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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आदर्श मानव हृदय

आदर्श मानव हृदय

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1040
आईएसबीएन :81-293-0512-7

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प्रस्तुत है आदर्श मानव हृदय...

Aadarash Manav Hridya a hindi book by Gitapress - आदर्श मानव हृदय - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

यह ‘आदर्श मानव-हृदय’ नामक पुस्तक ‘कल्याण’ में ‘पढ़ो’ समझों और करो’ शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित घटनाओं का संग्रह हैं। इस पुस्तक में ऐसी -ऐसी प्रेरणाप्रद सच्ची घटनाओं का संग्रह है. जो मानवताओं को ऊँचा उठाने वाली तथा जीवन में सात्विक शक्ति, शान्ति, सुख एवं सद्भावों को उत्पन्न करनेवाली हैं। पाठक महानुभाव इस संग्रह से विशेष लाभ उठावें, यह विनीत निवेदन है।


विनीत
प्रकाशक

आदर्श मानव- हृदय


सेठ रामबिलास का घराना बहुत ऊँचा समझा जाता था। ये पीढ़ियों के सेठ थे। गांव में इनकी बड़ी इज्जत थी। विधाता का विधान- कमाई कम हो गयी। खर्च में कमी हुई नहीं। घर कमजोर होता गया इनके परिवार में बहुत लोग थे। सबका पालन-पोषण इन्हीं  के द्वारा होता था। धीरे-धीरे सब अलग हो गये। इनके एक कन्या विवाह को योग्य थी। बड़ी सुशील सुन्दर और घर के काम-काज में चतुर। गीता –रामायण पढ़ लेती थी। उस जमाने में छोटी उम्र में लड़कियों के विवाह होते थे इसका नाम तो बड़ा था ही। एक जगह सगाई हो गयी। लड़का बहुत अच्छा सुन्दर पढ़ा-लिखा। लाखों का कारोबार। विवाह की तैयारी होने लगी। कमाई घटी थी, इससे घर नोच-नोचकर खा रहे थे। जेवर आदि बहुत कुछ बिक चुका था। विवाह इज्जत के साथ होना चाहिये। यद्यपि लड़केवाले बहुत भले आदमी थे। वे कुछ सौदा नहीं करते थे। यद्यपि इतनी तो आशा रखते ही थे सेठ रामबिलास जी अपनी कन्या का विवाह बहुत अच्छा करेंगे। अच्छे का अर्थ कम से कम दस हजार तो लगायेंगे ही। रामबिलास भी इससे कम नहीं लगाना चाहते थे। उस जमाने के दस हजार आज के तीन-चार लाख के बराबर समझिए।

रामबिलासजी ने किसी तरह आठ हजार का प्रबन्ध किया। चार हजार नगद आ गये, जिससे गहना बनने लगा। सोना उस समय बीस रुपये तोला था। एक व्यापारी के यहाँ कई हजार पावने थे। उसने अमुक दिन चार हजार देने का वचन दिया था। दो हजार शेष-उनकी व्यवस्था भी हो ही जायेगी। कुछ बाजार का देना रहेगा तो वह धीरे-धीरे दिया जाएगा, यह सोचकर सेठ रामबिलास जी तथा उनकी धर्मपत्नी निश्चिन्त थे। अकस्मात उस व्यापारी के गल्ले में घाटा लग गया, उसने देने से इनकार कर दिया। वास्तव में वह बेचारा असमर्थ हो गया था।

रामबिलास जी के सिर पर तो मानों वज्र टूट पड़ा। कहीं से कोई आशा नहीं। बड़े नामी आदमी किसी से माँग नहीं सकतें। माँगने पर दे भी कौन ?

उनके पड़ोस में बाबू हरनारायणजी का घर था। बड़े सज्जन थे दोंनों स्त्री-पुरुष। रामबिलासजी के साथ इनका बड़ा मेल था। एक दिन हरनारायण जी की स्त्री किसी काम से इनके घर आयी थी। रामबिलासजी उस समय अपनी पत्नी से रोते हुए कुछ कह रहे थे। हरनारायण जी की पत्नी सुनना नहीं चाहती थी, लौट रही थी, पर इतनी-सी आवाज कान में पड़ गयी.... सीता की माँ रामबिलास मुँह नहीं दिखा सकता। वह न किसी से माँगेगा न किसी के देने पर लेगा ही। आजतक पीढ़ियों से दिया-ही-दिया कभी हाथ नहीं फैलाया। अब क्या पुरुखों के मुख पर कालिख पोतेगा वह...... पर छः हजार लायेगा कहाँ से ? अगली बात सुनी नहीं इतना पता अवश्य लग गया कि सीता की माता (रामबिलास जी कि पत्नी) फूट-फूटकर रो रही थी। सीता रसोई घर में थी और सीता की माता से उसका बड़ा प्रेम था।

