गीता प्रेस, गोरखपुर >> चिन्ता शोक कैसे मिटें चिन्ता शोक कैसे मिटेंजयदयाल गोयन्दका
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परम श्रद्धेय श्रीजयदयाल गोन्दका के प्रवचनों का संग्रह।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
गीताप्रेस के संस्थापक परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका के एक ही लगन
थी कि मानवमात्र इस भवसागर से कैसे पार हो ! मनुष्य जन्मता है बड़ा होता
है, सन्तान उत्पन्न करता है, मर जाता है। इस प्रकार पशुवत् जीवन बिताकर
अन्य योनियों में चला जाता है। जीवनकाल में चिन्ता शोक और दुख से घिरा
रहता है। मनुष्य शरीर पाकर भी यदि चिन्ता और शोक में डूबा रहा तो उसने
मनुष्य शरीर का दुरुपयोग ही किया। यह शरीर चिन्ता शोक से ऊपर उठकर केवल
भगवत्प्राप्ति के लिये ही प्रभु ने कृपा करके दिया है। चिन्ता-शोक हमारी
बेसमझी से ही होते हैं। इसमें प्रारब्ध या भगवान का कोई हाथ नहीं है। हम
इस बात को समझ जाये तो कभी भी चिन्ता-शोक नहीं हो सकते।
श्रद्धेय गोयन्दकाजी ऋषिकेशव में सर्वप्रथम लगभग सन् 1918 में सत्संग प्रारम्भ किया था।; पुनः लगभग सन् 1927 से स्वर्गाश्रम ऋषिकेश में वटवृक्ष के नीचे लगभग चार महीने चैत्र से आषाढ़ तक सत्संग करते रहते थे। उस स्थान पर उन्होंने चिन्ता-शोक कैसे मिटें, शान्ति कैसे मिले, हमें भगवान की स्मृति हर समय कैसे बनी रहे, हम प्राणिमात्र को भगवान का स्वरूप समझकर निःस्वार्थभाव से उनकी सेवा करें; स्त्री, पुत्र, धन, तथा मान-ब़डा़ई की आसक्ति-इनको चाहते हुए भगवत्प्राप्ति असम्भव है, गृहस्थआश्रम में रहते हुए माता, बहनें भी किस प्रकार अपनी आध्यत्मिक उन्नति सुगमता से कर सकती हैं। इन विषयों का भी विवेचन उनके प्रवचनों में हुआ है। भोजन परोसने में विषमता करना महान् पाप है, नरकों में ले जानेवाला है। पति की आज्ञापालन मात्र से ही माता-बहनें अपना कल्याण कर सकती हैं।
उपर्युक्त भाव लोगों के हृदय में बैठ जाएँ तो वे अपने कल्याण की ओर तत्परता से अग्रसर हो सकते हैं। जीवन में सदाचार, सरलता, स्वार्थका त्याग बहुत सुगमता से हो सकता है, चिन्ता-शोक सर्वथा मिट सकते हैं। इस भाव से इन प्रवचनों को पुस्तक का रूप देने का प्रयास किया गया है।
श्रद्धेय गोयन्दकाजी ऋषिकेशव में सर्वप्रथम लगभग सन् 1918 में सत्संग प्रारम्भ किया था।; पुनः लगभग सन् 1927 से स्वर्गाश्रम ऋषिकेश में वटवृक्ष के नीचे लगभग चार महीने चैत्र से आषाढ़ तक सत्संग करते रहते थे। उस स्थान पर उन्होंने चिन्ता-शोक कैसे मिटें, शान्ति कैसे मिले, हमें भगवान की स्मृति हर समय कैसे बनी रहे, हम प्राणिमात्र को भगवान का स्वरूप समझकर निःस्वार्थभाव से उनकी सेवा करें; स्त्री, पुत्र, धन, तथा मान-ब़डा़ई की आसक्ति-इनको चाहते हुए भगवत्प्राप्ति असम्भव है, गृहस्थआश्रम में रहते हुए माता, बहनें भी किस प्रकार अपनी आध्यत्मिक उन्नति सुगमता से कर सकती हैं। इन विषयों का भी विवेचन उनके प्रवचनों में हुआ है। भोजन परोसने में विषमता करना महान् पाप है, नरकों में ले जानेवाला है। पति की आज्ञापालन मात्र से ही माता-बहनें अपना कल्याण कर सकती हैं।
उपर्युक्त भाव लोगों के हृदय में बैठ जाएँ तो वे अपने कल्याण की ओर तत्परता से अग्रसर हो सकते हैं। जीवन में सदाचार, सरलता, स्वार्थका त्याग बहुत सुगमता से हो सकता है, चिन्ता-शोक सर्वथा मिट सकते हैं। इस भाव से इन प्रवचनों को पुस्तक का रूप देने का प्रयास किया गया है।
-प्रकाशक
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