गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवत्पथ दर्शन भगवत्पथ दर्शनजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भगवत्पथ दर्शन का मार्मिक चित्रण...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
गीताप्रेस के संस्थापक परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन श्रीजयदयालजी गोयन्दका को
संवत् 1964 में भगवत्कृपा से चतुर्भुज रूप से भगवान् का साक्षात्कार चूरू
में हुआ था। भगवान् के प्रकट होने के समय उनके मन में प्रश्न उठा कि मैंने
तो भगवान् को बुलाया नहीं, फिर भगवान् ने किस प्रकार मेरे ऊपर कृपा की।
उनके हृदय में भाव आया कि भगवान् चाहते हैं कि उनकी निष्पाप भक्ति का
प्रचार होवे। जीवन का समय प्रायः भक्ति के प्रचार में उनके व्यतीत होता
था। उनके एक लगन थी कि लोगों को भगवत् प्राप्ति कैसे हो। इसलिये वे अपने
घनिष्ट मित्रों को, अपने बन्धु एवं प्रेमियों को जब पत्र देते तो उन
पत्रों में आध्यात्मिक भाव ही भरे रहते थे।
उस समय जो उनके खास मित्र प्रेमी समझे जाते थे उनको जो पत्र सं. 1971 के लगभग लिखे गये, उनकी नकल मिल जाने से यह प्रेरणा हुई कि इन पत्रों से साधकों को विशेष लाभ हो सकता है, इसलिये इन पत्रों को प्रकाशित करने का प्रयास किया जा रहा है। उस समय जिनको पत्र लिखे गये हैं वे लोग उस समय बहुत अच्छे साधक समझे जाते थे। हमें आशा है कि भगवत्प्राप्ति के इच्छुक इन पत्रों का मनन करके विशेष आध्यात्मिक लाभ उठाने की कृपा करेंगे।
उस समय जो उनके खास मित्र प्रेमी समझे जाते थे उनको जो पत्र सं. 1971 के लगभग लिखे गये, उनकी नकल मिल जाने से यह प्रेरणा हुई कि इन पत्रों से साधकों को विशेष लाभ हो सकता है, इसलिये इन पत्रों को प्रकाशित करने का प्रयास किया जा रहा है। उस समय जिनको पत्र लिखे गये हैं वे लोग उस समय बहुत अच्छे साधक समझे जाते थे। हमें आशा है कि भगवत्प्राप्ति के इच्छुक इन पत्रों का मनन करके विशेष आध्यात्मिक लाभ उठाने की कृपा करेंगे।
-प्रकाशक
(1)
वैशाख सुदी 5, संवत्, 1979
श्री पण्डितजी ज्येष्ठारामजी से जयदयाल का प्रेमसहित राम राम बंचना। भाई
हरिकिशन दूकान के काम से चाकोलिया गया है। इसलिये ‘श्री
प्रेमभक्तिप्रकाश’ पुस्तक भेजने में कुछ और विलम्ब होने की आशा
है।
पहले मैंने आपको जल्दी भेजने का विचार है ऐसा लिखा था, किन्तु अचानक दूकान
का सांसारिक विषय का जरूरी काम हो गया, तब चाकोलिया भेजना पड़ा। श्रीगाती
जी अब जल्दी तैयार हो जानी चाहिये। श्रीगीता जी के प्रकाशन में एक दिन भी
विलम्ब नहीं होवे तो ठीक है। हमारे विरुद्ध श्रीगजानन्दजी गोयन्दका ने
समाचार पत्र में खबर दी सो बहुत आनन्द की बात है। इससे क्या लाभ है, वह
प्रत्यक्ष मिलने से कहने का विचार है। आपसे प्रार्थना है कि शान्त रहना
चाहिये और भी सबको शान्त रहने के लिये कहना चाहिये। क्षमा के समान संसार
में कुछ भी नहीं है। मेरा यदि कलकत्ता आना हो जायगा तो आप लोगों को इस
विषय में सारी बात कहने का विचार है। इस समाचारपत्र से हमें बहुत उपदेश
मिल सकता है। जैसे श्रीगजानन्दजी गोयन्दका ने छपाया है।, बिना समझे लोगों
को उद्वेग हो सकता है इसलिये आपको जनाया है। किसी के उद्वेग नहीं होना
