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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

आलस्य न करना ही अमृत पद है


बुद्धभगवान्ने एक स्थानपर कहा है कि 'अप्रमाद ही अमृत पद है।' अप्रमाद अर्थात् आलस्य न करना ही उन्नतिके इच्छुकके लिये श्रेष्ठ है। आलस्य करनेसे बड़े-से-बड़े शक्तिशाली व्यक्ति, सम्पन्न व्यापारी, समृद्ध देश, समुन्नत जातियाँ विनष्ट हो जाती हैं। कारण, आलस्यसे मनुष्यका मन, बुद्धि और शरीर तीनों ही दुर्बल बन जाते हैं और उच्च शक्तियाँ पंगु हो जाती हैं।

गीतामें कहा है-'श्रद्धावाल्लँभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः' कार्यमें तत्पर, संयमी एवं श्रद्धालुको ही ज्ञान प्राप्त होता है। जो आलस्यमें जीवन व्यतीत नहीं करता और निरन्तर कर्त्तव्य-रत रहता है, उसे दीर्घायु प्राप्त होती है।

आलसी व्यक्तिके लिये किसी भी प्रकारकी उत्कृष्टता प्राप्त करना कठिन है। कारण, वह अपनी शक्तियोंको आलस्यकी केंचुलीमें ढके रहता है। उद्योग तथा परिश्रमद्वारा उन्हें विकसित नहीं कर पाता। जबतक उद्योग नहीं, परिश्रममें प्रवृत्ति नहीं, तबतक शक्तियोंका विकास नहीं हो सकता। आलस्य और उन्नति साथ-साथ नहीं चल सकते।

आलस्य एक प्रकारका अन्धकार है, जो आत्मापर, शक्तियोंपर और मनुष्यकी भावी उन्नति एवं प्रगतिपर तुषारापात कर देता है। आलसी पड़ा-पड़ा यही सोचा करता है कि मेरा काम कोई अन्य व्यक्ति कर दे, मेरी तरक्की करा दे। बाजारसे मेरे घरकी नाना वस्तुएँ ला दे; दफ्तरका काम भी अन्य कोई साथी ही कर दे। आलसी अफसर अपने छोटे मातहतोंके वशमें रहते हैं। वे जो पत्र या ड्राफ्ट लिख देते हैं, उसीपर हस्ताक्षर कर देते हैं। ठीक है या गलत, उचित है या अनुचित, क्या बातें लिख दी गयी हैं, यह भी नहीं देखते। बड़े-बड़े व्यापारियोंके दिवाले प्रायः उनके हिसाब-किताब आय-व्ययका ठीक ब्योरा न रखनेके कारण निकलते है। वे उधारपर उधार दिये जाते हैं, पर उसे वसूल करनेमें आलस्य करते रहते हैं। रक्में उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं और अन्तमें सारी पूँजी ही उधारवालोमें बँट जाती है। आलसी माता-पिता अपने बच्चोंकी पढ़ाई-लिखाई, उन्नति आदिको नहीं देखते। फलतः बच्चे उतनी उन्नति नहीं कर पाते, जितनी वस्तुतः उन्हें करनी चाहिये। यदि वे अपना आलस्य छोड़कर उनपर एक तीखी दृष्टि रखा करें, स्वयं भी काममें अपना सहयोग देते रहें, तो पर्याप्त प्रगति हो सकती है।

प्रकृतिको देखिये, उसका काम कैसा नियमबद्ध होता है। प्रत्येक वस्तु अपना-अपना निर्धारित कार्य निश्चित समयपर करती चलती है। आलस्यका नाम-निशान-तक नहीं। आलसी सदस्योंके प्रति प्रकृति बड़ी निष्ठुर है। आलसीकी बड़ी दुर्गति होती है। अन्तमें सजाके तौरपर वहाँ मृत्युदण्डतकका विधान है। प्रकृतिका प्रत्येक सदस्य अन्ततक अपना काम सक्रियतासे करता है।

पशु-पक्षियोंमें भी आलस्यको स्थान नहीं है। मधुमक्खियोंके छत्तेमें नर मक्खीका कार्य केवल संतानोत्पत्ति मात्र है। वह कोई कार्य नहीं करता। बैठा-बैठा खाता है। आलसी-अकर्मण्य पड़ा रहता है। आप जानते हैं, उसे इसकी क्या सजा मिलती है? तिरस्कार और व्यंग्य, ठोकरें और अन्तमें मृत्यु। मादा मक्खियाँ दिनभर जी तोड़कर परिश्रम करती हैं, कुछ-न-कुछ मधु संचित करती जाती हैं। फलतः उनके छत्तेमें समृद्धिका भंडार बना रहता है। पर्याप्त संग्रह होनेपर भी वे आलस्य नहीं करतीं। उनका श्रम उसी रफ्तारसे चलता रहता है। अन्य पशुओंमें भी आलसी पशु-पक्षियोंकी दुर्गति है।

