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गीता प्रेस, गोरखपुर >> परोपकार और सच्चाई का फल

परोपकार और सच्चाई का फल

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1002
आईएसबीएन :81-293-0515-1

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प्रस्तुत है परोपकार और सच्चाई का फल......

Paropkar Aur Sachchayi Ka Phal a hindi book by Gitapress - परोपकार और सच्चाई का फल - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीहरिः।।

नम्र निवेदन

यह पुस्तक परोपकार और सच्चाई का फल ‘कल्याण’ में ‘पढ़ो, समझो और करो’ शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित घटनाओं का संग्रह है। मनुष्य-जीवन में सबसे मूल्यवान् वस्तु है उसका सात्त्विक और उच्च चरित्र। इस पुस्तक के द्वारा भी सहृदय पाठक-पाठिकागण चरित्र-निर्माण में प्रेरणा प्राप्त करेंगे।


प्रकाशक


परोपकार और सच्चाई का फल



दोब्रीवे की पढ़ाई समाप्त हो गयी। उसका जन्म-दिवस आया। जन्म-दिन के उपलक्ष्य में उसके यहाँ बहुत कीमती सौगात का ढेर लग गया। उसके पिता ने कहा—‘बेटा ! तुम्हारी पढ़ाई हो गयी। अब तुम्हें संसार में जाकर धन कमाना चाहिये। अब तक तुम बहुत अच्छे साहसी, बुद्धिमान और परिश्रमी विद्यार्थी रहे। इतना बड़ा धन तुम्हारे पास हो गया है। मुझे तुम्हारी योग्यता पर विश्वास है।

जाओ और संसार में फूलो-फलो।’
दोब्रीवे प्रसन्न हो उठा। वह अपने माता-पिता को प्रणाम करके अपने सुन्दर जहाजकी ओर चल दिया।
उसका जहाज समुद्र की छाती पर लहरों को चीरता हुआ चला जा रहा था। रास्ते में एक तुर्की जहाज दिखलायी दिया। उसके समीप आनेपर लोगों का कराहना और चिल्लाना सुनायी दिया। उसने चिल्लाकर तुर्की कप्तान से पूछा—‘भाई ! तुम्हारे जहाज में लोग रो क्यों रहे हैं ? लोग भूखे हैं या बीमार ?’
तुर्क कप्तान ने जवाब दिया—‘नहीं, ये कैदी हैं। इन्हें गुलाम बनाकर हम बेचने के लिये जा रहे हैं।’
दोब्रीवे ने कहा—‘ठहरो, शायद हम लोग आपसमें सौदा कर सकें।’

तुर्क कप्तान ने जाकर देखा कि दोब्रीवे का जहाज व्यापारिक सामानों से लदा है। वह अपना जहाज बदलने के लिये तैयार हो गया। दोब्रीवे तुर्की जहाज लेकर चल पड़ा। उसने उसपर रहनेवाले सारे कैदियों से उनके पते पूछे और उनको वे जिन-जिन देशों के थे वहाँ-वहाँ पहुँचा दिया। परंतु एक सुन्दर लड़की और उसके साथ वाली एक बुढ़िया का पता उसे न लग सका। उनका घर बहुत दूर था, रास्ता मालूम न था। लड़की ने बताया कि ‘मैं रूस के जार की पुत्री हूँ और बुढ़िया मेरी दासी है। मेरा घर लौटना कठिन है, इसलिए मैं विदेश में ही रहकर अपनी रोटी कमाना चाहती हूँ।’
दोब्रीवे बोल उठा—‘सुन्दरी ! यदि तुम मुझसे ब्याह करो तो तुम्हें किसी बात की चिन्ता न होगी।’
लड़की उसके स्वभाव और रूप-रंग से उस पर मुग्ध थी; राजी हो गयी।

जब जहाज उसके घर के सामने बन्दरगाह पर लगा तो दोब्रीवे का पिता उससे मिलने आया। उसके बेटे ने कहा—पिताजी ! मैंने आपके धनका कितना अच्छा उपयोग किया। देखिये, इतने दुःखी आदमियों को मैंने सुखी बनाया और एक इतनी सुन्दर दुलहिन ले आया, जिसके सामने सैकड़ों जहाजों की कीमत नहीं के बराबर है।

यह सुनते ही उसके बाप का प्रसन्न चेहरा बदल गया। वह बिगड़कर अपने बेटे को बुरा-भला कहने लगा।
कुछ दिनों के बाद यह समझकर कि लड़का अब कुछ होशियार हो गया, दोब्रीवे के पिता ने दूसरा व्यापारी जहाज तैयार करके उसके साथ उसे विदा किया।
जहाज जैसे ही दूसरे बन्दरगाह पर लगा, दोब्रीवे देखता क्या है कि कुछ सिपाही गरीब आदमियों को कैद कर रहे हैं और उनके बाल-बच्चे उन्हें देखकर बिलख रहे हैं। पता लगानेपर मालूम हुआ कि उनपर राज्य की ओर से कोई टैक्स लगाया गया है जिसे वे अदा नहीं कर सकते, इसलिये कैद किये जा रहे हैं। दोब्रीवे ने अपने सारे जहाज का सामान बेचकर टैक्स चुका दिया और उन गरीब आदमियों को कैद से छुड़ा दिया।

