गीता प्रेस, गोरखपुर >> जीवनोपयोगी प्रवचन जीवनोपयोगी प्रवचनस्वामी रामसुखदास
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प्रस्तुत है जीवनपयोगी प्रवचन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नम्र निवेदन
परमश्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज गीता के मर्मज्ञ व्याख्याता
तो हैं ही, इनके अन्य धार्मिक विषयों पर दिये गये प्रवचन भी अत्यन्त
समयोपयोगी एवं कल्याणकारी होते हैं। स्वामीजी महाराज की भाषा अति सहज,
सुलभ और मर्म-स्पर्शी है तथा विचार अनुभव –जन्य, सार-गर्भित और
प्रेरणादायक होते हैं। सामान्य मनुष्यों के जीवन में जो निराशा, संताप और
निरर्थकता व्याप्त हो गयी है उसको दूर करके प्राणों में नयी, चेतना,
सार्थकता और सम्भावनाओं का संचार करने के लिये स्वामी जी महाराज के प्रवचन
अत्यन्त उपयोगी हैं।
प्रस्तुत पुस्तिका में संगृहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म, भक्ति एवं सेवा-मार्ग के साधकों के लिये दिशा–निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।—आवश्यकता है केवल इन विचारों को जानने की, समझने की तथा तदनुसार आचरण करने की। आशा है पाठक-गण इन जीवनोपयोगी विचारों से स्वयं लाभ उठायेंगे तथा इनका अधिक-से-अधिक प्रसार करेंगे।
प्रस्तुत पुस्तिका में संगृहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म, भक्ति एवं सेवा-मार्ग के साधकों के लिये दिशा–निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।—आवश्यकता है केवल इन विचारों को जानने की, समझने की तथा तदनुसार आचरण करने की। आशा है पाठक-गण इन जीवनोपयोगी विचारों से स्वयं लाभ उठायेंगे तथा इनका अधिक-से-अधिक प्रसार करेंगे।
प्रकाशक
मानव- जीवन का लक्ष्य
हम विचार करके देखते हैं तो स्पष्ट मालूम होता है कि मनुष्य ही
परमात्मप्राप्ति का अधिकारी है। जैसे चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्याश्रम
केवल पढ़ाई के लिये है। इसी तरह चौरासी लाख योनियों में मनुष्य-शरीर
ब्रह्मविद्या के लिये है। ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के लिये ही
मनुष्य-शरीर है और जगह ऐसा मौका नहीं है, न योग्यता है न कोई अवसर है;
क्योंकि अन्य योनियों में ऐसा विवेक नहीं होता। देवताओं में समझने की ताकत
है, पर वहाँ भोग बहुत है। भोगी आदमी परमात्मा में नहीं लग सकता।
यहाँ भी देखो, ज्यादा धनी आदमी सत्संग में नहीं लगते और जो बहुत गरीब हैं, जिनके पास खाने-पीने को नहीं है, वे भी सत्संग में नहीं लगते हैं. उन्हें रोटी-कपड़े की चिन्ता रहती है। इसी तरह नरकों के जीव बहुत दुःखी हैं। बेचारे उनको तो अवसर ही नहीं मिलता है। देवता लोग भोगी हैं, उनके पास बहुत सम्पत्ति है, वैभव है, पर वे परमात्मा में नहीं लगते, क्योंकि सुख-भोग में लगे हुए हैं, वहीं उलझे हुए हैं अतः एक मनुष्य ही ऐसा है जो परमात्मा की प्राप्ति में लग सकता है। उसमें योग्यता है। भगवान् ने अधिकार दिया है इसलिये मनुष्य-शरीर की महिमा बहुत ज्यादा है, देवताओं से भी अधिक है।