चाहिये और किसी से तकरार भी नहीं होनी चाहिये। मेरे लिये तथा
श्रीगोविन्द-भवन के लिये कोई भी किसी से तकरार करेगा, उसको मैं
उत्तम नहीं समझूँगा।
(2)
श्रीबैजनाथजी केडिया से जयदयाल का प्रेमसहित राम-राम। आपका साधन किस तरह
चलता है ? काम, क्रोध, लोभ, मोह का वेग कम होकर श्रीपरमात्मदेव में अनन्य
प्रेम जल्दी होना चाहिये। आपको हर समय विचार करना चाहिये कि जल्दी कल्याण
किस तरह हो। यदि ऐसे अवसर पर भी बिना भगवत्प्राप्ति के रह जायेंगे तो फिर
ऐसी अवस्था बैठनी बहुत मुश्किल है। आपने ऑफिस का काम अपने उद्धार की
चेष्टा के लिये छोड़ा था, किन्तु अभी तक ऐसा तेज साधन आपका नहीं हुआ है,
जिसके बल से भगवत्प्राप्ति जल्दी हो जाय। आपका साधन ढ़ीला तो होना ही नहीं
चाहिये, अपितु, दिन-दिन बहुत तेज होना चाहिये। आपको किस बात की कमी है तथा
आपको तेज साधन में रुकावट किसलिये हो रही है। आपको भगवान् के लिये जोर से
उत्कण्ठा क्यों नहीं होता। यदि ऐसी ही अवस्था में प्राण चले जायँ तो कितनी
हानि है, फिर क्या उपाय है। इस तरह विचार कर बहुत जल्दी के साथ कल्याण का
उपाय करना चाहिये। फिर कब करेंगे ? दिन बीते जाते हैं, गया हुआ दिन वापस
नहीं आता।
(3)
वैशाख सुदी, 5, संवत 1979
श्रीमोदीरामजी हाँसीवाले से जयदयाल का प्रेमसहित राम-राम बंचना। आपने लिखा
कि आपकी माया को आप ही जानें, इस प्रकार नहीं लिखना चाहिये। आपने लिखा कि
ऐसा ध्यान कब होगा कि श्रीसच्चिदान्दघन भगवान् का ध्यान करते हुए
श्रीसच्चिदानन्दमय ही हो जायँ और शरीर तथा संसार का कुछ भी ज्ञान नहीं
रहे। जब श्रीपरमात्मदेव के नाम का जप करते-करते रोमाञ्च और अश्रुपात होने
लग जायगा, तब भगवान् में पूर्ण अनन्य प्रेम हो जायेगा। उस दिन आपके लिखे
अनुसार श्रीपरमात्मदेव का ध्यान होना कुछ भी बड़ी बात नहीं है और ऊपर लिखे
अनुसार ध्यान रहने का उपाय पूछा सो सत्संग और भजन की ही विशेष चेष्टा करनी
चाहिये तथा शास्त्रों का विचार करना चाहिये। श्रीगीताजी यदि हो सके तो
अर्थ सहति कण्ठस्थ कर लेना चाहिये और काम करते हुए भी भगवान् के प्रेम में
मग्न होते हुए और उनके नाम जप तथा ध्यान करते हुए ही काम करने का अभ्यास
करना चाहिये। इस भाँति अभ्यास तेज होने से ध्यान अटल हो सकता है, फिर
श्रीसच्चिदानन्द का ध्यान छूट नहीं सकता।
जब तक ध्यान अच्छी तरह नहीं होवे, तबकर ही ध्यान का साधन कुछ कठिन मालूम देता है। आपने लिखा कि गोविन्द-भवनमें हीरालालजी से कितनी बार ध्यान सुना गया, किन्तु इस अनुसार ध्यान फिर नहीं हुआ सो पश्चाताप हुआ। अभ्यास करने से ध्यान हो सकता है। सुनने के समय एकाग्रचित्त होकर सुनना चाहिये, फिर ध्यानमें मग्न रहते हुए ही रास्ते चलना चाहिये। और चाहे सो होओ, ध्यान नहीं छूटना चाहिये, इस प्रकारका नित्य अब्यास करने से काम हो सकता है। किसी समय थोड़ी चेष्टा से ध्यान हो जाता है और किसी समय ज्यादा चेष्टा करने से भी नहीं होता जब सात्विक वृत्ति होती है, तब तो थोड़ी चेष्टा से भी ध्यान हो जाता है, जब राजसी वृत्ति होती है तब अधिक चेष्टा करनी पड़ती है, तामसी वृत्ति होनेपर भगवान् का ध्यान होना ही कठिन है।
