विभिन्न रामायण एवं गीता >> श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1महर्षि वेदव्यास
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भगवद्गीता की पृष्ठभूमि
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।28।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।29।।
अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्धक्षेत्र में उपस्थित युद्ध के अभिलाषी इस
स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा
है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है।।28वें का उत्तरार्ध और
29।।
यहाँ हमारे मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इसी दृश्य को भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, कृपाचार्य, धृष्टद्युम्न, युधिष्ठिर, भीम, सात्यकि, अभिमन्यु और भी कई योद्धा देख रहे होंगे। क्या उनके मन में अर्जुन के मन जैसा कोई विचार नहीं आया? क्या वे लोग बिलकुल ही भावशून्य थे? अथवा उनके लिए राज्य की प्राप्ति अथवा राजा के प्रति निष्ठा (भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण जैसों के लिए) ही उनके मन को नियंत्रण में रखने के लिए पर्याप्त थी? यहाँ अर्जुन जब अपने स्वजन समुदाय को देखता है, तब वह भली-भाँति जानता है कि यदि उसका शौर्य सर्वविदित न होता है और कदापि उसके जैसा योद्धा पाण्डवों के पक्ष में होता न होता, तब उस अवस्था में संभवतः शेष पाण्डवों की इस युद्ध की चिंगारी को भड़कने देने की वह सामर्थ्य न होती! यहाँ तक कि स्वयं कृष्ण भी अर्जुन की प्रार्थना पर ही इस युद्ध में भाग न लेने की इच्छा होते हुए भी केवल सारथि बनने को प्रस्तुत हुए थे। युद्ध के लिए उपस्थित लोगों को देखकर अर्जुन के मन में विषाद का भाव उत्पन्न हो रहा है, इसका वर्णन महामुनि व्यास करते हैं, परंतु अन्य किसी के मन में भी इस तरह का कोई भाव उत्पन्न होता है इसके बारे में कुछ भी नहीं लिखते हैं। अर्जुन जैसा महान् योद्धा मानसिक संताप के इतने प्रभाव में आ जाता है कि युद्ध के परिणामों के बारे में सोचकर उसका मुख सूखने लगता है तथा शरीर में कम्पन और रोमाञ्च होने लगता है। महान् योद्धा अपने मन और शरीर की शक्ति से युद्ध करता है, परंतु यदि किसी योद्धा का मन ही विकल हो जाये, तब उसकी शारीरिक शक्ति युद्ध के योग्य नहीं रह जाती है। मानसिक संताप का प्रभाव सर्वथा योग्य व्यक्तियों को भी शक्तिहीन कर देता है।
यहाँ हमारे मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इसी दृश्य को भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, कृपाचार्य, धृष्टद्युम्न, युधिष्ठिर, भीम, सात्यकि, अभिमन्यु और भी कई योद्धा देख रहे होंगे। क्या उनके मन में अर्जुन के मन जैसा कोई विचार नहीं आया? क्या वे लोग बिलकुल ही भावशून्य थे? अथवा उनके लिए राज्य की प्राप्ति अथवा राजा के प्रति निष्ठा (भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण जैसों के लिए) ही उनके मन को नियंत्रण में रखने के लिए पर्याप्त थी? यहाँ अर्जुन जब अपने स्वजन समुदाय को देखता है, तब वह भली-भाँति जानता है कि यदि उसका शौर्य सर्वविदित न होता है और कदापि उसके जैसा योद्धा पाण्डवों के पक्ष में होता न होता, तब उस अवस्था में संभवतः शेष पाण्डवों की इस युद्ध की चिंगारी को भड़कने देने की वह सामर्थ्य न होती! यहाँ तक कि स्वयं कृष्ण भी अर्जुन की प्रार्थना पर ही इस युद्ध में भाग न लेने की इच्छा होते हुए भी केवल सारथि बनने को प्रस्तुत हुए थे। युद्ध के लिए उपस्थित लोगों को देखकर अर्जुन के मन में विषाद का भाव उत्पन्न हो रहा है, इसका वर्णन महामुनि व्यास करते हैं, परंतु अन्य किसी के मन में भी इस तरह का कोई भाव उत्पन्न होता है इसके बारे में कुछ भी नहीं लिखते हैं। अर्जुन जैसा महान् योद्धा मानसिक संताप के इतने प्रभाव में आ जाता है कि युद्ध के परिणामों के बारे में सोचकर उसका मुख सूखने लगता है तथा शरीर में कम्पन और रोमाञ्च होने लगता है। महान् योद्धा अपने मन और शरीर की शक्ति से युद्ध करता है, परंतु यदि किसी योद्धा का मन ही विकल हो जाये, तब उसकी शारीरिक शक्ति युद्ध के योग्य नहीं रह जाती है। मानसिक संताप का प्रभाव सर्वथा योग्य व्यक्तियों को भी शक्तिहीन कर देता है।
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