शरीर तो देवताओं का हमारी अपेक्षा बहुत शुद्ध होता है। हम लोगों का शरीर बड़ा गन्दा है। जैसे कोई सुअर मैले से भरा हुआ यदि हमारे पास आ जाता है तो उसको छूने का मन नहीं करता दुर्गन्ध आती है। ऐसे ही हम लोगों के शरीर से देवताओं को दुर्गन्ध आती है। ऐसा दिव्य शरीर है उनका। हमारे शरीर में पृथ्वीतत्त्व की प्रधानता है। देवताओं के शरीर में तेजस्-तत्त्व की प्रधानता है। परन्तु परमात्मा की प्राप्ति का अधिकार जितना मनुष्य-शरीर-वालों को मिलता है, इतना उनको नहीं मिलता। इसलिये मनुष्य शरीर की बहुत महिमा है।
उत्तरकाण्ड में श्री काकभुशुण्डिजी से गरुड़जी प्रश्न करते हैं कि सबसे उत्तम देह कौन सी है ? तो कहते हैं—मनुष्य-शरीर सबसे उत्तम है, क्योंकि ‘नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत जेही।।’ चर-अचर सब जीव इस मनुष्य-शरीर की याचना करते हैं, माँग रखते हैं। ऐसा कहकर आगे कहा—
यहाँ भी देखो, ज्यादा धनी आदमी सत्संग में नहीं लगते और जो बहुत गरीब हैं, जिनके पास खाने-पीने को नहीं है, वे भी सत्संग में नहीं लगते हैं. उन्हें रोटी-कपड़े की चिन्ता रहती है। इसी तरह नरकों के जीव बहुत दुःखी हैं। बेचारे उनको तो अवसर ही नहीं मिलता है। देवता लोग भोगी हैं, उनके पास बहुत सम्पत्ति है, वैभव है, पर वे परमात्मा में नहीं लगते, क्योंकि सुख-भोग में लगे हुए हैं, वहीं उलझे हुए हैं अतः एक मनुष्य ही ऐसा है जो परमात्मा की प्राप्ति में लग सकता है। उसमें योग्यता है। भगवान् ने अधिकार दिया है इसलिये मनुष्य-शरीर की महिमा बहुत ज्यादा है, देवताओं से भी अधिक है।
शरीर तो देवताओं का हमारी अपेक्षा बहुत शुद्ध होता है। हम लोगों का शरीर बड़ा गन्दा है। जैसे कोई सुअर मैले से भरा हुआ यदि हमारे पास आ जाता है तो उसको छूने का मन नहीं करता दुर्गन्ध आती है। ऐसे ही हम लोगों के शरीर से देवताओं को दुर्गन्ध आती है। ऐसा दिव्य शरीर है उनका। हमारे शरीर में पृथ्वीतत्त्व की प्रधानता है। देवताओं के शरीर में तेजस्-तत्त्व की प्रधानता है। परन्तु परमात्मा की प्राप्ति का अधिकार जितना मनुष्य-शरीर-वालों को मिलता है, इतना उनको नहीं मिलता। इसलिये मनुष्य शरीर की बहुत महिमा है।
उत्तरकाण्ड में श्री काकभुशुण्डिजी से गरुड़जी प्रश्न करते हैं कि सबसे उत्तम देह कौन सी है ? तो कहते हैं—मनुष्य-शरीर सबसे उत्तम है, क्योंकि ‘नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत जेही।।’ चर-अचर सब जीव इस मनुष्य-शरीर की याचना करते हैं, माँग रखते हैं। ऐसा कहकर आगे कहा—
नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी।
ग्यान बिराग भगति शुभ देनी।।
ग्यान बिराग भगति शुभ देनी।।
(मानस 7/120/5)
मनुष्य-देह नरक, स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष)—ये तीन देनेवाली है।
इसके
सिवाय परमात्मा का ज्ञान इस शरीर में हो सकता है। संसार से वैराग्य हो
सकता है और भगवान् की श्रेष्ठ भक्ति इसमें हो सकती है। इस शरीर में ये छः
बातें बतायीं। मनुष्य-शरीर एक बड़ा जंक्शन है। यहाँ से चाहे जिस तरफ जा
सकता है। ऐसी मनुष्य-शरीर की महिमा है। इस महिमा को कहते हुए पहले ही नाम
लिया—‘नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी’ नरकों में
जा सकते
हैं—यह महिमा है कि निन्दा ! मनुष्य-शरीर ऐसा है, जिसमें नरक
मिल
सकते हैं—तो यह निन्दा हुई। इसमें तात्पर्य क्या निकला ?
