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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आदर्श उपकार

आदर्श उपकार

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1042
आईएसबीएन :81-293-0508-9

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प्रस्तुत है आदर्श उपकार....

Aadarsh Upkar a hindi book by Gitapress - आदर्श उपकार - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, संयोग-वियोग के सुखदायी और दुःखदायी क्षण प्रारब्धानुसार रात-दिन के चक्र की तरह आते और जाते रहते हैं। परंतु प्रतिकूल और संकटपूर्ण परिस्थितियों में ही व्यक्ति के धैर्य एवं भगवान् के प्रति श्रद्धा-विश्वाससहित उसके आस्था की सच्ची परीक्षा होती है। देखा जाय तो जीवन के सच्चे उत्कर्ष और उसके अभ्युदय की सही दिशा संकटपूर्ण घड़ियों से गुजरने और विपत्तियों के तापसे तपने के बाद ही मिलती है।
 
जिस प्रकार अपने ऊपर आये हुए कष्ट और विपत्ति को सहजता से सहन करना अथवा उसे भगवान् का भेजा हुआ उपहार या उनका प्रसाद मानकर दुःखी न होना उत्तम है, उसी प्रकार परदुःख से दुःखी और परसुख से सुखी होना और भी अधिक उत्तम है। बिना किसी स्वार्थ और कामना के दूसरों के प्रति किये गये उपकारों को भी बड़ा महत्त्व दिया गया है। परदुःखाकातरभाव से किसी के दुःख को मिटाने में सहायक होना और उसे मिटाने का अपनी सामर्थ्य के अनुसार हर सम्भव प्रयास करना ही मनुष्यत्व है; यह परमधर्म है। गोस्वामीजी ने भी श्रीरामचरितमानस में इसकी पुष्टि की है।


पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।


प्रस्तुत पुस्तक सच्ची और स्वानुभूत उन घटनाओं का संकलन है जो ‘कल्याण’ में ‘पढ़ो, समझो और करो’ स्तम्भ के अन्तर्गत पहले प्रकाशित हो चुकी हैं। मनुष्यत्व का बोध करानेवाली इसकी सामग्री चरित्र की ऊँचाइयों को छूने वाली और भगवद्विश्वास को बढ़ाने वाली है। रोचक और प्रेरणाप्रद होने के साथ यह सच्चा मार्ग-दर्शन भी प्रदान करती है। जनहितमें प्रकाशित शिक्षाप्रद और सबके लिये उपयोगी इस सत्य-कथा-संग्रह से सभी भाई-बहनों और बालकों को अधिकाधिक लाभ उठाना चाहिये। ‘कल्याण’ में प्रकाशित यह उपादेय सामग्री पाठकों के सुविधार्थ भिन्न-भिन्न नाम-शीर्षकों से कुल आठ भागों में प्रकाशित की गयी है। सभी भाग सर्वथा पठनीय और जीवनोपयोगी हैं।

-प्रकाशक

आदर्श उपकार


मैं सुन्दरवती महिला कालेज की छात्रा हूँ। आज मैं एक ऐसे छात्र के विषय में लिख रही हूँ, जिसके कर्तव्य-पालन पर छात्र-समाज को गौरव होना चाहिये। घटना इस प्रकार है। ता. 9/2/62 को मैं अपने कालेज से सरस्वती की पूजा करके लौट रही थी। भागलपुर स्थित नवयुग विद्यालय के पास एक गुण्डे छात्र ने मुझसे छेड़खानी शुरू कर दी। उस गुण्डे छात्र ने मुझे जबरदस्ती एक रिक्शे पर बैठाकर ले जाना चाहा। मैं चिल्लाने लगी। उस समय वहाँ कोई नहीं था। भगवान की कृपा से एक छात्र साइकिल पर उस ओर से निकला। उसने मुझे चिल्लाते देखकर उस गुण्डे को ललकारा। उस गुण्डे ने चाकू से इस छात्र पर प्रहार करना चाहा, परन्तु इस छात्र ने, जो उस गुण्डे से अधिक बलवान था, उसे खूब पीटा और खुद भी चोट खायी; अन्त में हारकर वह गुण्डा रिक्शे पर भाग गया। छात्रने पीछा करना चाहा, परन्तु मैंने रोक दिया। फिर भी इसने उसका पीछा साइकिल से किया। इसके बाद का हाल मैं नहीं जान सकी। उस कर्तव्यपरायण छात्र का नाम मुझे उसकी गिरी डायरी से मिला। उसका शुभ नाम है—‘रणजीतकुमार चौधरी’। वे टी.ए.बी. कॉलेज भागलपुर के Pre-University Ex-Student हैं।

