उपन्यास >> मूकज्जी (मूक आजीमाँ) मूकज्जी (मूक आजीमाँ)के. शिवराम कारन्त
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मूकज्जी' अर्थात मूक आजीमाँ, एक ऐसी विधवा वृद्धा, जिसमें वेदना सहते-सहते, मानवीय विषमताओं को देखते-बूझते, प्रकृति के खुले प्रांगण में बरसों से पीपल तले उठते-बैठते, सब कुछ मन-ही-मन गुनते, एक ऐसी अद्भुत क्षमता जाग्रत हो गयी है कि
मूकज्जी' अर्थात मूक आजीमाँ, एक ऐसी विधवा वृद्धा, जिसमें वेदना सहते-सहते, मानवीय विषमताओं को देखते-बूझते, प्रकृति के खुले प्रांगण में बरसों से पीपल तले उठते-बैठते, सब कुछ मन-ही-मन गुनते, एक ऐसी अद्भुत क्षमता जाग्रत हो गयी है कि उसने प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की समस्त मानव-सभ्यता के विकास को आत्मसात कर लिया है. मूकज्जी की दृष्टि में जीवन जीने के लिए है.
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