ऊँची-से-ऊँची और नीची-से-नीची चीज मिल सकती है इस मानव-शरीर से। यह इसकी
महिमा है।
वास्तव में महिमा है शरीर के सदुपयोग की। इसका उपयोग ठीक तरह से किया जाय तो भगवान् की श्रेष्ठ भक्ति मिल जाय, मुक्ति मिल जाय, वैराग्य मिल जाय, सब कुछ मिल जाय। ऐसी कोई चीज नहीं जो मनुष्य-शरीर से न मिल सके। गीता में आया है—
वास्तव में महिमा है शरीर के सदुपयोग की। इसका उपयोग ठीक तरह से किया जाय तो भगवान् की श्रेष्ठ भक्ति मिल जाय, मुक्ति मिल जाय, वैराग्य मिल जाय, सब कुछ मिल जाय। ऐसी कोई चीज नहीं जो मनुष्य-शरीर से न मिल सके। गीता में आया है—
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
(6/22)
जिस लाभ की प्राप्ति होने के बाद कोई लाभ शेष न रहे। मानने में भी नहीं आ
सकता कि इससे बढ़कर कोई लाभ होता है और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी
दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता। किसी कारण शरीर के टुकड़े-टुकड़े
किये जायँ तो टुकड़े करने पर भी आनन्द रहे, शान्ति रहे, मस्ती रहे। दुःख
से वह विचलित नहीं हो सकता। उसके आनन्द में कमी नहीं आ सकती।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
(गीता 6/23)
इतना आनन्द होता है कि दुःख वहां रहता ही नहीं। ऐसी चीज प्राप्त हो सकती
है मानव-शरीर से। मनुष्य-शरीर की ऐसी महिमा तत्त्व-प्राप्ति की योग्यता
होने के कारण से है। मनुष्य-शरीर को प्राप्त करके ऐसी ही तत्त्व की
प्राप्ति करनी चाहिये। उसे प्राप्त न करके झूठ, कपट, बेईमानी, विश्वासघात,
पाप करके नरकों की तैयारी कर लें तो कितना महान् दुःख है।
यह खयाल करने की बात है कि मनुष्य-शरीर मिल गया। अब भाई अपने को नरकों में नही जाना है। चौरासी लाख योनियों में नहीं जाना है। नीची योनि में क्यों जायें ? चोरी करने से, हत्या करने से, व्यभिचार करने से, हिंसा करने से, अभक्ष्य-भक्षण करने से, निषिद्ध कार्य करने से मनुष्य नरकों में जा सकता है। कितना सुन्दर अवसर भगवान् ने दिया है कि जिसे देवता भी प्राप्त नहीं कर सकते, ऐसा ऊँचा स्थान प्राप्त किया जा सकता है—इसी जीवन में। प्राणों के रहते-रहते बड़ा भारी लाभ लिया जा सकता है। बहुत शान्ति, बड़ी प्रसन्नता, बहुत आनन्द—इसमें प्राप्त हो जाता है। ऐसी प्राप्ति का अवसर है मानव-शरीर में। इसलिये इसकी महिमा है। इसको प्राप्त करके भी जो नीचा काम करते हैं, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं।
कोई बढ़िया चीज मिल जाय तो उसका लाभ लेना चाहिये। जैसे किसी को पारस मिल जाय तो उससे लोहे को छुआने से लोहा सोना बन जाय। अगर ऐसे पारस से कोई बैठा चटनी पीसता है तो वह पारस चटनी पीसने के लिये थोड़ी ही है। पारस, पत्थर से चटनी पीसना ही नहीं, कोई अपना सिर ही फोड़ ले तो पारस क्या करे ? इसी तरह मानव-शरीर मिला, इससे पाप, अन्याय, दुराचार करके नरकों की प्राप्ति कर लेना अपना सिर फोड़ना है। संसार के भोगों में लगना—यह चटनी पीसना है।