अब मनुष्योके समाजकी ओर देखिये। उद्योगी और परिश्रमी व्यक्ति ही आपको सुखी और समृद्ध दिखायी देंगे। मनुष्यका जन्म भले ही निर्धन परिवारमें हो, उसके पास जातिश्रेष्ठता या घरकी जमीन-जायदाद कुछ भी न हो, केवल उद्योग और श्रमकी आदतें हों, आलस्यसे मुक्त हो, तो वह धन और कीर्ति प्राप्त कर सकता है।

कीर्ति और लक्ष्मी श्रम और उद्योगके आधीन है। जो आलस्य नामक शिथिल करनेवाली और शक्तियोंको पंगु बनानेवाली आलसी वृत्तिको छोड़ेगा, वह निश्चय ही यश, प्रतिष्ठा और कीर्ति प्राप्त करेगा।

आलस्य एक प्रकारका तमोगुणसे उत्पन्न विकार है। बहुत-से मनुष्य अनापशनाप भक्ष्य-अभक्ष्य अनेक पदार्थ बड़ी तादादमें भक्षण कर लेते है। अधिक भोजनसे? उन्हें निद्रा बहुत सताती है। राक्षसोंकी तरह पड़े-पड़े सोया करते है, अकर्मण्य बन जाते हैं और अपने दैनिक कर्त्तव्योंका भी पूरी तरह पालन नहीं कर पाते। दफ्तरमें, दूकानमें, अपने वायदोंमें तमोगुणी व्यक्ति सदा पिछड़ा रहता है। जैसे सर्प केंचुलिमें लिपटकर निष्क्रिय हो जाता है; एक स्थानपर पड़ा रहता है, वैसे ही आलस्यमें फँसकर हमारा मन थोड़ी देरके लिये कामसे दूर भागता है। बस पड़े रहें, कुछ न करें, यही तबियत चाहती है। आपने अजगर देखा है। उसका बहुत बड़ा शरीर है।, पूरेके पूरे जानवर निगल जाता है और फिर पड़ा-पड़ा सोया करता है। दस-दस दिन सोते हुए व्यतीत हो जाते है। सोते हुए उसपर नाना विपत्तियाँ आती रहती हैं। इन्द्रियसुख, अधिक भोजन, विषय-भोग, बलात्कार, व्यभिचार, अहंकार, क्रूरता, निष्ठुरता-इन सब बुरे विकारोंका सम्बन्ध आलस्यसे है। फालतू पड़ा हुआ दिमाग शैतानका घर है-यह सत्य अंक है। आलसी पड़ा-पड़ा बुरी वृत्तियोंका शिकार कार बनता जाता है। उसकी आसुरी वृत्तियाँ उद्दीप्त हो उठती है। भोगकी इच्छा, ही उसमें निरन्तर बढ़ती जाती है। आलसी इस कर्म-क्षेत्रके लिये तो किसी कामका रहता ही नहीं, उच्च जीवन, त्याग, प्रेम, तप, संयम भी नहीं साध पाता। आलस्य और परमार्थका वैर है। आलसी व्यक्ति नालीके कीड़ेकी तरह वासना-सुखको ही जीवनका लक्ष्य मानता रहता है।

संसारके इतिहासको उठा देखिये। वे जातियाँ नष्ट हो गयीं, जो आलसी और विलासी बनीं। जिस जाति और समाजमें आलस्य भर जाता है-वह यश, प्रतिष्ठा और नेतृत्व तीनों ही दिशाओंमें अवनतिके मार्गपर अग्रसर होती जाती है। इन्द्रिय-सुख, विलास और आलस्य उसको जर्जर तथा अश्क्त कर देते हैं।