स्वप्न के रूप में सत्य


वह वृद्ध तो था, उसके बाल भी सफेद थे, पर उसका शरीर न दुबला था, न दुर्बल। जब वह राह पर चलता वैशाखी टेककर, गर्दन झुकाकर, धीरे-धीरे चलता, जैसे किसी वस्तु को ढूँढ़ रहा हो। कोई कभी उससे पूछता कि ‘बाबा ! क्या ढूँढ़ रहे हो ?’ तो वह उत्तर देता, रास्ता ढूँढ़ रहा हूँ, बाबा ! रास्ता खो गया है।
‘कहाँ का रास्ता ?’
‘यही तो मालूम नहीं।’ उसके स्वर में निराशा की ध्वनि रहती। ‘खूब मजे में ढूँढ़ते जाओ, बाबा ! उत्तर सुनायी देता और उसके साथ खखार की हँसी।’
                                      
एक चाँदनी रात को जब कि मैं अपने मकान के बाहर बैठा नीलाकाश की शोभा देख रहा था, उक्त वृद्ध महोदय को अपने मकान की ओर आते देखा। रात्रि के समय उनका शुभागमन कुछ आश्चर्यजनक प्रतीत हुआ। निकट पहुँचने पर मैंने पूछा—क्यों बाबा ! इतनी रात को कैसे आये ? उसने उत्तर दिया, ‘तुमसे कुछ कहना है।’
‘इसी रात को ?’ कल कहते, महाराज !
‘नहीं, कल तक मैं भूल जाऊँगा। कल रात को मैंने एक सपना देखा है वह तुमको सुनाना है।’
‘अच्छा तो आप सपना सुनाने आये हैं। मैं समझा कोई गहरी बात होगी।’
‘पहले सुनो, फिर कहना गहरी है या नहीं।’
‘अच्छा तो सुनाइये।’
तब वृद्ध ने यों कहा—

‘मैंने सपने में देखा कि रास्ता ढ़ूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते, जैसा कि मैं प्रायः ढूँढ़ा करता हूँ, एक दिन एक गाँव में पहुँच गया हूँ। गाँव छोटा है। उसमें रहनेवाले भी कम हैं। अधिकतर मकान टूटे-फूटे हैं। बहुतों पर न छत है, न छप्पर; दीवारों में कहीं-कहीं दरवाजे लगे हैं। उस गाँव में बहुत देर तक मैं भटकता फिरा। मुझको देखते ही लोग जान जाते थे कि मैं वहाँ का रहनेवाला नहीं हूँ। मुझको सन्देहयुक्त दृष्टि से देखते थे। कभी-कभी कोई पूछता भी था कि ‘मैं कहाँ जाना चाहता हूँ, किससे मिलना चाहता हूँ।’ ‘मैं शहर की तरफ जाना चाहता हूँ’, कहने पर वह मुझे राह तो बता देता; पर चलते-चलते मैं फिर भटक जाता। ऐसे ही घूमते-घूमते मैं एक नदी के किनारे जा पहुँचा। नदी छोटी थी, बहुत गहरी भी। मैं उस पार जाना चाहता था, पर बहाव इतना तेज था कि नदी में उतरने का साहस नहीं हुआ। वहाँ पर एक आदमी मिला। उसने पूछा, ‘आप कहाँ जाना चाहते हैं ?’

मैंने कहा—‘मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, वहाँ का नाम भूल गया हूँ। मुझको युगल-मन्दिर का रास्ता बता देने पर, वहाँ जाकर मेरे जाने का स्थान कहाँ है, पता लगा लूँगा।’
उसने कुछ नहीं कहा; हँसकर वह चुपचाप चला गया। मैं फिर इधर-उधर फिरता रहा। घूमते-घूमते ऐसी जगह पहुँचा जहाँ केवल दो मकान थे और चारों तरफ खुला हुआ था। वहाँ खड़े-खड़े सोच रहा था कि किधर जाऊँ। इतने में एक जीप-गाड़ी आती हुई दिखाई दी। थोड़ी देर में वह आकर मेरे ही पास खड़ी हो गयी बिना किसी से कुछ कहे मैं तत्काल उस पर बैठ गया। तब मैंने गाड़ी पर बैठे लोगों को देखा तो उनमें एक सज्जन जान-पहिचान के मिले। वे मुस्करा रहे थे। मुझसे पूछा—‘कहाँ ?’