इसलिये निरन्तर सात्त्विक वृत्ति रखने के लिये सात्त्विक कर्म करने चाहिये। पूजा-पाठ, भजन-ध्यान आदि उत्तम कामों से सात्त्विक वृत्तियाँ जल्दी हो सकती हैं, और कोई उपाय नहीं है। आपने जपकी चेष्टा लिखी सो ठीक है। किसी वक्त आनन्द का बहुत उत्तम ध्यान होता है, वह भजन सत्संग का ही प्रताप है। आपने लिखा कि हमारा आचरण बहुत खराब है, भगवान् पतितपावन हैं, इसीलिये धीरज है सो आनन्दकी बात है। उपस्थित लोगोंने यथायोग्य लिखाया है। चिट्ठी में मेरी बड़ाई के समाचार लिखे सो नहीं लिखना चाहिये। पहले भी मनाही की थी। चिट्ठी जल्दीमें दी है फिर फुरसत मिलने से देने का विचार है।
जब तक ध्यान अच्छी तरह नहीं होवे, तबकर ही ध्यान का साधन कुछ कठिन मालूम देता है। आपने लिखा कि गोविन्द-भवनमें हीरालालजी से कितनी बार ध्यान सुना गया, किन्तु इस अनुसार ध्यान फिर नहीं हुआ सो पश्चाताप हुआ। अभ्यास करने से ध्यान हो सकता है। सुनने के समय एकाग्रचित्त होकर सुनना चाहिये, फिर ध्यानमें मग्न रहते हुए ही रास्ते चलना चाहिये। और चाहे सो होओ, ध्यान नहीं छूटना चाहिये, इस प्रकारका नित्य अब्यास करने से काम हो सकता है। किसी समय थोड़ी चेष्टा से ध्यान हो जाता है और किसी समय ज्यादा चेष्टा करने से भी नहीं होता जब सात्विक वृत्ति होती है, तब तो थोड़ी चेष्टा से भी ध्यान हो जाता है, जब राजसी वृत्ति होती है तब अधिक चेष्टा करनी पड़ती है, तामसी वृत्ति होनेपर भगवान् का ध्यान होना ही कठिन है।
इसलिये निरन्तर सात्त्विक वृत्ति रखने के लिये सात्त्विक कर्म करने चाहिये। पूजा-पाठ, भजन-ध्यान आदि उत्तम कामों से सात्त्विक वृत्तियाँ जल्दी हो सकती हैं, और कोई उपाय नहीं है। आपने जपकी चेष्टा लिखी सो ठीक है। किसी वक्त आनन्द का बहुत उत्तम ध्यान होता है, वह भजन सत्संग का ही प्रताप है। आपने लिखा कि हमारा आचरण बहुत खराब है, भगवान् पतितपावन हैं, इसीलिये धीरज है सो आनन्दकी बात है। उपस्थित लोगोंने यथायोग्य लिखाया है। चिट्ठी में मेरी बड़ाई के समाचार लिखे सो नहीं लिखना चाहिये। पहले भी मनाही की थी। चिट्ठी जल्दीमें दी है फिर फुरसत मिलने से देने का विचार है।
(4)
वैशाख सुदी 5, संवत 1979
श्रीज्वाला प्रसादजी से जयदयाल का प्रेमसहित राम-राम। आपकी चिट्ठी ठीक समय
पर मिल गयी। आपके गोरखपुर जाने से कई आदमियों के अच्छा लाभ पहुँचा। आपका
तो जिस जगह जाना हो उस जगह लाभ है। श्रीकेदारनाथ जी से जयदयाल का
प्रेमसहित राम-राम बंचना। मुझे प्रणाम नहीं लिखना चाहिये, केवल राम-राम
लिखना चाहिये, आप चित्त में कुछ विचार मत लायें, हम उलाहना लिखें तो भी
प्रसन्न होना चाहिये। प्रसन्न होने से पुनः उलाहना लिखा जाता है। प्रेम
हुए बिना उलाहना भी कम लिखा जाता है। जहाँ भय, संकोच, मान-अपमान छोड़कर भी
बहुत प्रसन्नता रहे, वह प्रेम अधिक समझना चाहिये और उलाहना के भयसे डर लगे
तथा मन मलिन होवे, वहाँ प्रेम श्रद्धा कम समझनी चाहिये। मशीन खराब होनेके
कारण प्रूफ भेजने में ढील हुई उसके लिये भी विचार नहीं करना चाहिये,
क्योंकि अभी तो श्रीगाताजी में कुछ दिन लग सकते हैं। एक सप्ताह लग जाय तो
कोई बड़ा बात नहीं है, इतने में चित्र छापना कौन बड़ी बात है।
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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