गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
|
443 पाठक हैं |
इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥
(गीता ६।१४)
यह श्लोक भारी काम देनेवाला है इसमें ७ विशेषता है। यहाँ सगुण भगवान्का
प्रकरण है।
प्रशान्तात्मा-विक्षेपरहित
विगतभीः-सर्वथा भयरहित
ब्रह्मचारिव्रतेस्थित:-ब्रह्म परमात्मामें विचरण, परमात्मामें क्रीड़ा करना,
जिन चीजोंसे ब्रह्मचर्यकी हानि हो, ऐसी चीजोंका मनसे भी चिन्तन न करना।
मन:संयम्य-मनको अपने वशमें करके
युक्त:-समाहित चितको युक्त कहते हैं।
मत्पर: आसीत-भगवान्के परे और कुछ है ही नहीं, ऐसे ध्यानमें मस्त हो जाय।
इष्टदेवका चित्र सामने रखे, चरणोंसे मस्तकतक सारा शरीर देखे। कभी नेत्र खोले
कभी मीचे ऐसा अभ्यास करे, विश्वास करे कि प्रभुके दर्शन हो जायेंगे। मुझको
मिलेंगे इसमें कोई शंका नहीं है। आलस्य, विक्षेप तो प्रभुकी कृपासे आ ही नहीं
सकते। नेत्रोंको बन्द करके मानसिक मूर्तिका ध्यान हृदयमें या बाहरमें करे।
दोनोंका एक ही फल है। प्रभुका आह्वान करना चाहिये हे नाथ, हे प्रभु हम सबके
लिये आप ही आश्रय हैं। विरह में व्याकुल होकर गोपियोंकी तरह ध्यान करे।
प्रेमभक्तिप्रकाशमें दी गयी विधिके अनुसार मानसिक पूजन, आरती, स्तुति करे। आप
ही सर्वस्व हैं, उत्पत्ति, स्थिति, पालन करनेवाले आप ही हैं। हे नाथ ! ऐसे ही
आप सदा दीखते रहें। आपसे कभी हमारी वृत्ति हटे ही नहीं, आपमें ही अनन्य प्रेम
हो। ध्यानावस्थामें प्रभुसे वार्तालाप नामक पुस्तकको दो-चार बार पढ़ ले, उसके
ही ढंगसे वार्तालाप करे। इस प्रकार वृत्तियाँ इधर-उधर नहीं जातीं। ध्यान न हो
जब भगवान् नहीं आते तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है। आपका वियोग मैं सह रहा हूँ।
हे नाथ! मैं बड़ा पापी हूँ। यह खूब आशा रखनी चाहिये, निश्चय रखना चाहिये,
प्रतीक्षा करनी चाहिये कि भगवान् अब आये, अब आये। मनमें धारणा करनी चाहिये कि
भगवान्के आनेके पहले ही नेत्र बन्द करनेपर भी महान् शान्ति, महान् प्रकाश हो
जाता है। प्रकाश दिव्य है, शान्त है, बहुत रमणीय है। सब दिशाएँ एकदम निर्मल
हो गयी हैं। बड़ी भारी सुगन्धि आयी है, प्रभुकी गन्ध लेकर हवा चली है।
आनन्दका स्रोत-सा आ जाता है, मुग्ध हो जाते हैं, उमड़ पड़ा है, यह परिस्थिति
भगवानके आनेके पूर्व ही हो जाती है। रोम-रोममें ज्ञानकी दीति प्रकाशित हो रही
है मानो ज्ञानके समुद्रमें डाल दिया गया है। भगवान्के प्रकट होनेके पूर्व ही
उत्तरोत्तर इनकी वृद्धि देखता है। देखो कैसी शान्ति, कितना आनन्द, कितना
ज्ञानका प्रकाश, भगवान् एक क्षणमें प्रकट हो गये। प्रकाशमय, ज्ञानमय, आनन्दमय
मूर्ति देखकर मुग्ध हो जायें। देखो कैसा उत्तम ध्यान है। कौन ऐसा मूढ़ है जो
यह ध्यान छोड़े। यह ध्यान छूट ही कैसे सकता है। भगवान्से वार्तालाप होता ही
रहता है। प्रभुके स्वरूपमें ऐसी आकर्षण शक्ति है
कि वृत्ति उसे छोड़ ही नहीं सकती। कभी-कभी उसको स्वप्नमें भगवान् मिलते हैं।
कभी स्वप्न भूल जाता है पर बड़ी शान्ति और प्रसन्नता होती है। प्रभो जैसे
स्वप्नमें मिले वैसे प्रत्यक्ष कब मिलेंगे। भगवान्का ध्यान तो फिर आसान हो
जाता है। देखे हुएका ध्यान सहज है, तुरन्त ही ध्यान हो जाता है। ध्यान करना
तो अपने हाथकी बात है। दर्शन तो अगलेकी मर्जीके ऊपर है। सूरदासजी कहते हैं-
|
- सत्संग की अमूल्य बातें