खेलते हैं। गौएँ उनकी वंशी-ध्वनि को सुनकर उनके चरणप्रान्त में आकर खड़ी हो जाती हैं और उनके मनोहर मुखारविन्दकी ओर एकटक दृष्टि से देखा करती हैं। इन सब खेलों से ब्राह्मादि भी मोहित हो जाते हैं, परंतु प्रेमानन्दनिधि मेरे स्वामी श्रीकृष्ण को अपने भक्तों के साथ खेलने में जरा भी हिचक नहीं होती। उनकी एक-एक लीला परम आनन्ददायिनी है।
इस प्रकार के विचारों में-परम आराध्य श्रीकृष्ण चन्द्र के गुण-नाम-स्मरण में ही विष्णुचित्त का समय बीतने लगा। साथ ही शरीर भी उन्हीं की सेवा में लग गया। कभी वे भगवान के लिये पुष्प चयन करके मनोहर माला गूंथते, कभी चन्दन घिसते, कभी नैवेद्यकी तैयारी करते; कभी आरती उतारते। इस प्रकार श्रीभगवान् के कैंकर्य और चिन्तनमें ही वे रत हो गये। उन्होंने एक सुन्दर बाग लगाया और उसमें भगवान् के मंगलविग्रहकी स्थापना की। स्वयं रात-दिन वहीं रहकर तन-मन-धन से भगवान की सेवा करने लगे। भगवान के साथ उनका गूढ़ परिचय हो गया, वे धन्य हो गये।
एक समय उस देश के राजा उस बगीचे के पास से कहीं जा रहे थे। सहज ही सुन्दर बगीचा देखकर वहाँ विश्राम करने की इच्छा हुई। राजा घोड़े से उतर पड़े और उन्होंने अंदर जाकर भगवान के दर्शन किये। फिर विष्णुचित्तजी के पास गये। राजा परम भागवत विष्णुचित्त के तेजोमण्डित मुखमण्डलको देखते ही प्रभावित होकर उनके चरणों में गिर पड़े और उनसे विनयपूर्वक बोले- ‘स्वामिन् ! मैं रात-दिन अपने राज-काज में ही लगा रहता हूँ। मेरे कल्याण के लिये जो उचित हो, वही उपदेश कृपाकर मुझे दीजिये।’ राजा के विनम्र वचनों को सुनकर विष्णुचित्त ने मुसकराते हुए स्नेहपूर्ण किंतु गम्भीर शब्दों में कहा—
‘राजन् ! जैसे बनिजारे लोग आठ महीने देश-विदेश में घूम-फिरकर धन कमाते हैं और फिर चार महीने चौमासे में घर बैठकर खाते हैं, वैसे ही बुद्धिमान लोग मनुष्य-जन्म में ऐसे पुण्य-कर्म करते हैं। जिनके फलस्वरूप अन्यान्य योनियों में उन्हें कोई भी अभाव या कष्ट नहीं होता। यह स्मरण रखना चाहिये कि एक मनुष्य-जन्म की ही कमाई अन्यान्य शरीर में भोगी जाती है। यहाँ जो पापरूप बुरी कमाई करता है, उसे नाना प्रकार की योनियों में भटकते हुए भयंकर कष्ट सहने पड़ते हैं और यहाँ जो पुण्यरूप अच्छी कमाई करता है, उसे बार–बार उत्तम योनि मिलती है- कहीं पूर्वकर्मवश निकृष्ट योनि मिलती है तो वहाँ भी उसे कोई कष्ट नहीं होता है। अतएव मनुष्य-देहको प्राप्त करके जीवको सदा पुण्यकर्म ही करते रहना चाहिये।
परंतु सच्ची बात तो यह है कि मनुष्य-देहकी सफलता एकमात्र पुण्य-कर्मों में नहीं है। क्योंकि पुण्य-कर्म भी पुनः जन्म देनेवाले होते हैं। आखिर वह भी तो है बन्धन ही। बड़ी लोहेकी हो या सोने की है तो बेड़ी ही। मानव-जीवन की सच्ची सफलता तो इसमें है कि वह जन्म-मरण का चक्कर छुड़ानेवाले परमात्मा को प्राप्त कर ले। अतएव तुमको उसी के लिये प्रयत्न करना चाहिये। आजसे पहले असंख्य राजा हो गये और चले गये। उनके नाम भी लोग नहीं जानते। तुम यदि अपने जीवन को राजमदमें खोओगे तो पाप करोगे। विषय-वासनामें बिताओगे तो भी पाप होगा। केवल राज-काज में लगाओगे तो जीवन व्यर्थ न होगा।
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