लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

443 पाठक हैं

इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


सूर्योदय होनेसे पूर्व ही तारे मन्द पड़ जाते हैं। उदय होनेपर एक अद्भुत रोशनी हम देखते हैं। हमारी वर्तमान स्थिति तो सूर्यके उदयसे दो घड़ी पूर्वकी छटा है। तारे हैं तो यथावत्, परन्तु कुछ फीके पड़े हैं। ऐसे ही धीरे-धीरे रोशनी बढ़ते-बढ़ते तारे दीखने एकदम बन्द हो जाते हैं। सूर्यकी रोशनी आते ही सब फीके पड़ जाते हैं। जबतक प्रभुकी सुंदरता हमारे सामने नहीं आती, तभीतक संसारके विषयोंमें सुन्दरता दीखती है। इसी प्रकार रस-सुख आदिकी और प्रभुकी भी कोई योग्य तुलना नहीं है। प्रभु तो प्रभु ही हैं। जाननेवाला जैसे चेतन है उस प्रकारकी चेतनता वहाँ मूर्तिमान् है।

भगवान्ने ज्ञातुम्, द्रष्टम्, प्रवेष्टुम्-तीनों बातें बतायीं बुद्धिका विषय, नेत्रोंका विषय तथा आत्माका विषय, प्रवेष्टुम्-जैसे नदी समुद्रमें प्रवेश कर गयी ऐसी बात यहाँ नहीं है, विलक्षण बात है। ऐसी एकता है जिसे कोई शब्दसे नहीं बता सकता। द्वैत और अद्वैत दोनोंसे विलक्षण स्थिति है। प्राप्तिका ढंग शब्दोंसे नहीं बतलाया जा सकता, अलौकिक है। 'प्रवेष्टुम्' में बुद्धिका दायरा नहीं है, 'ज्ञातुम्' तक ही बुद्धिका अधिकार है, इन्द्रियोंकी शक्ति भी परिमित ही है। वह भक्त स्वयं ही जानता है। यह जानना कहना भी समझनेमात्रके लिये ही है, क्योंकि जानना बुद्धिका कार्य है। वह भक्त भी बतला नहीं सकता। प्रभुकी बड़ी भारी दया है कि किसी समय प्रभुकी स्मृति हो जाती है, यह प्रभुकी विशेष दया है। प्रभुकी आज्ञाकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। जब हम प्रभुकी आज्ञाका पालन करेंगे तो हमारा काम बना हुआ ही समझो। जैसे १८ दिनमें सब सेना मर गयी, उसी प्रकार काम-क्रोधकी सेना दुर्योधनकी सेनासे कम थोड़े ही है। 'ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे' सेना तो मरेगी ही, भगवान् दयालु हैं, बागडोर अपने हाथमें ले चुके हैं, उनको ही लाज है। अगर वह इस सेनाको नहीं मारेंगे तो उसकी दयालुतामें धब्बा लगेगा। हम नालायक बनें तो क्या वे अपनी दयालुता छोड़ देंगे। उस दयालुकी बहुत भारी दया है इसे मानना चाहिये। उस दयाको स्मरण करके हम मुग्ध नहीं होते, यह हमारी कृतघ्रता है, इसीलिये हम वंचित हो रहे हैं। उपकार करनेवालेके प्रति प्रत्युपकार करना चाहिये, अगर प्रत्युपकार करनेकी सामथ्र्य न हो तो कम-से-कम उपकारको तो मानना चाहिये। प्रभु तो इतनेपर भी दया करते ही रहते हैं। हम यह स्वीकार कर लें, मान लें। हमारी नालायकी उस प्रभुकी दयासे ही मिटेगी। दो बातोंपर खयाल कर लेना चाहिये। 'ऋतेऽपि

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book