एक विद्वान्ने सत्य ही लिखा है, 'सर्वतोमुखी उन्नतिके लिये यह जरूरी नहीं है कि मनुष्य धनी हो अथवा उसके पास सब प्रकारके साधन मौजूद हों। यदि ऐसा होता, तो संसार उन सब युगोंमें उन मनुष्योंका ऋणी न होता, जिन्होंने निम्न श्रेणीसे उन्नति की है। जो मनुष्य आलस्य और ऐश-आराममें अपने दिन बिताते है, उनमे उद्योग अथवा कठिनाइयोंका सामना करनेकी आदत नहीं पड़ती और न उनको उस शक्तिका ज्ञान होता है, जो जीवनमें सफलता प्राप्त करनेके लिये परम आवश्यक है। गरीबीको लोग मुसीबत समझते है, परंतु वास्तवमें बात यह है कि यदि मनुष्य दृढ़तापूर्वक अपने पैरोंपर खड़ा रहे तो वह गरीबी उसके लिये आशीर्वाद हो सकती है। गरीबी मनुष्यको संसारके युद्धके लिये तैयार करती है, जिसमें यद्यपि कुछ लोग नीचता दिखाकर विलासप्रिय हो जाते है, परंतु समझदार और सच्चे हृदयवाले मनुष्य बल और विश्वासपूर्वक लड़ते है और सफलता प्राप्त करते हैं।'

आजका मनुष्य समय न मिलनेकी बड़ी शिकायत किया करता है। अध्ययन समाचार-पत्रका पठन-पाठन, पूजा-पाठ, सद्ग्रन्थावलोकन या प्रातः भ्रमण इसलिये नहीं करते; क्योंकि उनकी रायमें उन्हें इन कार्योंके लिये अवकाश ही नहीं मिलता। वास्तवमें ये व्यक्ति अपना अधिकांश समय आलस्यमें ही खो देते हैं। फुरसतमें अमुक काम करूँगा, अवकाश मिलनेपर अमुकसे मिलने जाऊँगा; पूजा शुरू करूँगा, जप-प्रार्थना इत्यादि प्रारम्भ करूँगा, अमुकको पत्र लिखूँगा-पर आलसी वृत्ति उन्हें निरन्तर टालती ही रहती है। ठोस काम करनेका अवसर ही नहीं आता। टालनेसे उत्साह मन्द पड़ जाता है और फल यह होता है कि आवश्यक कार्य भी सम्पन्न नहीं हो पाते।

मान लीजिये आप प्रातः छः बजे उठनेके आदी है। यदि आलस्य त्यागकर आप किसी प्रकार प्रातः पाँच बजे उठ जाया करें, तो एक घंटा जीवनका और मिल सकता है। महीनेमें तीस घंटे मिल गये। अब यदि इन तीस घंटोंमें कोई नया काम प्रारम्भ किया जाय, तो निश्चय ही आप संसारको कोई नयी वस्तु देकर अपना नाम चिरस्थायी बना सकते हैं।

प्रसिद्ध विचारक श्रीअगरचन्द नाहटाने आलस्यके इस पक्षपर विचार करते हुए लिखा है-जो कार्य अभी हो सकता है, उसे घंटों बाद करनेकी मनोवृत्ति आलस्यकी निशानी है। एक कार्य हाथमें लिया और करते चले गये, तो बहुतसे कार्य पूर्ण हो सकेंगे। पर बहुतसे काम एक साथ लेनेसे किसे पहले किया जाय, इसी दुविधामें समय बीत जाता है और एक भी कार्य पूरा और ठीकसे नहीं हो पाता है। अतः जो कार्य आज और अभी हो सकता है, उसे कलके लिये न छोड़ तत्काल कर डालिये। दूसरी बात ध्यानमें रखनेकी यह है कि एक साथ अधिक कार्य हाथमें न लिये जायँ; क्योंकि किसी भी कार्यमें पूरा मनोयोग एवं उत्साह न रखनेसे सफलता नहीं मिल सकेगी। अतः एक-एक कार्यको हाथमें लिया जाय और क्रमशः सबको कर लिया जाय, अन्यथा सभी कार्य अधूरे रह जायेंगे और पूर्ण हुए बिना किसी भी कामका फल नहीं मिल सकता। जैन ग्रन्थोंमें बाधा डालनेवाली तेरह बातोंमें, आलस्य पहली है। बहुत बार बना-बनाया काम तनिकसे आलस्यके कारण बिगड़ जाता है। क्षणमात्र भी प्रमाद न करनेका भगवान् महावीरने उपदेश दिया है। अतः पुनः विचार कर प्रमादका परिहार कर कार्यमें उद्यमशील होना परमावश्यक है। जैन-दर्शनमें प्रमाद निकम्मेपनके ही अर्थमें नहीं है, परंतु समस्त पापाचरणके आसेवनके अर्थमें भी है। पापाचरण करके जीवनके बहुमूल्य समयको व्यर्थ न गँवाइये। आत्माकी शक्तिका ठीक तरह उपयोग नहीं होता, तो पापाचारी व्यक्ति, उसका दुरुपयोग करता है।'

