समाजवादी >> कोई वीरानी सी वीरानी है कोई वीरानी सी वीरानी हैविजयमोहन सिंह
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प्रतिभाएँ या तो कुंठित हो रही है या अपनी वहशत में क्रमिक हत्याओं तथा आत्महत्याओं की ओर उग्रसर।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह ‘वीरानी’ किसकी है ? दिल का, दिमाग का और पूरे परिवेश का ? ...उपन्यास लेकिन ‘वीरानी’ की तलाश नहीं है। तलाश है इस वीराने में अर्थ की। प्रतिभा और परिवेश सब बंजर हो रहे है। प्रतिभाएँ या तो कुंठित हो रही है या अपनी वहशत में क्रमिक हत्याओं तथा आत्महत्याओं की ओर उग्रसर। एक तीसरा रास्ता है : अपनी चतुर, कुटिल बुद्धि का लिप्सा में लिथड़ा भोगलिप्त उपयोग। यह कथा इन तीनों पथों के पथिकों की एक स्थाली ‘पुलाक् न्याय' जानकारी देती है। एक सामूहिक अक्षमता है जो हर कहीं जाकर अवरुद्ध हो जाती है : चाहे वह सफलता का रास्ता हो, सुविधाओं के संसार का या संबंध, साहचर्य और प्रेम के निर्वाह का। ...आज का आदमी या तो सिनिकल है या ऐसा समझदार जो हर शिकार के बाद एक तताजा मछली की तलाश में है लेकिन हर मछली एक मरी हुई मछली है। ...यह एक संस्कृति की कहानी भी है जो कला और प्रचलन में फर्क करना भूल गई है। यह वीरानी उस विविधता की भी है क्योंकि जितनी विविधता होगी, उतनी ही वीरानी बढ़ेगी। संकेतों, प्रतीकों तथा प्रयोजनार्थ निर्मित नाटकीय कथास्थितियों में मित कथन को माध्यम बनाकर लिखा गया यह उपन्यास अपने व्यंजनार्थ में ही सबकुछ व्यक्त करने की चेष्टा है। सहज तथा सरल-सी प्रतीत होनेवाली इस कथा में एक काल है जो अपनी बंजरता में विस्तृत होता जा रहा है : एक सामंती युग के अवशेष का अंत तो दूसरी ओर तथाकथित आधुनिक का अनुभव, अनुभूति का स्पर्शहीन अनवरत स्थानान्तरण : कस्बा, नगर, महानगर तथा परदेश-गमन की दिशाहीन यात्राओं की ओर। इन्हीं सबके इस सर्वव्यापी ‘आइसबर्ग’ के महज एक नाखून का रेखांकन है यह। कम से कम दिखने और अधिक से अधिक दिखाने का प्रयास। इसीलिए इसमें सायास कुछ नहीं है : जो है वह दृश्य में। व्याख्याओं, विश्लेषणों तथा स्थापनाओं के रूप में कुछ नहीं। एक व्यक्तिगत, सामूहिक, सामाजिक अथवा सांकृतिक वीरानी अपने बयान में ही व्यक्त हो सकती हैं-व्याख्या या बड़बोलेपन में नहीं।
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