विभिन्न रामायण एवं गीता >> श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1महर्षि वेदव्यास
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भगवद्गीता की पृष्ठभूमि
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।9।।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।9।।
और भी मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकार
के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के-सब युद्धमें चतुर हैं।।9।।
इस श्लोक में दुर्योधन द्रोणाचार्य को स्मरण करवाता है कि उसके लिए जीवन त्यागने को उद्धत शूरवीर वास्तव में उसके जैसी विचारधारा वाले हैं, तभी तो उसके लिए (मदर्थे अर्थात् मेरे लिए) अपना जीवन अर्पण करने को तैयार हैं। अपना और अपने सेनापति का मनोबल बढ़ाने के लिए उसका ऐसा कहना स्वाभाविक ही है। मनुष्य चाहे कोई अच्छा कार्य कर रहा हो अथवा घृणित कार्य कर रहा हो, उसे अपना मनोबल बढ़ाये ही रखना पड़ता है। रामायण में युद्ध के समय मेघनाथ जब पहली बार युद्ध में लक्ष्मण से पराजित हो जाता है, तो अपने आराध्य देव की आराधना में तप करने चला जाता है। हिटलर के बारे में सर्वविदित ही है कि द्वतीय युद्ध के समय मे वह अपने विश्वास-पात्र लोगों के सानिध्य में ही विश्वविजय की योजनाएं बनाता था। आजकल के समय में महत्वपूर्ण उद्योगपति अपने योग्य कर्मचारियों को समय-समय पर उन्नति के अवसर प्रदान करते रहते हैं। युद्ध के पूर्व दुर्योधन अपने लिए जीवन अर्पण करने वालों की प्रशंसा कर रहा है। आजकल के समय में जब प्रजातंत्र पूरे विश्व में वाँछित और मान्य हो चुका है, तब राजा अथवा वरिष्ठ अधिकारी की प्रशंसा करने वाले लोगों का महत्व धीरे-धीरे कम हो रहा है। भारतीय जन मानस में, चाहे वे भारत में रहते हो अथवा भारत के बाहर, अभी भी राजकीय जीवन की ललक लोगों में बहुत दिखती है, परंतु प्रजातांत्रिक रूप से विकसित देशों में समय के साथ-साथ योग्य व्यक्तियों की अपेक्षा चापलूसों का महत्व कम होता जा रहा है। दुर्योधन को सम्मति देने वाले लोग बहुसंख्यक न भी हों, तब भी, कुछ लोग तो उसे सही दिशा दिखाना चाहते थे, पर दुर्बुद्धि दुर्योधन को चापलूस व्यक्ति अधिक अच्छे लगने स्वाभाविक थे। राजतंत्र के चलते सही बात का समर्थन करने वाले सभी लोगों को दुर्योधन ने चुप करवा दिया था।
इस श्लोक में दुर्योधन द्रोणाचार्य को स्मरण करवाता है कि उसके लिए जीवन त्यागने को उद्धत शूरवीर वास्तव में उसके जैसी विचारधारा वाले हैं, तभी तो उसके लिए (मदर्थे अर्थात् मेरे लिए) अपना जीवन अर्पण करने को तैयार हैं। अपना और अपने सेनापति का मनोबल बढ़ाने के लिए उसका ऐसा कहना स्वाभाविक ही है। मनुष्य चाहे कोई अच्छा कार्य कर रहा हो अथवा घृणित कार्य कर रहा हो, उसे अपना मनोबल बढ़ाये ही रखना पड़ता है। रामायण में युद्ध के समय मेघनाथ जब पहली बार युद्ध में लक्ष्मण से पराजित हो जाता है, तो अपने आराध्य देव की आराधना में तप करने चला जाता है। हिटलर के बारे में सर्वविदित ही है कि द्वतीय युद्ध के समय मे वह अपने विश्वास-पात्र लोगों के सानिध्य में ही विश्वविजय की योजनाएं बनाता था। आजकल के समय में महत्वपूर्ण उद्योगपति अपने योग्य कर्मचारियों को समय-समय पर उन्नति के अवसर प्रदान करते रहते हैं। युद्ध के पूर्व दुर्योधन अपने लिए जीवन अर्पण करने वालों की प्रशंसा कर रहा है। आजकल के समय में जब प्रजातंत्र पूरे विश्व में वाँछित और मान्य हो चुका है, तब राजा अथवा वरिष्ठ अधिकारी की प्रशंसा करने वाले लोगों का महत्व धीरे-धीरे कम हो रहा है। भारतीय जन मानस में, चाहे वे भारत में रहते हो अथवा भारत के बाहर, अभी भी राजकीय जीवन की ललक लोगों में बहुत दिखती है, परंतु प्रजातांत्रिक रूप से विकसित देशों में समय के साथ-साथ योग्य व्यक्तियों की अपेक्षा चापलूसों का महत्व कम होता जा रहा है। दुर्योधन को सम्मति देने वाले लोग बहुसंख्यक न भी हों, तब भी, कुछ लोग तो उसे सही दिशा दिखाना चाहते थे, पर दुर्बुद्धि दुर्योधन को चापलूस व्यक्ति अधिक अच्छे लगने स्वाभाविक थे। राजतंत्र के चलते सही बात का समर्थन करने वाले सभी लोगों को दुर्योधन ने चुप करवा दिया था।
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