घर वापस लौटने पर उसका बाप इतना बिगड़ा कि उसने दोब्रीवे, उसकी स्त्री और बुढ़िया को अपने घर से निकाल बाहर किया। परंतु अड़ोस-पड़ोस के लोगों ने उसे किसी प्रकार समझा-बुझाकर शान्त किया।

तीसरी बार उसके बापने दोब्रीवे से कहा कि ‘अपनी स्त्री को देखो, अब कभी कोई मूर्खता का काम सामने आवे तो याद रखना कि यदि यह आखिरी मौका तुमने खोया तो इसको भूखा मरना पड़ेगा।’

इस बार दोब्रीवे जहाज पर सवार हुआ। वह बहुत दूर देश में एक बन्दरगाह पर पहुँचा। वहाँ उतरते ही उसने देखा कि एक राजसी पोशाक पहने हुए कोई पुरुष सामने टहल रहा है और उसकी ओर बड़े ध्यान से देख रहा है। पास आने पर उस आदमी ने कहा कि ‘आपने जो अँगूठी पहनी है वह मेरी लड़की की अँगूठी से मिलती-जुलती है, आपने इसे कहाँ पाया। यह अँगूठी रूस के जार की लड़की की है। किनारे चलिये और अपनी कहानी सुनाइये।’

दोब्रीवे की बातें सुनकर जार और उसके मन्त्री को विश्वास हो गया कि जार की खोयी गयी लड़की दोब्रीवे की स्त्री है, जार प्रसन्न हो उठा, उसने दोब्रीवे से कहा कि ‘तुम्हें आधा राज्य दिया जायगा।’ उसने उसे लड़की को और दोब्रीवे के माता-पिता को लाने को भेज दिया। साथ में भेंट के साथ अपने मन्त्री को भेज दिया।

इस बार दोब्रीवे के बापने उससे कुछ न कहा। उसके घरके सब लोग प्रसन्नता पूर्वक जहाज पर सवार होकर रूस के लिये चल दिये। जार का मन्त्री बड़ा डाही था। उसने रास्ते में मौका पाकर दोब्रीवे को जहाज से ढकेल दिया। जहाज तेज जा रहा था। दोब्रीवे समुद्र में किनारे पहुँचने के लिये जोर से हाथ-पैर चलाने लगा। भाग्य से एक पानी की लहर आयी और उसने उसे समुद्र के किनारे जा लगाया।
परंतु वहाँ पहुँचने पर उसने देखा कि वह एक वीरान चट्टान है। दो-तीन दिनोंतक उसने किसी तरह अपने प्राण बचाये। चौथे दिन एक मछुआ अपनी नौका  लिय रास्ते से आ निकला। दोब्रीवे ने उससे अपनी सारी कथा कह सुनायी। वह मछुआ इस शर्त पर उसे रूस के बन्दरगाह पर पहुंचाने के लिये राजी हुआ कि दोब्रीवे को जो कुछ वहां मिलेगा; उसका आधा हिस्सा उसको देगा।

मछुए की नौका उस पार समुद्र के किनारे लगी। दोब्रीवे राजमहल में पहुँचा। जार के आनन्द का ठिकाना न रहा। दोब्रीवे ने उससे प्रार्थना की कि ‘मन्त्री का अपराध क्षमा किया जाय।’ दोब्रीवे की उदारता देखकर जार ने अपना सारा राज्य उसे दे दिया और अपना शेष जीवन शान्तिपूर्वक एकान्त  में भगवान् के भजन में बिताया।
जिस दिन दोब्रीवे के सिर पर राजमुकुट रखा गया, उस दिन एक बूढ़ा मछुआ उसके सामने उपस्थित हुआ। उसने कहा—‘सरकार ! आपने अपना आधा धन मुझे देने का वचन दिया है।’
दोब्रीवे चाहता तो सिपाही को इशारा करके बूढ़ेको दरबार से बाहर निकलवा देता। लेकिन उसने ऐसा स्वागत किया और कहा—‘हाँ महाशय, पधारिये। राज्य का नक्शा देखकर हम आधा-आधा बाँट लें और उसके बाद चलकर खजाना भी बाँटें।’

अकस्मात उस बूढ़े के सफेद बाल सुनहरे हो गये और वह सफेद पोशाक में बोल उठा—
‘दोब्रीवे ! जो दयालु है उसके ऊपर भगवान् दया करता है।’ और अन्तर्धान हो गया।
देवदूत के इस वाक्य को सामने रखकर दोब्रीवे ने बड़ी शान्ति के साथ अपने देशका शासन किया। उसके राज्य में प्रजा सुख और चैनकी वंशी बजाती रही।


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