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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

लक्ष्मीजी कहां रहती हैं


रुक्मिणीजीने लक्ष्मीजीको चञ्चला देख उनसे प्रश्र किया-'आप कहाँ विराजमान है?' उन्होंने अपने प्रिय व्यक्तियोंके चरित्रके सद्गुण बताते हुए उत्तर दिया-

वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणि वर्त्तमाने।
अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्णसत्त्वे।।

'मैं सुन्दर, मधुरभाषी, चतुर, अपने कर्त्तव्यमें लीन, क्रोधहीन, भगवत्परायण, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय और बलशाली पुरुषके पास बराबर बनी रहती हूँ।'

ऊपर जिन दिव्य चारित्रिक गुणोंका संकेत है, उनमें सुन्दरताके अतिरिक्त अन्य सब ऐसे हैं, जिनका विकास यदि पूर्ण संकल्पसे किया जाय, तो प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। बहुतसे गुण तो मनुष्यके अधीन है। सत्य है कि मधुरभाषण और व्यवहार करनेवाले, चतुर और अपने कर्त्तव्यमें सतत लीन व्यक्ति सदा धनी बने रहते हैं। जो अपनी इन्द्रियोंकी विषयिताको वशमें रखते हैं, वे निश्चय ही लक्ष्मीके प्रिय पात्र होते हैं। श्रीलक्ष्मीजी स्वयं कहती हैं-

स्वधर्मशीलेषु च धर्मवित्सु वृद्धोपसेवानिरते च दान्ते।
कृतात्मनि क्षान्तिपरे समर्थे क्षान्तासु दान्तासु तथाबलासु।।

'मैं स्वधर्मका आचरण करनेवाले, धर्मकी मर्यादाको जाननेवाले, वृद्धजनों अथवा गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर रहनेवाले, जितेन्द्रिय, आत्मविश्वासी, क्षमाशील और समर्थ पुरुषोंके साथ रहती हूँ। साथ ही जो स्त्रियों सदा सत्यवादिनी, सत्याचरण-परायण, सदा निष्कपट तथा सरल स्वभाव-सम्पन्ना रहती हैं, वे भी मुझे बहुत पसंद है।' इसी प्रकार देवता और गुरुजनोंकी पूजामें निरत और सदा हँसमुख रहनेवाली सौभाग्ययुक्त, गुणवती, पतिव्रता, कल्याणकामिनी और अलंकृत स्त्रियोंके पास रहनेमें मुझे बड़ा आनन्द आता है।

इनके अतिरिक्त, ब्रह्मवैवर्त्तपुराणमें, लक्ष्मीजीके अनेक बहुमूल्य वचनामृत मिलते हैं, जिनसे उनके स्वभावपर प्रकाश पड़ता है। कुछ वचन देखिये। एक स्थानपर कहा है-

स्थिता पुण्यवतां गेहे सुनीतिपथवेदिनाम्।
गृहस्थानां नृपाणां वा पुत्रवत्पालयामि तान्।।

निति-मार्गपर चलनेवाले, पुण्य-कर्म करनेवाले गृहस्थ तथा राजाओंके यहाँ मैं टिकी रहती हूँ और ऐसोंका मैं अपने प्रिय पुत्रोंके समान पालन करती हूँ।

परिश्रमी और उद्योगी व्यक्ति सदा समृद्ध देखे जाते हैं। लक्ष्मी सदा उद्योग करनेवालेके पास रहती हैं। जब कोई व्यक्ति उद्योग-धंधा, व्यापार और परिश्रम

त्याग देता है, तब नाराज होकर लक्ष्मीजी वहांसे चली जाती हैं। उनके परिश्रम और उद्योगप्रियताको लक्ष्यकर ही कहा गया है-

'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः।'

-उसी पुरुषश्रेष्ठको ही लक्ष्मी प्राप्त होती हैं जो उद्योग-परायण होता है।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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