मैंने उत्तर दिया—‘युगल-मन्दिर।’
कहा—‘ठीक है।’...गाड़ी चल दी...आँख खुल गयी।
वृद्ध महाराज थोड़ी देर चुप बैठे रहे; फिर मुझसे पूछा ‘क्या समझे ?’
मैंने कहा—‘यह कि आप-जैसे जाग्रदवस्था में पागल की तरह मारे-मारे इधर-उधर फिरा करते हैं, स्वप्नावस्था में भी वैसे ही मारे-मारे फिरते रहे।’ उन्होंने कहा—‘नहीं  समझे’ सुनो। वह टूटे –फूटे मकानों वाला गाँव इस असार संसार का ही प्रतीक है, जिसमें प्राणी-पदार्श सब अनित्य हैं,, क्षणभंगुर हैं, परंतु इसमें मनुष्य जन्म लेता है, इसके काम-धन्धों में फँसा रहता है, धन-सम्पत्ति उपार्जन करता है। खूब दौड़धूप करता है और अपनी समझ से सुखमय जीवन व्यतीत करता है। परंतु मनुष्य—जीवन का क्या उद्देश्य है, उसे कहाँ जाना है—सब भूल जाता है। ‘मोहितो मोहजालेन पुत्रदारगृहादिषु।’ इसी तरह उसके दिन कटते जाते हैं। माया-नदी को पारकर कहीं जा नहीं करता है। पर भगवान् की कृपा से एक दिन उसकी आँखें खुलती हैं। वह देखता है—


सुकृतं न कृतं किञ्चिद् दुष्कृतं च कृतं मया।


तब वह मन-ही-मन भगवान् को स्मरण करने लगता है और किसी की खोज में रहता है जो उसे जीवन के सन्मार्ग का पता दे। सौभाग्यवश एक दिन उसको एक पथ-प्रदर्शक मिल जाता है, जो उसको मनुष्य-जीवन सफल बनाने का राजपथ का निर्देश कर देता है। वह धन्य हो जाता है।
फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन ज्ञानवृद्ध महोदय ने पूछा—‘क्या समझे ?’
मैंने उत्तर दिया—‘अबतक मैं आपको जो कुछ समझता था उसके लिये क्षमा कीजिये और आज आपके चरण छूकर प्रणाम करता हूँ, कृपया ग्रहण कीजिये।’

 -(आचार्य) श्रीचारुचन्द्र चट्टोपाध्याय, एम.ए.


अभक्ष्यभक्षण-त्याग से मृत्युमुख से बचना



मेरा आयु उस समय लगभग 19 वर्ष की रही होगी। 1932 ई. की बात ही। मेरी दीदी श्रीमती चुन्नाकुँअरि, जिनकी आयु लगभग 75 वर्ष की होगी, अधिक बीमार हो गयीं। उनकी चिकित्सा मेरे गुरु आयुर्वेदाचार्य पं. मूलचन्दजी शास्त्री राजवैद्य, निवासी गोला-गोकरणनाथजी कर रहे थे। चिकित्सा करते गुरुजी को लगभग सात-आठ दिन हो गये, किन्तु लाभ की अपेक्षा हानि होती गयी। हताश होकर गुरूजीने मेरी माता से और मुझसे कहा कि ‘इनका बचना असम्भव है, औषधि से कोई लाभ नहीं पहुँच रहा है, भगवान् ही रक्षक हैं। इसलिये इनका मन जिन-जिनको देखने-मिलने का हो, उन्हें दिखा दो।’

यह सुनकर मुझे अत्यन्त दुःख हुआ। किन्तु धैर्य धारण करके मैं शुद्धचित्त से देवालय में गया और वहाँ भगवान् श्रीराधाकृष्ण के सामने मैंने यह प्रतिज्ञा की कि ‘यदि अशुभ चीजों के त्याग से आप प्रसन्न होते हैं तो मैं आज से प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि मेरी दीदी स्वस्थ हो जायँ तो आज से मांस-मछली खाना छोड़ता हूँ और अपने बाजार में भी मांस-मछली नहीं बिकने दूँगा।’

मैं घर लौट आया और उसी शाम से मेरी दीदी का त्रिदोष ज्वर कम होने लगा। एक ही सप्ताह में वे एकदम ठीक हो गयीं। गुरुजी ने कहा ‘अब तो बिना औषधि दिये भी रोगी की दशा ठीक है।’ तबसे मैं इस प्रतिज्ञा का पूर्णरूप से पालन करता चला आ रहा हूँ। मैंने इतिहास पढ़ा था कि राणा साँगा पर विजय प्राप्त करने हेतु बाबर ने नमाज पढ़ते समय खुदा से यह प्रार्थना की कि ‘मैं यदि राणा साँगा पर विजय प्राप्त कर लूँ तो मैं कभी शराब नहीं पीऊँगा।’ और बाबर राणा साँगा पर विजयी हुआ। इतिहास की इस स्मृति ने मुझे मांस-मछली-त्याग के लिये प्रेरित किया था।

-राजर्षि डॉ. कुँवर घनश्यामनारायणसिंह ‘श्याम’


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