आलस्यसे मुक्त कैसे हों? पहले तो आलस्यके विरोधमें मनमें दृढ़ संकल्प कीजिये कि 'हम अपने चरित्रमें आये हुए आलस्यको अवश्य दूर करेंगे, जब आलस्य आकर हमारे मन और इन्द्रियोंको शिथिल करेगा, हम फौरन सचेत हो जायँगे। समयका उचित उपयोग करेंगे'-मनमें यह धारणा जम जानेके बाद सक्रियताकी आवश्यकता है।

मान लीजिये आपने निश्चय किया है कि आप बड़े तड़के चार बजे ही उठ बैठेंगे। शौचादि-व्यायाम-स्नान-पूजन-प्रार्थना आदि नित्य-कर्म एक घंटेमें समाप्त करके और पाँच बजे ही अपने दैनिक कार्यमें पूर्ण मनोयोगसे जुट जायेंगे।

किंतु, जब आप प्रातःकाल शय्यात्याग करनेका प्रयत्न करेंगे, तो मनका शैथिल्य आपको कुछ देर और सोये पड़े रहनेके लिये खींचेगा। शरीर कोमल शय्यापर पड़ा रहना चाहेगा। यही आपकी परीक्षाका क्षण है। फौरन उठ पड़िये और आलस्य नामक राक्षसको पछाड़ दीजिये।

जिस कठिन कार्यको करनेके लिये तबियतमें आलस्य उत्पन्न हो, उसे जरूर किया कीजिये। मान लीजिये, आप मनमें यह अनुभव करते है कि अमुक व्यक्तिसे मिलने जाना आवश्यक है, तो मनको मोड़कर जरूर यह काम कीजिये। जिन-जिन पत्रोंका उत्तर लिखना है, अवश्य ही उनका उत्तर लिखिये। लिखनेमें आलस्य कभी न कीजिये।

सम्भव है आपको मानसिक श्रमसे आलस्य हो। आप कठिन विषयोंके अध्ययनमें चित्तको एकाग्र न कर पाते हों। दिलबहलावकी कहानियों, पुस्तकों, उपन्यासों या कामुक रुचि बढ़ानेवाले साहित्यमें ही दिलचस्पी लेंते हों, यदि ऐसा है तो मनको दृढ़तासे इन रसीले घातक विषयोंसे हटाइये और यथार्य ज्ञानप्रद गम्भीर बिषयोंमें दिलचस्पी लेनेवाला बनाइये। सब ओरसे मन हटाकर एक ही विषयपर देरीतक मनको केन्द्रित कीजिये। जो समय आपने उक्त विषयके अध्ययनके लिये निश्चित किया है, उतनी देर अवश्य पढ़िये अन्यथा एक बार शैथिल्य आनेसे आदत और अनुशासन भंग हो जायगा और निश्चय बल भी कम हो जायगा।

हमें फासिस्ट-शिक्षा-पद्धतिकी कुछ उपयोगी बातें विशेषतः उनका अनुशासन और किसी समय भी बेकार न बैठनेका नियम अवश्य अपने राष्ट्रीय चरित्रमें उतारना चाहिये। तभी लोकतन्त्रकी रक्षा हो सकेगी। बालकोंकी अभ्यास कराना चाहिये कि वे अपना-अपना दैनिक कार्य करें, वस्तुओं और विशेषतः कपड़ोंको सफाईसे तह करके रखें, जूतोंको पालिश करें, वस्तुओंको उनके लिये नियत स्थानोंपर ही रखा करें।

आलस्य एक प्रकारकी बुरी आदत मात्र है। मन, शरीर, दिमाग, वाणी-सभी प्रकारके आलस्य हमारी आदतोंके परिणाम हैं। यदि माता-पिता आरम्भसे ही बच्चोंमें अनुशासन रखें और उनका मानसिक और शारीरिक कार्य सतर्कतासे करानेकी आदतें डालें तो एक पीढ़ी ही सुधर सकती है।

स्मरण रखिये निकम्मेपन और आलस्यमें भी एक प्रकारका घृणित आकर्षण है। सैकड़ों व्यक्ति आलस्यके गन्दे कूपमें पड़े है और उसीको श्रेष्ठ समझ रहे है। उन्हें अपने जीवनसे अधिक-से-अधिक कार्य लेनेके लिये कमर कसकर तैयार हो जाना चाहिये।

'आलस्य हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः'

अर्थात् मनुष्योंका शरीरमें रहनेवाला सबसे बड़ा शत्रु आलस्य ही तो है।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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