भोग कहाँ नहीं मिलेंगे ? सूअर के एक साथ दस-बारह बच्चे होते हैं। अब एक-दो बच्चे पैदा कर लिये तो क्या कर लिया ? कौन-सा बड़ा काम कर लिया ? धन कमा लिया तो कौन-सा बड़ा काम कर लिया ? साँप के पास बहुत धन होता है। धन के ऊपर साँप रहते हैं। धन तो उसके पास भी है। धन कमाया तो कौन-सी बड़ी बात हो गयी ? ऐश-आराम में सुख देखते हैं और कहते हैं कि इसमें सुख भोग लें। बम्बई में मैंने कुत्ते देखे हैं, जिन्हें बड़े आराम से रखा जाता है। बाहर जाते हैं तो मोटर और हवाई जहाज में ले जाते हैं।
यह खयाल करने की बात है कि मनुष्य-शरीर मिल गया। अब भाई अपने को नरकों में नही जाना है। चौरासी लाख योनियों में नहीं जाना है। नीची योनि में क्यों जायें ? चोरी करने से, हत्या करने से, व्यभिचार करने से, हिंसा करने से, अभक्ष्य-भक्षण करने से, निषिद्ध कार्य करने से मनुष्य नरकों में जा सकता है। कितना सुन्दर अवसर भगवान् ने दिया है कि जिसे देवता भी प्राप्त नहीं कर सकते, ऐसा ऊँचा स्थान प्राप्त किया जा सकता है—इसी जीवन में। प्राणों के रहते-रहते बड़ा भारी लाभ लिया जा सकता है। बहुत शान्ति, बड़ी प्रसन्नता, बहुत आनन्द—इसमें प्राप्त हो जाता है। ऐसी प्राप्ति का अवसर है मानव-शरीर में। इसलिये इसकी महिमा है। इसको प्राप्त करके भी जो नीचा काम करते हैं, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं।
कोई बढ़िया चीज मिल जाय तो उसका लाभ लेना चाहिये। जैसे किसी को पारस मिल जाय तो उससे लोहे को छुआने से लोहा सोना बन जाय। अगर ऐसे पारस से कोई बैठा चटनी पीसता है तो वह पारस चटनी पीसने के लिये थोड़ी ही है। पारस, पत्थर से चटनी पीसना ही नहीं, कोई अपना सिर ही फोड़ ले तो पारस क्या करे ? इसी तरह मानव-शरीर मिला, इससे पाप, अन्याय, दुराचार करके नरकों की प्राप्ति कर लेना अपना सिर फोड़ना है। संसार के भोगों में लगना—यह चटनी पीसना है।
भोग कहाँ नहीं मिलेंगे ? सूअर के एक साथ दस-बारह बच्चे होते हैं। अब एक-दो बच्चे पैदा कर लिये तो क्या कर लिया ? कौन-सा बड़ा काम कर लिया ? धन कमा लिया तो कौन-सा बड़ा काम कर लिया ? साँप के पास बहुत धन होता है। धन के ऊपर साँप रहते हैं। धन तो उसके पास भी है। धन कमाया तो कौन-सी बड़ी बात हो गयी ? ऐश-आराम में सुख देखते हैं और कहते हैं कि इसमें सुख भोग लें। बम्बई में मैंने कुत्ते देखे हैं, जिन्हें बड़े आराम से रखा जाता है। बाहर जाते हैं तो मोटर और हवाई जहाज में ले जाते हैं।
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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