हरनारायण जी भी बड़े सहृदय थे। और घर भी सम्पन्न था। हरनारायणजी की पत्नी आते ही रोने लगी। हरनारायण ने पूछा- पर बता नहीं सकीं, उसकी घिग्घी बँध गयी। कुछ देर बाद धैर्य धारण कर उसने कहा- ‘‘सीता का विवाह है। एक दिन सीता कि माता ने उसे बताया था कि आठ  हजार का प्रबन्ध कर लिया गया दो हजार का और हो जाएगा। पर आज मैं सुनकर आयी हूँ-उन्हें छः हजार की जरूरत है। वे दोनों पति –पत्नी प्राण दे देगे। अपने पास रुपये हैं। आप दे दीजिये ।’ पत्नी की बात बाबू हरनारायण को बहुत अच्छी लगी और मन ही मन उसकी सहृदयता तथा स्वभाव की सराहना करते हुए हरनाराण जी ने कहा- ‘मैंने पहले कुछ चेष्टा की थी, पर सेठ रामबिलास ने स्वीकार नहीं किया। वे मुझसे लेकर अपना मान खोना नहीं चाहते और मैं भी उनकी बड़ी इज्जत करता हूँ।’ पत्नी बोली- ‘तो दूसरा कोई उपाय सोचिये और आज ही- अभी कीजिये। देर से अनर्थ हो जाएगा। डगमगाती नैया को तुरंत बचाइये।’

‘अच्छी बात है’ कहकर हरनारायणी निकले और डेढ़ घंटे बाद लौटकर पत्नी से उन्होंने बतलाया- तुम्हारी सदिच्छा भगवान ने पूर्ण कर दी। मैंने पता लगाया तो मालूम हुआ अमुख व्यापारी से उन्हें चार हजार मिलने वाले थे, उसने घाटा लगने से इनकार कर दिया। मैं सीधा उसके पास पहुँचा। उससे बात की। वह बेचारा भी रुपये न दे सकने पर बहुत दुःखी था। उसने बतलाया कि ‘चार ही नहीं छःहजार मुझकों देने हैं। मैंने चार ही देने को कहा था। पर दे नही पाया।’ मैंने उसको यह समझाकर इस बात पर राजी कर लिया कि वह छः हजार रुपये लेकर तुरंत सेठ रामबिलासजी को यह कहकर दे आये कि ‘मैनें रुपये का प्रबन्ध कर लिया है  -रहा हूं’- मैंने उसकों यह आश्वासन दे दिया कि ‘मैं ये रुपये आपसे कभी मांगूँगा नहीं, न आपके नाम खाते में लिखूँगा। आपके पास कभी हो और आप देना चाहें तो दे दीजिएगा, नहीं तो, आपका घाटा मेरा घाटा है। आप जरा भी विचार न कीजिएगा।’ वह सकुचाया तो सहीं, पर मान गया।

मैंने उसकों रुपये देकर तुरंत सेठ रामबिलास  के पास भेज दिया और वह दे भी आया। मैंने उसकों पुत्र की शपथ दिलवा दी कि कि वह यह बात कभी किसी से न कहे। अपने घर में भी वह दो ही जानते है। हम लोग भी शपथ कर ले कि ‘‘तीसरा कोई जाने ही नहीं।’ स्वामी की बात सुनकर पत्नी के प्राण हरे हो गये। उसके आनन्द का पार नहीं रहा। उसने आनन्द की अश्रुधारा से अपने स्वामी के चरण पखार दिये।

सेठ रांमबिलास और उसकी पत्नी को कितना आनन्द हुआ कौन जान सकता है। सीता का विवाह बड़े धूमधाम आनन्द से हो गया। बाबू हरनारायण तथा  उनकी पत्नी विवाह में खूब सम्मिलित हुए सब काम किये; पर कहीं जरा सी भी कल्पना नहीं आने दी ‘कि व्यापारी के दिये रुपयों से -जाना और अपकार होनेपर उसे- याद रखना ही तो मनुष्यता है’ कई वर्षों  बाद उस व्यापारी ने एक दिन सेठ रामबिलास को यह घटना तब सुनायी, जब रामबिलास उसके व्यवहार की बढ़ाई कर रहे थे।

भारत का संस्कार दर्शन


विदेश से लौटे हुए और अस्पताल में सर्जन के पदपर काम करनेवाले मेरे एक पड़ोसी डाक्टर अपनी विदेशयात्राका एक प्रसंग सुनाया। उसे यहाँ उन्हीं के शब्दों में उदधृत कर रहा हूँ।

मैं इंग्लैड पहुँचा, उस समय ‘कहां रहूँगा’ यह निश्चय नहीं था। सभी छात्रालयों में जगह भर चुकी थी। सौभाग्य वश मुझकों वहां के एक संस्कारी कुटुम्बमें ‘पेइंग गेस्ट’ के रूप में स्थान मिला।
थोड़े ही दिनों में मैं उस कुटुम्ब में दूध-चीनी की  तरह घुल-मिल गया।

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